अगर हर रास्ता स्वाधीनता की मंजिल की ओर जाता है, तब प्रश्न यह नहीं है कि कौन क्या मार्ग चुने। प्रश्न यह वास्तविक हो जाता है कि कोई भी समूह किस मार्ग के अनुकूल अपने को पाता है। वही मार्ग उसका अपना होगा। लेकिन वह मार्ग सही है, इसका निर्धारण इससे होगा कि क्या वह मंजिल की दिशा में ही है। इस कसौटी पर शाह वलीउल्लाह और सैयद अहमद बरेलवी का रास्ता अंग्रेजों से लड़ने के बजाए हिन्दुओं से लड़ने का दिखता है। उनका लक्ष्य स्वाधीनता के गलत भाष्य में प्रकट होता है। वह इस्लामवाद की स्थापना का है। इससे यह बात सामने आती है कि वह जंग वर्चस्व की थी। जिससे स्वाधीनता आंदोलन के रथ को रोकने की जिद्द निकली। यहां इस फर्क को ध्यान में रखना चाहिए कि साधारण हिन्दू और मुसलमान एक ही मंजिल से प्रेरित थे। वह स्वाधीनता की थी। यह बात दूसरी है कि नेतृत्व में समय-समय पर भटकाव और भ्रम शुरू से ही बना रहा।
लेकिन इतिहासकार जिसे फरायजी आंदोलन के नाम से महिमामंडित करते हैं वह भी 19वीं सदी के पूर्वाद्ध का है। इस आंदोलन के नेता हाजी शरियत उल्लाह थे। कम उम्र में वे मक्का चले गए। वहां 20 वर्षों तक रहे। 1802 में वे बंगाल वापस आए। जो प्रचार शाह वलीउल्लाह और उनके शिष्यों ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार के क्षेत्रों में मुसलमानों के बीच किया, वही हाजी शरियत उल्लाह ने बंगाल में किया। उर्दू में जिसे फरायज कहते हैं, उसे हिन्दी में कर्तव्य पालन कहेंगे। इसीलिए वह फरायजी आंदोलन कहलाया। शरियत उल्लाह ने बंगाल को दारूलहर्ब घोषित कर दिया था। इस्लामी नियमानुसार दारूलहर्ब वह क्षेत्र है, जहां मुसलमान युद्ध लड़ रहे हों। प्रो. एम.एस. जैन ने लिखा है, वहाबी और फरायजी आंदोलनों का प्रभाव यह पड़ा कि ‘हिन्दू पवित्र स्थानों की यात्राएं मुसलमानों में अलोकप्रिय होती चली गई। जिससे मुसलमान अपनी पृथकता विकसित कर सके।… ये सिद्धांत अधिकांश मुसलमान नेताओं के चिंतन की पृश्ठभूमि बन गए।’ सोचिए, इसका मुसलमानों के मन पर कैसा दुष्प्रभाव पड़ा होगा!
इस बात को मुबारक अली ने स्पष्ट किया है, ‘जेहाद आंदोलन से भारतीय मुसलमानों की मानसिकता का पता चलता है कि वे भारतीय राष्ट्रवादियों के साथ मिलकर संगठित रूप से विदेशियों के विरूद्ध लड़ने के लिए तैयार नहीं थे। खिक्खों के साथ उनके युद्ध से अंग्रेजों को मदद मिली और वे सिक्खों को हरा कर पंजाब पर कब्जा जमा सके। अंततः मुसलमानों को कोई भी लाभ नहीं हुआ उल्टे संप्रदाय और अधिक टुकड़ों में बॅंट गया और उसमें वह क्षमता ही शेष न रही कि खोई मर्यादा फिर से पाने के लिए वह कोई लड़ाई लड़ सके।’
स्वाधीनता आंदोलन के इस प्रकार के कई मोड़ ऐसे हैं जो इतिहास को भी उलझाते हैं। इसमें स्वयं इतिहासकारों की बड़ी भूमिका भी रही है। स्वाधीनता आंदोलन में अनेक मोड़ हैं। उन्हें कैसे देखें और समझें? इसे इतिहासकारों की नई प्रजाति ने अधिक उलझा दिया है। इस प्रजाति को उपाश्रयी (सबाल्टर्न) इतिहासकार के नाम से जाना जा रहा है। लेकिन स्वाधीनता आंदोलन के कालखंड पर पहले जैसा विवाद नहीं है। वह कालखंड अंग्रेजी राज का है। स्वाधीनता आंदोलन में मुसलमानों की भूमिका का सिंहावलोकन करें, तो पाएंगे कि उनका नेतृत्व जो लोग कर रहे थे, वे कम से कम पांच रंगों में दिखते हैं, अर्थात उन्हें पांच श्रेणियों में रखा जाना