सचमुच सुशील

रामबहादुर राय

सुशील मोदी पटना में जन्मे। वहीं पढ़ाई की। पढ़ाई के दौरान सच के लिए लड़ाई लड़ना सीखा। पढ़ाई छूट गई और जो लड़ाई छेड़ी, वह आजीवन चली। बिहार उनकी कर्मभूमि रही। लेकिन वे एक राष्‍ट्रीय नेता थे। तभी तो प्राण छोड़ा, दिल्ली में। अनंत जीवन का एक अध्याय पूरा हुआ। क्या यह नियति का खेल है? जो भी हो, देहावसान से राष्‍ट्रीय राजनीति का ऐसा सितारा हमारी आंखों से ओझल हो गया है, जिसे प्रामाणिकता के लिए याद किया जाता रहेगा। वे स्मृति के विविध रूपों में बने रहेंगे। सहयोगियों के लिए भरोसेमंद साथी का अभाव खलेगा। राजनीति के कार्यकर्ताओं के लिए एक ऐसे नेता की कमी अनुभव होगी जो रहता उनके बीच था, लेकिन जरूरत पड़ने पर उनसे दो कदम आगे चलकर नई राह दिखाता था। सफलता का दूसरा नाम है, राजनीति। सुशील मोदी सार्थकता और प्रामाणिकता के पर्याय थे। उनमें ये तीनों बातें थी। ऐसे दुर्लभ गुण राजनीति के चेहरों में खोजना क्या आसान है!

इसी साल कुछ महीने पहले भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने अपने कुछ पुराने मित्रों को एक दिन घर बुलाया। कुछ आए, कुछ दूर से आए और कुछ नहीं आ सके। जो आए उनमें सुशील मोदी भी थे। इसे अब मैं संयोग ही समझता हूं कि उस दिन हम दोनों आमने-सामने बैठे थे। स्वाभाविक था कि जे.पी. नड्डा बातचीत की शुरुआत करते, जो उन्होंने किया। फिर क्या था! बातचीत का सिलसिला चल पड़ा। मैं बार-बार सुशील मोदी को निहारता रहा। वे गुमसुम बैठे थे। गोरा रंग और चेहरे पर ओज जिस व्यक्ति की पहचान थी, जिसे बातचीत में हमेशा अपनी बारी का इंतजार रहता था और वह अवसर मिलने पर स्पष्‍ट विचार रखने के लिए जो जाना जाता था, उस व्यक्ति का उस दिन रंग-ढंग बिल्कुल बदला हुआ था। चेहरे पर स्याहपन मुझे बार-बार अचंभे में डाल रहा था। लेकिन उनमें आत्मसंयम इतना अधिक था कि वहां किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी कि सुशील मोदी चंद दिनों के मेहमान हैं। वे पहले जैसे थे, भले ही शरीर रोग ग्रस्त हो। आत्मबल ही था कि वे न केवल चलकर आए बल्कि अंत तक वहां बने रहे। यह बात अलग है कि उस दिन सुशील मोदी चुप थे, यही अस्वभाविक था। जो मेरे लिए एक सवाल बन गया।
इसका राजफांस उन्होंने ही 3 अप्रैल को ट्वीट कर किया। तब लोगों ने जाना कि वे कैंसर की बीमारी में पड़ गए हैं। वह ट्वीट भी जरूरी था क्योंकि जिस सुशील मोदी ने बिहार के हर चुनाव में 1990 से नेतृत्व किया, वे अनुपस्थित रहे, तो लोग पूछेंगे ही कि आखिर क्या बात है। इसलिए प्रामाणिकता का यह तकाजा था कि वे अपने साथियों सहित सबकों बता दें कि चुनाव अभियान में वे इस बार नहीं शामिल हो सकेंगे। उनके बेटे अक्षय अमृतांशु ने एक गजब की सूचना अपने स्मृति लेख में दी है। वे एम्स में भर्ती थे। अचानक 12 मई की शाम वे उठ बैठे और कहा कि टीवी खोलो। कारण कि उन्हें अपने प्रिय नेता और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पटना में रोड शो को देखना था। जिसे देखा भी और संतोष की सांस ली। अपनी कर्मभूमि में उस राजनीतिक दल को फलते-फूलते देख उन्हें वह अनुभूति हुई, जो एक सार्थक राजनीतिक जीवन जीने वाले को होती है। वह एक राजनीतिक घटना थी। सुशील मोदी अगर स्वस्थ होते तो वे सहभागी होते। उस समय वे साक्षी बने। वही भाव उनकी अंतिम सांस बनी। वे अपनी अनंत यात्रा से पहले अपने राजनीतिक धर्म का पूरा निर्वाह कर सके। ऐसा अंत सबको कहां सुलभ होता है!
