भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना

रामबहादुर राय

भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना का प्रश्न है बहुत पुराना। राज्य व्यवस्था चाहे भारत की हो या विश्व के किसी देश की हो, इसमें एक समानता हम खोज सकते हैं। वह यह कि राज्य व्यवस्था की रचना एक बड़े उपन्यास जैसी होती है। जिसमें एक साथ कई कहानियां, अनेक पात्र और प्रमुख पात्र आगे-पीछे चलते रहते हैं। उसकी मुख्य कहानी साथ-साथ चलती है। प्रमुख कहानी और प्रमुख पात्र उसमें से अपना रास्ता ढूंढ़ते हैं और वहां पहुंचते हैं जहां उनकी नियति होती है। भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना भी एक वृहद उपन्यास सरीखा है। जिसमें हमारे महापुरूषों के सपने, कल्पना और यथार्थ साथ-साथ चलते हुए देख जा सकते हैं। क्या ऐसा नहीं है? अवश्य है।

आधुनिक इतिहास में पहली बार राज्य व्यवस्था के स्वरूप पर दो महापुरूषों ने एक प्रारूप बनाया। देशबंधु चितरंजन दास और डा. भगवान दास ने 1923 में एक रूपरेखा प्रस्तुत की। उसे ‘शीर्षक दिया-‘आउट लाइन स्कीम आफ स्वराज।’ चितरंजन दास सी.आर. दास के नाम से विख्यात हैं। लेकिन डा. भगवान दास का परिचय भी हमें जानना चाहिए। वे काशी के थे। उन्होंने अपनी जमीन पर भारत माता का एक मंदिर बनवाया। वह पहला मंदिर था। आज अवश्य भारत माता के दो और मंदिर अस्तित्व में हैं। एक हरिद्वार में और दूसरा उज्जैन में। उज्जैन में ठीक महाकाल मंदिर के पास वह स्थित है। भव्य है। राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना के मूलभूत दो पक्ष हैं। एक का संबंध भारत माता से है तो दूसरे का संबंध उसके निवासी जन से है। भारतीय संविधान में संप्रभुता जनता में निहित है। वह उसे कैसे पूरी तरह प्राप्त हो और देश पूर्ण समृद्धि के लक्ष्य पर पहंचे, यही वह प्रश्न है जो पुनर्रचना की अनिवार्यता को उपस्थित करता है। कुछ विघ्नसंतोषी विद्वान इस बारे में उल्टी दिशा से बोल और लिख रहे हैं। यह समय विरोध, प्रतिरोध, अलोचना का नहीं है, समालोचना का है। आज जीवन में परस्परता, सदभाव और संकल्प के संगम की अनिवार्यता उपस्थित है।

पुनर्रचना हमेशा दो स्तरों पर होती है। आंतरिक और बाहरी। बाहरी रूपरंग होता है। आंतरिक में उसके जीवन मूल्य होते हैं। उन मूल तत्वों की रक्षा करते हुए जहां पुनर्रचना की जाती है वह सार्थक और परिणामकारी होती है। यह भी एक सच है कि पुनर्रचना के परिणास्वरूप रूप-रंग बदल जाता है लेकिन परंपरा अक्षुण रहती है। परंपरा का संबंध जीवन मूल्य से होता है। किसी राज्य व्यवस्था का मूल तत्व उसकी परंपरा और स्वभाव में होता है। उसकी निरंतरता जब राज्य व्यवस्था में प्रकट होती है तो वह अधिक सार्थक परिणाम लाती है। इस तरफ ही जिस महापुरूष ने 19 नवंबर, 1949 को ध्यान दिलाया था वे डा. रघुवीर थे। उनका कहा हुआ याद करने की आज जरूरत है- ‘जिस समय हमारे संविधान के सलाह देने वाले मंत्रदाता बी.एन. राव और दूसरे सज्जन आयरलैंड में जा सकते हैं, जिस समय वे लोग स्विट्जरलैंड और अमेरिका जा सकते हैं, यह देखने के लिए कि दूसरे देश अपने राज्य का कारोबार किस तरह चलाते हैं, तो क्या इस देश में कोई ऐसा जानने वाला लिखने-पढ़ने वाला व्यक्ति विद्यमान नहीं था, जो आपको यह बताता कि यह देश भी कुछ अनुभव रखता है, इस देश के रक्त में भी कुछ ऐसे विचार हैं, जो लोगों के अंदर घुसे हुए हैं और उनसे भी हमको लाभ उठाना चाहिए।’ यह डा. रघुवीर ने इधर-उधर नहीं, संविधान सभा में बड़े सहज भाव से कहा था। आज जब इस पर गौर करते हैं तो यह संविधान सभा की बड़ी घटना समझ में आती है।

