कोरोना ने प्रकृति के करीब जाने, उसके सानिध्य में जीने की एक ललक पैदा की। हालांकि ये ललक पैदा हुई मजबूरी में। लेकिन प्रकृति और हमारे जीने के तरीके में बदलाव तो आया ही। ये अलग बात है कि ये बदलाव थोड़ा ही साबित हो रहा। लेकिन ये हुआ कि हम सब जीवन जीने के तरीके को अपनी सनातन परंपरा की तरफ मुड़े जरूर।
इसे समझने के लिए हमें यह भी समझना होगा कि हम जिस भारत भूमि के वासी है वह भारत भूमि अनंत प्राकृतिक एवं सभ्यातागत संसाधनों से मंडित रहा है। किंतु काल के प्रहाव के कारण हम स्मृतिलोप के ऐसे भंवर में फंसे कि अपनी अनुपम प्राकृतिक संपदा का न तो हमें ज्ञान रहा और न ही अभिमान रहा। इस स्मृतिलोप से निकलने का अवसर हमें कोरोना काल में मिला।
इसे समझने के लिए हमें अतीत में झाकने की भी जरूरत पड़ेगी। हमें अपने प्राचीन ग्रंथों के पन्ने पलटने पड़ेगें। अपने पुरखों के प्रकृति के साथ संबंधों को समझना पड़ेगा। उस तरीके को अपनाना पड़ेगा। मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को महर्षि बाल्मिकी रचित रामायण से समझ सकते हैं। क्योंकि रामायण में आदर्श व्यवस्था को रामराज्य के रूप में बतलाई गई है। उस रामराज्य में आखिर मनुष्य और प्रकृति का रिश्ता क्या था?
इस सम्बन्ध में एक उदाहरण चित्रकूट में राम भरत मिलन के समय मिलता है। राम जी अपने दुखी भाई भरत से पूछते हैं कि उनके दुखी होने का क्या कारण है? क्या उनके राज्य में वन क्षेत्र सुरक्षित हैं? अर्थात वन क्षेत्रों के सुरक्षित न रहने पर पहले लोग दुखी एवं व्याकुल हो जाया करते थे। वाल्मीकि रामायण में वर्णित उदाहरण निम्न प्रकार है।
कच्चिन्नागवनं गुप्तं कच्चित् ते सन्ति धेनुकाः।
कच्चिन्न गणिकाश्वानां कुन्जराणां च तृप्यसि।।
जहां हाथी उत्पन्न होते हैं, वे जंगल तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हैं न? तुम्हारे पास दूध देने वाली गाएं तो अधिक संख्या में हैं न? तुम्हें हथिनियों, घोड़ों और हाथियों के संग्रह से कभी तृप्ति तो नहीं होती? अनेक स्थानों पर वाल्मीकि जी ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशीलता को रेखांकित किया है। भरत जी अपने सेना एवं आयोध्यावासियों को छोड़कर मुनि के आश्रम में इसलिये अकेले जाते हैं कि आस-पास के पर्यावरण को कोई क्षति न पहुंचे।
ते वृक्षानुदकं भूमिमाश्रमेषूटजांस्तथा। न हिंस्युरिति तेवाहमेक एवागतस्ततः।।
वे आश्रम के वृक्ष, जल, भूमि और पर्णशालाओं को हानि न पहुंचायें, इसलिये मैं यहां अकेला ही आया हूं। पर्यावरण की संवेदनशीलता का यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है। रामराज्य पर्यावरण की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न था। मजबूत जड़ों वाले फल तथा फूलों से लदे वृक्ष पूरे क्षेत्र में फैले हुये थे।
नित्यमूला नित्यफलास्तरवस्तत्र पुष्पिताः। कामवर्षी च पर्जन्यः सुखस्पर्शैं मरुतः।।
श्री राम के राज्य में वृक्षों की जड़ें सदा मजबूत रहती थीं। वे वृक्ष सदा फूलों और फलों से लदे रहते थे। मेघ प्रजा की इच्छा और आवश्यकता के अनुसार ही वर्षा करते थे। वायु मन्द गति से चलती थी, जिससे उसका स्पर्श सुखद जान पड़ता था। इसलिए जो कुछ हम सब रामायण से समझ पाते हैं, वह ही मनुष्य के जीवन जीने की सनातन परंपरा है। वही परंपरा ही हम सबको यह बताती है कि प्रकृति रामराज्य का आधार है।