वे संतुष्‍ट जीवन के अप्रतिम उदाहरण माने जाएंगे। जो प्रामाणिक होता है, वही अप्रतिम की सीढ़ियों को पार कर आकाश को चूम पाता है। उनका जीवन एक प्रमाण भी है। ऐसे प्रमाण विरले होते हैं। क्या कभी आपको ऐसा राजनीतिक नेता  मिला है, जो यह कहे कि मेरी कोई अधूरी आकांक्षा नहीं है। मुझे जीवन में सबकुछ मिला है। बड़ों का स्नेह, साथियों का आदर, राजनीति में सम्मान और पद। यही तो एक राजनीतिक जीवन की पराकाष्‍ठा होती है। उनके अंतिम दिनों में एक प्रश्‍न उनके बेटे ने ही पूछा कि कोई इच्छा अधूरी तो नहीं रही! उनका उत्तर जो था, वहअसाधारण था। कहा, मुझे सब कुछ मिल गया है। वे अपने जीवन से संतुष्‍ट थे। कैंसर के कई प्रकार आज ऐसे हैं जिनका इलाज हो जाता है। फिर भी कैंसर रोग शरीर में आ गया है, इसकी जानकारी मात्र से व्यक्ति कोई भी हो वह एक क्षण के लिए गहरे में भयग्रस्त हो जाता है। उस पर दोहरी मार पड़ती है। रोग और भय की। मेरा अनुमान है कि सुशील मोदी ने, जो है और जैसा है, उसे स्वीकार कर लिया था। जो है, वह कैंसर था। जैसा है, वह एक यथार्थ है। इसे सब लोग कहां स्वीकार कर पाते हैं। जो स्वीकार कर लेता है वह एक उदाहरण बन जाता है। यही सुशील मोदी ने किया। उन्होंने इसे निजी समस्या माना। इस संकल्प से वे चल रहे थे कि जीवन का यह यथार्थ है। उसका सामना करना है। लेकिन एक राजनेता की हर बात सब लोग जान जाते हैं। सुशील मोदी ने इसे जितना संभव था उतना अपने तक रखा। किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी, लेकिन उनको बीमारी तो डेढ़ साल पहले लग गई थी। ऐसे सुशील मोदी से कई बातें सीख सकते हैं।
सामाजिक और सार्वजनिक जीवन की डगर पर कैसे संभलकर चलना है और दूसरे को संभालते भी रहना है, इसका एक शब्द चित्र उनके जाने के बाद स्पष्‍टतया उभरा है। उसमें सब कुछ है। उनके व्यक्तित्व में दृढ़ता और विनम्रता का समन्वय था। उस विनम्रता में कमजोरी नहीं, शक्ति थी और संकल्प भी था। यही वह सूत्र है, जो सुशील मोदी के जीवन की परिभाषा मानी जा सकती है। उनके माता-पिता ने उन्हें नाम दिया, सुशील। शील में सुंदरता जुड़ जाती है, तो कोई सुशील होता है। जैसा नाम वैसा जीवन वे जीए। उनके विद्यार्थी जीवन से ही मुझे उन्हें जानने का अवसर 1972 में मिला। अगले साल पटना विश्‍वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव होने थे। हमें सही उम्मीदवारों की खोज थी। उसमें ज्यादा समय नहीं लगा। उन दिनों समय और मनुष्‍य की सही परख के पारखी और हमारे बड़े भाई के.एन. गोविंदाचार्य पटना में ही थे। उन्होंने सुशील मोदी का नाम सुझाया। सभी खुश हुए। समस्या जो थी, उसका समाधान हो गया। छात्र संघ चुनाव के लिए एक पैनल बन सका। वह त्रिकोण था। उसके आधार सुशील मोदी ही थे। पटना विश्‍वविद्यालय के इतिहास में पहली बार अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का पैनल छात्र संघ के चुनाव में जीता। यह बात 1973 की है। वह छात्र राजनीति का अविस्मरणीय इतिहास है।