राज्य व्यवस्था अपने आप में एक व्यापक अवधारणा है। जिसका भारत में बहुत पुराना इतिहास है। जिसकी केंद्रीय अवधारणा में लोकतंत्र, प्रतिनिधि संस्थाएं, सत्ता का विकेंद्रीकरण, विधि का ‘शासन और ग्राम स्वराज प्रमुख रहा है। भारत में विधि के ‘शासन की एक उत्तम अवधारणा हमारी परंपरा में है। जिसे धर्मराज्य और बोल-चाल में रामराज्य कहते हैं। राज्य व्यवस्था के अंग के रूप में संसद, ‘शासन और न्याय पालिका से कौन नागरिक ऐसा होगा जो अपरिचित होगा। इस तरह हम यह अनुभव कर सकते हैं कि जैसा मैंने पहले उल्लेख किया कि राज्य व्यवस्था एक वृहद उपन्यास सरीखा है। उस उपन्यास के पोथे को खोलने और पढ़ने-समझने के लिए अधिक समय चाहिए। वह आज नहीं है। इसलिए यहां मैं राज्य व्यवस्था की गणेश परिक्रमा करना चाहता हूं। कम समय में पृथ्वी परिक्रमा का उदाहरण हमारे पुराणों में है। उसे ही यहां अपना कर पुनर्रचना के प्रश्न को ‘शासन में ग्राम स्वराज की भूमिका पर बोलना चाहता हूं।

यह जो भारत की आज राज्य व्यवस्था है वह संविधान से निकली है। जब इमरजेंसी से पहले ही मीसा में बंदी जीवन बिता रहा था उसी समय राज्य व्यवस्था को समझने के लिए भारतीय संविधान का विद्यार्थी बना। यह 1974 की बात है। अपना विद्यार्थी जीवन चल ही रहा है। हर नागरिक को यह जानना चाहिए कि स्वतंत्र भारत के लिए संविधान कैसे बना। जिस समय संविधान बनाने का महा उद्यम किया जा रहा था तब परिस्थितियां तूफानी थी। भयावह थी। इसलिए साफ सुथरे ब्लैक बोर्ड पर कुछ पंक्तियां लिखने जैसा वह साधारण सा उद्यम नहीं था। जमीन पर संविधान सभा काम कर रही थी और वातावरण में हिंसक संघर्ष, कड़वे और अनसुलझे विवाद और देश विभाजन की जहां त्रासदी थी वहीं संविधान सभा स्वतंत्र भारत की राज्य व्यवस्था को आकार देती जा रही थी। संविधान सभा के उस महा प्रयास से जो संविधान अस्तित्व में आया वह कुछ सचेत मान्यताओं पर आधारित है। जिसमें लोकहित सर्वोंपरि है। संविधान की कल्पना ही वास्तव में लोकहित के एक उपकरण के जैसी है।

जन से बड़ा होता है लोक। लोकहित में ही जनहित आ जाता है। जनहित के उद्देश्य से प्रेरित भारतीय संविधान की निरंतर यात्रा चल रही है। वह सात दशक के पड़ाव पर पहुंची है। उसे अनंत की यात्रा करनी है। जो यात्रा हो चुकी है उसके सिंहावलोकन का यह समय है। जब ऐसा करते हैं तो पहली बात सामने आती है वह यह कि अब तक संविधान में सैकड़ों संशोधन हुए हैं। इस वाक्य पर चैंकिए मत। यह यथार्थ है। संविधान को तीन कारकों ने संशोधित कराया है। जनता की मांग पर पहला संशोधन हुआ। भारत सरकार को जब-जब लगा कि संशोधन जरूरी है तब-तब हुआ। उसकी संख्या भी सवा सौ से उपर पहुंच गई है। संशोधन के जिस आयाम को अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है वह है अत्यंत महत्वपूर्ण। वह क्या है? सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठों ने व्याख्या के बतौर जो निर्णय सुनाए उससे भी संविधान बदला। इन संशोधनों से क्या राज्य व्यवस्था के केंद्र में गांव आ सके? क्या ग्राम स्वराज का सपना पूरा हो गया है?

क्यों हम भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना पर इस समय बात कर रहे हैं? यह कोई भी पूछ सकता है। उसे पूछना ही चाहिए। इसका बहुत सरल उत्तर है। लोकहित की नई चुनौती सामने है। यह समय चाहे जितना संकटमय हो, उसका अंत होगा। तब जो चुनौती होगी, उसे समझने का यह प्रयास है। इसके दो पक्ष हैं। दो उदाहरण हैं। लोकहित का पहला तकाजा आज कोरोना ने उपस्थित कर दिया है। विश्व व्यवस्था की दृष्टि से अगर देखें तो 1945 का साल जैसा था वैसा यह 2020 का हो गया है। यह जितना सटीक दुनिया पर है उतना ही भारत पर भी है। आज बहुत हद तक वैश्विक परिस्थितियां 1944-1945 जैसी विकट हैं। यह बात विश्व व्यवस्था को ध्यान में रखकर कह रहा हूं। अर्थशास्त्री इसे महामंदी से जोड़ेंगे। ऐसा हो भी रहा है। अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रहण्यम ने अर्थ व्यवस्था के संदर्भ में इस समय को प्रलय काल बताया है।

विश्व युद्ध के विजेता देशों ने 1944 में ब्रेटनवुड सम्मेलन से एक बेमिसाल दबदबे वाली विश्व व्यवस्था बनाई। वह चली आ रही है। उस पर आज यक्ष प्रश्न उपस्थित है। यहां हमें यह याद करना चाहिए कि उस समय स्वाधीनता सेनानी क्या सोच रहे थे। इसे ही मैं यहां रेखांकित कर रहा हूं। भारत की स्वतंत्रता का सूरज उगेगा, यह साफ हो रहा था। इसे महात्मा गांधी ने समझा। सोचा कि स्वतंत्र भारत की राज्य व्यवस्था पर विचार करने का सही समय आ गया है। स्वतंत्र भारत में राज्य व्यवस्था की रचना का सिद्धांत क्या हो, इस पर पंडित नेहरू से बात करनी चाहिए। इसलिए उन्होंने 5 अक्टूबर, 1945 को पंडित जवाहरलाल नेहरू को एक लंबा पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने अपने विचार बताएं। इस विषय पर बात करने की जरूरत भी रखी। महात्मा गांधी चाहते थे कि स्वतंत्र भारत आधुनिक सभ्यता-अर्थात पश्चिम की सभ्यता के दुष्चक्र से निकले। और स्वयं के साथ पूरी दुनिया को विनाश से बचाए।