सुशील मोदी महासचिव बने। कुछ लोग उस दिन से उनका सार्वजनिक जीवन शुरू हुआ मानते हैं। वे नहीं जानते कि सुशील मोदी का देश प्रेम इतना प्रबल था कि 1962 में ही वे चीनी आक्रमण के प्रतिरोध में छात्रों को गोलबंद करने में सक्रिय थे। देश प्रेम और देश भक्ति से प्रेरित होकर अगर कोई राजनीति में कदम रखता है, तो उसमें धैर्य भी होता है और सीखने की हर कदम पर तीव्र अभीप्सा भी होती है। यह सुशील मोदी के जीवन के हर चरण में हम पाते हैं। जो छात्र राजनीति में पहली कतार का छात्र नेता था, वह इस बात की शिकायत करता हुआ नहीं पाया गया कि 1977 में उसे लोकसभा में जाने का अवसर क्यों नहीं दिया गया। उन्हें अवसर मिला बहुत बाद में। कम से कम 13 साल बाद। यह बात 1990 की है। लेकिन जब अवसर मिला, तो सत्ता और संपत्ति, पद और प्रतिष्‍ठा के मायाजाल से बाहर रहकर जनहित के लिए राजनीति का ऐसा उत्कृष्‍ट पदचिन्ह वे छोड़ गए हैं, जिस पर चलना तलवार की धार पर चलने के समान है।
उन्हें ऊंचे और समान राजनीतिक नेताओं समेत बहुत नामी लोगों ने बड़े अपनेपन से याद किया है। उन लोगों ने भी याद किया है, जिनके भ्रष्‍टाचार को सुशील मोदी ने उजागर करने का बीड़ा उठा लिया था। इसके लिए उन्होंने अभियान चलाया। आरोप लगाए। पर आरोप के लिए आरोप नहीं लगाए। उसके पूरे प्रमाण दिए। परिणाम किसे नहीं मालूम! 4 अप्रैल, 2017 पटना के लिए एक साधारण दिन हो सकता था। लेकिन सुशील मोदी ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस से यादगार दिन बना दिया। वह दिन एक मील का पत्थर बन गया है। वे चाहते तो चुप रह सकते थे। फिर वे सुशील मोदी नहीं होते। एक प्रेस कांफ्रेंस कर रूके नहीं, उसे तब तक जारी रखा जब तक वह मुद्दा एक नतीजे तक नहीं पहुंच गया। नतीजा हर कोई जानता है। 26 जुलाई, 2017 इसलिए याद की जाती रहेगी क्योंकि उस दिन सुशील मोदी के अभियान से महागठबंधन की सरकार अपने बोझ से धराशायी हो गई। इस अवधि में उन्होंने 101 प्रेस कांफ्रेंस की। नतीजे में नीतीश कुमार ने सुशील मोदी की सचाई के सामने सिर झुका दिया। अभियानी होना एक बात है और सच के लिए साहसपूर्वक लड़ना बिल्कुल दूसरी बात है। यह भी याद करना जरूरी है कि वह उनका दूसरा अभियान था। पहला अभियान तो चारा घोटाले को उजागर करने के लिए था। ऐसे सुशील मोदी को भारतीय राजनीति के आकाश में सच का चमकता सितारा माना जाएगा।
सामाजिक और सार्वजनिक जीवन की डगर पर कैसे संभलकर चलना है और दूसरे को संभालते भी रहना है, इसका एक शब्द चित्र उनके जाने के बाद स्पष्‍टतया उभरा है। उसमें सब कुछ है। उनके व्यक्तित्व में दृढ़ता और विनम्रता का समन्वय था। उस विनम्रता में कमजोरी नहीं, शक्ति थी और संकल्प भी था। यही वह सूत्र है, जो सुशील मोदी के जीवन की परिभाषा मानी जा सकती है।

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