इसलिए ग्राम स्वराज का प्रसंग उन्होंने अपने पत्र में उठाया। गांधीजी अपने राजनीतिक वारिस का दिमाग जानते थे। वे सावधान थे। इसलिए लिखा कि अगर तुम ऐसा समझोगे कि मैं आज के देहातों यानी गांवों की बात करता हूं तो मेरी बात नहीं समझोगे। मेरा देहात यानी गांव मेरी कल्पना में ही आज है। उसमें देहाती यानी ग्रामवासी जड़ नहीं, ‘शुद्ध चैतन्य होगा। उन्होंने अपने पत्र में बताया कि उनकी कल्पना के गांव में मर्द और औरत आजादी से रहेंगे। वहां न हैजा होगा, न मरकी, न चेचक होगा। अंत में लिखा कि मैं ऐसी बहुत सी चीजों का ख्याल करा सकता हूं जो गांव में बड़े पैमाने पर बनेगी। वहां रेलवे भी होगी। डाक घर, तार घर भी होंगे। क्या होगा क्या नहीं, उसका मुझे नहीं पता। न मुझे फिकर है। गांधीजी के पत्र में मूल तत्व इस वाक्य में है-‘मैं चाहता हूं कि हम एक दूसरे को राजकरण (यानी राज्य व्यवस्था की रचना के संबंध में भी) भलीभांति समझें।’ नेहरू जी ने हिन्दी में लिखे गांधीजी के पत्र का जवाब अंग्रेजी में दिया। जिसमें उन्होंने लिखा कि ‘गांव आम तौर पर बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा होता है। ऐसे वातावरण में प्रगति नहीं की जा सकती।’ इस पत्र व्यवहार के 33 दिन बाद वे पूने में मिले। उनमें थोड़ी बात भी हुई। जिसमें गांधीजी ने ग्राम स्वराज की अपनी कल्पना को स्पष्ट किया। गांव एक इकाई हो और वह स्वालंबी हो। पर उस विषय में पंडित नेहरू की कोई दिलचस्पी नहीं थी। इस कारण ग्राम स्वराज की अवधारणा के बारे में उनमें यह बातचीत आखिरी ही थी। कायदे से तो यह होना चाहिए था कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपने को कंेद्र में रखकर संविधान की संरचना की जाती। वे 1948 की जनवरी तक तो प्रत्यक्ष परामर्श के लिए उपलब्ध थे। उनकी ही सलाह पर पत्रकार बी. शिवाराव संविधान सभा में पहुंच सके थे। इसी तरह जब भारत विभाजन की घोषणा से डा. भीमराव राव अंबडेकर की सदस्यता समाप्त हो गई थी तब गांधीजी के कहने से उन्हें पुनः संविधान सभा में स्थान मिला।

ग्राम स्वराज की कल्पना का संविधान में क्या हुआ? क्या उसे केंद्रीय भूमिका मिली? यह एक अलग कहानी है। हमें यहां उसमें पड़ने की जरूरत नहीं है। यह याद कर लेना ही काफी है कि बड़ी कठिनाई से संविधान के अनुच्छेद 40 में गांव को स्थान मिल सका। इसके लिए सचमुच बड़ी हुज्जत करनी पड़ी। जैसे भी हो यह नीति निदेशक तत्व का अंग बन सका। संविधान के जाने-माने विशेषज्ञ गे्रनविल आस्टिन ने भी पाया और अपनी चर्चित पुस्तक- ‘भारतीय संविधान-राष्ट्र की आधार शिला’ में लिखा कि ‘कांग्रेस ने गांधी के बुनियादी आदर्शों को स्वीकार नहीं किया। इसलिए उससे यह उम्मीद करना ‘शायद अनुचित था कि वह गांधी की कल्पना के संस्थाओं को गढ़ने में रूचि लेगी।’ क्या हम इस यथार्थ से अवगत हैं?

इसका बड़ा कारण स्वयं पंडित नेहरू थे। वे तो सोवियत संघ के मॉडल से बहुत गहरे प्रभावित थे। इसीलिए उन्होंने पहली पंचवर्षीय योजना में रूस के नक्शे कदम पर सामुदायिक विकास योजना लागू करवाई। पांच साल बाद जब उसकी समीक्षा हुई तो बड़ी निराशा हाथ लगी। वह योजना रत्तीभर भी सफल नहीं हो सकी थी। इसका तो कोई पता नहीं कि तब नेहरू जी को महात्मा गांधी याद आए या नहीं। लेकिन यह सब जानते हैं कि उन्होंने महात्मा गांधी की जन्मभूमि के एक बड़े नेता बलवंत राय मेहता की मदद ली। उनसे रास्ता सुझाने का विधिवत अनुरोध किया। वही अनुरोध बलवंत राय मेहता कमेटी कहलाई। उसने गांधीजी को याद किया। यह बात 1957 की है। कागजों पर पंचायती राज व्यवस्था लागू हो गई। लेकिन वास्तव में वह जमीन पर नहीं उतरी। आकाश यानी भारत सरकार और गांव के बीच त्रिशंकू की भांति अधमरी सी लटकी रही।

भारत में आदिकाल से पंचायतों का अस्तित्व रहा है। उनसे ही ग्रामीण जीवन संचालित होता था। हर गांव एक स्वायत राज्य था। जिसे आजकल इकाई कहते हैं। वैदिक, रामायण, महाभारत, मौर्य, गुप्तकाल और इसी तरह इतिहास के हर काल में ‘शासन की पहली इकाई पंचायत प्रणाली रही है। यह क्रम सतरहवीं सदी तक अनवरत बना रहा। इसीलिए तो उस समय यानी सतरहवीं सदी के अंत तक विश्व की अर्थ व्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 23 फीसद थी। इसे ब्रिटेन के आर्थिक इतिहासकार एंगस मेडिसन ने स्वीकार किया है और लिखा है। पर वास्तव में उस समय भारत की हिस्सेदारी 27 फीसद थी। इसी कारण तब भारत सोने की चिड़िया थी। अंग्रेजों ने उसे चैपट किया। जब भारत आजाद हुआ तो विश्व की अर्थ व्यवस्था में उसकी हिस्सेदारी गिर कर तीन प्रतिशत आ गई थी। दो सौ सालों की लूटपाट का यही एक दुष्परिणाम नहीं था। सबसे बड़ा दुष्परिणाम जो हुआ वह यह था कि ब्रिटिश काल में भारत के गांव भी गुलामी के चपेट में आ गए। अंग्रेजों ने गांवों को सिर्फ राजस्व का जरिया बनाया। इसके लिए ही पंचायत प्रणाली को फिर से जिंदा किया। जिससे गांव-समाज में टूटन और दरार जो पड़ी वह बनी हुई है। इसका सबसे बुरा प्रभाव गांवों की समृद्धि और आत्मनिर्भरता पर पड़ा। गांव धीरे-धीरे परावलंबी होने लगे। स्वाधीनता संग्राम में महात्मा गांधी के सहयोगी जे.सीकुमारप्पा ने इस विषय का गहरा अध्ययन कर एक पुस्तक लिखी-‘गांव आंदोलन क्यों?’ वे मौलिक चिंतक थे। उनकी यह पुस्तक आज भी बहुत उपयोगी है। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने इसे पुनः प्रकाशित किया है। 1939 में इसका तीसरा संस्करण निकला था। अफसोस है कि हमने जेसी. कुमारप्पा को भुला दिया है। उन्हें याद करने का यह सही समय है।

महात्मा गांधी और जे.सी. कुमारप्पा के बाद जेपी (लोकनायक जयप्रकाश नारायण), पंडित दीनदयाल उपाध्याय और डा. लोहिया ने ग्राम स्वराज को मूलभूत माना। उसके लिए अपनी ‘शब्दावली में अभियान चलाया। इन महापुरूषों के विचारों से पांच सूत्र निकलते हैं। पहला कि भारत की प्राचीन ग्राम व्यवस्था को आधुनिक ढंग से पुनर्गठित किया जाना चाहिए। दूसरा-शासन में गांव को मूल इकाई बनाया जाना चाहिए। तीसरा-गांव, जिला, राज्य और केंद्र का क्रमिक और उत्तरोत्तर परंतु एकीकृत विकास होना चाहिए। चैथा-गांव स्वायत हों। पांचवां-केंद्र के हाथ में नियत्रंण रहना चाहिए। जब जेपी ने देखा कि पंचायती राज के प्रति राज्य सरकारें अरूचि दिखा रही हैं। उन्होंने ग्राम स्वराज के लिए एक राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया, जिसमें अनेक मुख्यमंत्री और बड़े राजनीतिक नेता आए। उन्होंने एक लेख लिखा। उस पर उस समय पूरे देश में बहस छिड़ी। अनेक प्रश्न उठाए गए। जिसका उत्तर देते हुए जेपी ने एक पुस्तिका लिखी। जिसमें उनके सुझाव हैं। वह आज भी प्रासंगिक है।

इस उदाहरण से एक निष्कर्ष हम निकाल सकते हैं। वह यह कि राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना का प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। एक महा प्रयास की मांग करता है। जयप्रकाश नारायण ने इस बारे में दो बातें सुझाई थी। पहली यह कि संविधान की आत्मा में स्वतंत्रता और लोकतंत्र रचा-बसा है। लेकिन उससे बनी राज्य व्यवस्था उल्टे पिरामिड पर खड़ी है। इसका व्यवहारिक अर्थ यह है कि स्वराज ऊपर से टपकाया जा रहा है। दूसरी बात उन्होंने यह कही कि यह उचित है कि पिछले दस साल की अवधि के अपने लोकतांत्रीय अनुभव का लेखा-जोखा किया जाए। यह 1959 की घटना है। मैं यहां यह प्रश्न नहीं उठाना चाहता कि जिस तरह महात्मा गांधी को पंडित नेहरू के ‘शासन ने नकारा क्या उसी तरह जेपी को जनता ‘शासन ने नहीं नकारा?

पंचायत प्रणाली का एक हद तक पुनरूद्धार का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहाराव को है। इसकी कहानी बड़ी रोचक है। वह अनकही कहानी एक ‘शानदार अफसर से जुड़ी है। जैसे ब्रिटिश काल में पेंडेªल मून थे वैसे ही आजाद भारत में एक अफसर हुए-विनोद पांडे। जो बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री काल में केबिनेट सचिव हुए। भारत विभाजन के समय पेंडेªल मून ने सिक्खों के सलाहकार की भूमिका निभाई। उनसे सरदार बलदेव सिंह सलाह लेकर ही अपना निर्णय करते थे। लेकिन विनोद पांडे का किस्सा जो बताने जा रहा हूं वह उस समय का है जब राजीव गांधी अपने प्रधानमंत्रित्व काल में बोफोर्स तोप खरीद में रिश्वतखोरी के आरोपों में फंसे थे, तब उन्होंने विनाद पांडे को बतौर सजा ग्रामीण विकास मंत्रालय में सचिव बनाकर भेजा। विनोद पांडे ने मंत्रालय के तहखाने को तलाशा। बलवंत राय मेहता कमेटी की रिपोर्ट का अध्ययन कर प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सुझाया कि अगर आप संविधान में संशोधन कर गांवों में पंचायत प्रणाली और ‘शहरों में स्वशासित निकाय बनवाते हैं तो हो सकता है कि भ्रष्टाचार के आरोप लोग भूल जाए और दूसरी बार भी कांग्रेस को चुनाव में जिता दें।

इसीलिए संविधान का संशोधन प्रस्ताव आया। लेकिन राजीव गांधी के सलाहकारों ने उन्हें एक नई सलाह दे दी कि लोकसभा से पारित कराकर उसे राज्यसभा में अटका देना चाहिए। उसका आरोप विपक्ष पर थोप दें तो जीत सुनिश्चित हो जाएगी। लोग सत्ता के विकेंद्रीकरण के ऐतिहासिक निर्णय कराने में बाधक बनने का क्षोभ विपक्ष पर निकालेंगे। राजनीतिक अनुभव से रहित राजीव गांधी थे अच्छे इंसान। लेकिन प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उन्हें चलाते उनके सलाहकार थे। जो भी हो, पी.वी. नरसिंहा राव की सरकार ने उसे ही 73वें और 74वें संविधान संशोधन का रूप दिया। संविधान के 73वें संशोधन से पंचायतों को संवैधानिक मान्यता मिली। उसके लिए कानून बनाने का अधिकार राज्यों को दिया गया। इस तरह 24 अप्रैल, 1993 से जिला, मध्यवर्ती और ग्राम स्तर की पंचायतें बनी। इनके निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या 34 लाख है। क्या इन संशोधनों से ग्राम स्वराज आया है?

नरेंद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने ग्राम स्वराज को सचमुच गले लगाया है। ‘शासन संभालने के बाद हर साल 24 अप्रैल को ‘राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस’ पर वे अपने विचार और सुझाव देते हैं। यह विषय उनकी प्राथमिकता में है। 2015 में उन्होंने ‘शुरूआत की। तब उनके कहे का यह अंश देखें-‘महात्मा गांधी हमेशा कहते थे कि भारत गांवों में बसता है।’ यह याद दिलाते हुए उन्होंने तब गांवों की चैतरफा उन्नति के लिए उपाय सुझाए। यह क्रम निरंतर चल रहा है। कोरोना की वैश्विक महामारी के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते 24 अप्रैल को लाखों सरपंचों को वीडियों कांफ्रेंसिंग से संबोधित किया। उन्होंने कहा-‘गांव तक सुराज पहुंचाने के हमारे संकल्प को दोहराने का पंचायती राज दिवस एक अवसर है।’ इससे भी ज्यादा बड़ी बात, लाख टके की बात उन्होंने कही-‘कोराना संकट के इस दौर में इस संकल्प की प्रासंगिकता तो और बढ़ गई है।’ उन्होंने इस संकट का सबक समझाया। आत्म निर्भर बनना है। इसमें ग्राम पंचायतों की बड़ी भूमिका है। उसी दिन उन्होंने ई ग्राम स्वराज की ‘शुरूआत की। आत्म निर्भरता का यह आह्वान वैसा ही है जैसा कभी लोकमान्य तिलक ने कहा था-‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।’ यह सही समय है। पहली बार ‘शहरों ने गांवों का रूख किया है। लाखों लोग ‘शहर से अपने गांव पहुंचे हैं। समय का चक्र घूम गया है। ग्राम स्वराज को इस समय पुनः स्थापित किया जा सकता है।

अरबों-खरबों कोरोना का वजन वैज्ञानिकों ने एक ग्राम से भी कम माना है। इस एक ग्राम से कम कोरोना ने जो समझाया है वह उन लोगों के लिए भी सबक है जो मानते थे कि दुनिया सपाट है। कुछ साल पहले की घटना है। बेंगलुरू का एक दृश्य देखकर थामस फ्रीडमेन को सूझा- द वल्र्ड इज फ्लेट। उन्हें मानों एक मंत्र मिल गया। अपनी पत्नी को अमेरिका फोन किया और कई बार कहा कि दुनिया सपाट है। इस थीम पर उन्होंने 21वीं सदी का एक खाका बनाया। वह भूमंडलीकरण के उत्सव की कहानी है। आज उस पर सबसे बड़ा प्रश्न खड़ा है। जब भारत सरकार ने भूमंडलीकरण का रास्ता पकड़ा था तब सबसे पहले जिस व्यक्ति ने चेतावनी दी थी वे थे-बालासाहब देवरस। स्वदेशी आंदोलन उनकी चेतावनी से ही प्रकट हुआ। आज भी कोई ज्यादा देर नहीं हुई है। समय-समय पर भारत की राज्य व्यवस्था पर हमारे महापुरूषों ने जो-जो कहा उसे समझने और समझाने का उचित समय यही है। वैसे भी कहते हैं जब जगे तभी सवेरा।

प्रश्न यह है कि ग्राम स्वराज और भारत की राज्य व्यवस्था में गांवों की केंद्रीय भूमिका की पुनःस्थापना कैसे हो? क्या इसके लिए नए संविधान की आवश्यकता है? क्या समय की मांग है कि संविधान का पुनरावलोकन किया जाए? ऐसे अनेक प्रश्न हो सकते हैं। इन प्रश्नों का संबंध वास्तव में राज्य व्यवस्था की औपनिवेशिक संरचना से है। उसे बदलने का एक महा उद्यम करना होगा। इसके लिए अध्ययन, ‘शोध और परिशीलन का क्रम निरंतर चलना चाहिए। जहां तक मौजूदा संविधान का प्रश्न है उसे किस दृष्टिकोण से भारत सरकार के मुखिया यानी प्रधानमंत्री देखते हैं इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। इंदिरा गांधी ने इस संविधान को जिस रूप में देखा उसका ‘शब्दचित्र इमरजेंसी के दौरान हुए संविधान के संशोधनों में हम पढ़ सकते हैं। उस समय उन्होंने संविधान को मूसल बना दिया। जिसे हाथ में लेकर वे लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों पर मनमानी प्रहार करती रहीं। कमाल तो यह हुआ कि दुनिया में पहली बार किसी संविधान की प्रस्तावना से भी छेड़छाड़ हुई। जिसे ग्रेनविल संविधान का मुकुट माना उसे इंदिरा गांधी ने तोड़ दिया। इसके विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस संविधान को लोकहित के लिए अर्जुन के गांडीव का रूप मानते हैं। ऐसी स्थिति में अगर वे पंचायती राज प्रणाली में थोड़े से सुधार कर देने का संकल्प लें तो ग्राम स्वराज का लक्ष्य प्राप्त हो सकता है। संविधान के 73वें संशोधन से जो पंचायती राज प्रणाली बनी उसे 26 साल होने जा रहे हैं। इस दौरान जो अनुभव आए हैं उनके आधार पर ग्राम स्वराज का लक्ष्य पाने के लिए आठ निर्णय भारत सरकार को तत्काल करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-

  1. संविधान में 11वीं अनुसूची के अधीन पंचायतों के विषय निर्धारित हैं। वे 29 विषय हैं। उन सभी विषयों के समुचित कार्य-संचालन के लिए कर्मचारी और कोष उन्हें प्राप्त होना चाहिए। इसकी संवैधानिक तथा विधिक व्यवस्था की जानी चाहिए।
  2. भारत सरकार एक आयोग गठित करें जो राज्य सरकार और पंचायतों के संबंधों की समीक्षा करेगा।
  3. हर ग्रामीण नागरिक को सरल, सस्ता और सर्व सुलभ न्याय उपलब्ध कराने तथा गांव में समरसता, सद्भाव और भाईचारे को बढ़ाने के लिए संसद ‘न्याय पंचायत’ अधिनियम बनाए।
  4. पंचायतों से संबंधित 29 विषयों से जुड़ी भारत सरकार की योजनाओं को इस तरह नियोजित किया जाए कि पंचायतें अपने क्षेत्र की आवश्यकता व परिस्थिति के अनुरूप उसमें बदलाव कर सकें। यह बदलाव ग्राम सभा की सहमति से होना चाहिए।
  5. पंचायत प्रतिनिधियों तथा उससे संबंधित कर्मचारियों एवं अधिकारियों में पंचायत व्यवस्था से संबंधित विशिष्ट ज्ञान, कौशल तथा क्षमता के विकास एंव संबर्धन हेतु भू-सांस्कृतिक क्षेत्रों को दृष्टि में रखते हुए ‘भारतीय पंचायत प्रबंधन संस्थान’ की स्थापना की जानी चाहिए।
  6. पंचायत को सैल्फ गर्वमेंट के रूप में परिभाषित करने की जरूरत है। संविधान के अनुच्छेद 40 और 243 (जी) में पंचायत को सैल्फ गर्वमेंट के अधिकार और दायित्व सौंपने की बात की गई है। लेकिन इसको परिभाषित नहीं किया गया है। इसलिए जरूरी हो गया है कि इसे संविधान में परिभाषित किया जाए।
  7. संविधान के अनुच्छेद 243 (जी) में ग्राम सभा का प्रावधान किया गया है। जो पंचायती राज व्यवस्था के मूल लक्ष्य की प्राप्ति की सबसे महत्वपूर्ण संस्था है। लेकिन इसके स्वरूप, अधिकार, कार्यपद्धति के निर्धारण का दायित्व राज्य विधान मंडलों पर छोड़ दिया गया है। जिसके चलते ग्राम सभा के संबंध में राज्यों में बहुत अधिक भ्रम है। जरूरी हो गया है कि संविधान में ग्राम सभा के अधिकार, दायित्व और कार्यपद्धति के बारे में स्पष्ट प्रावधान हो। जिससे ग्रामवासी सहभागी बन सके और पारदर्शिता का लक्ष्य जो ई ग्राम स्वराज के घोषित करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रखा वह प्राप्त किया जा सके।
  8. ग्राम स्तर पर पंचायतों में न्याय पंचायतों का प्रावधान संविधान में किया जाना चाहिए। अंत में, यह बताना जरूरी है कि 75 के पार पहुंचे के.एन. गोविंदाचार्य ने एक गांव को अपनाया है। यह ग्राम स्वराज की दिशा में उठा एक अनुकरणीय उदाहरण है। यह कोरोना संकट के दिनों की ही बात है।

 

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