चाहिए। क्रांतिकारी, सर्वइस्लामवादी, कांग्रेसी, मुस्लिम लीगी और राष्ट्रवादियों के विविध रंगों में वे पाए जाते हैं। यह वर्गीकरण निर्गुण और निराकार हो जाएगा, अगर इसके अर्थ को यहां स्पष्ट न करें। क्रांतिकारी और राष्ट्रवादी की कोटि में जो थे, वे भारत-भूमि की मुक्ति को ही अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य समझते थे। तभी तो अशफाकउल्ला खान ने फांसी का फंदा चूमा। भारत-प्रेम की भूमि पर राष्ट्रवाद का जो बीज अंकुरित हुआ, उससे दो पंखुड़ियां निकली, क्रांति और राष्ट्रीयता की। अन्य जो हैं, वे सत्ता की धारणाएं हैं। दूसरे शब्दों में स्वाधीनता आंदोलन की मटमैली धाराएं भी उन्हें कह सकते हैं।
सर्वइस्लामवाद की धारणा से एक भ्रम बना हुआ है कि मुसलमान एक इकाई हैं। यह किसी भी तरह से सच नहीं है। इसे स्वाधीनता संग्राम की दृष्टि से देखें, तो ब्रिटिश शासन की चुनौतियों के सामने मुसलमानों की प्रतिक्रिया अलग-अलग रही है। इसे बहुत सटीक ढंग से पाकिस्तान के एक इतिहासकार मुबारक अली ने लिखा है, ‘ब्रिटिश शासन तथा ब्रिटिश चुनौतियों को लेकर मुसलमानों में विभिन्न प्रतिक्रियाएं हुईं। दक्षिण भारत में मुसलमान अधिकांशतः व्यापारी थे। व्यापारी होने के नाते उनमें लचीलापन था और बदली हुई परिस्थितियों से समझौते को वे प्रस्तुत थे। उन्होंने अंग्रेजों की श्रेष्ठता को स्वीकारा और उनकी भाषा व संस्कृति सीखने लगे। उत्तरी भारत में प्रतिक्रिया इससे भिन्न थी।’ सच तो यह है कि मुसलमानों में सामाजिक विविधिता और विभिन्नता रही है और जमाने के साथ बनी हुई है। जिसका वर्णन इतिहास के पन्नों में भी दर्ज है। ‘हर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय तीन वृहत श्रेणियों में बंटा मिलता हैः एक, अशरफ। दो, अजलफ। तीन, रियाजिल। अशरफ का अर्थ है कुलीन। इस श्रेणी में विदेशी मुसलमानों के शुद्धवंशज तथा हिन्दू उच्च जातियों से धर्मांतरित मुसलमान शमिल थे। निचली श्रेणी के सभी धर्मांतरित मुसलमान ‘अजलफ’ ‘अभागे’ या ‘नीच लोग’ की तिरस्कारपूर्ण संज्ञा से जाने जाते थे।’ उनके प्रभाव और दुष्प्रभाव का इतिहासकारों ने खूब अध्ययन किया। वह प्रक्रिया अपनी निरंतरता में चल रही है।
स्वाधीनता आंदोलन में दोनों तरह के उदाहरण हैं, सही नेतृत्व के, जिसमें राष्ट्रीयता की भावना प्रधान है। और मुसलमानों की भावना के शोषण के भी। पहली में वे नेता हैं, जो राष्ट्रीयता से ओतप्रोत हैं। दूसरी जमात उन नेताओं की है, जो सर्व इस्लामवाद (पैन इस्लामिज्म) की धुरी पर अपने पैंतरे बदलते रहे। वह भी सांप्रदायिकता का स्रोत बना। रेजाउल करीम ने अपनी किताब ‘मुस्लिम्स एंड दी कांग्रेस’ में लिखा है कि कुछ नेताओं ने शिक्षा की कमी का फायदा उठाकर मुसलमानों का कट्टरपंथी बातों के लिए शोषण किया। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उस समय जो परिवर्तन हो रहे थे, उससे मुसलमान अवगत न हों।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हिन्दू-मुस्लिम एकता का कीर्तिमान बनाता है। वह अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में लड़ा गया। जिससे अंग्रेज मुसलमानों पर कुपित हो गए। इतिहास का एक सच यह भी है कि उस संग्राम ने स्थापित किया कि भारतीय समाज नए दौर में कदम रख चुका है। ऐसी ही परिवर्तित परिस्थिति में सर सैयद अहमद खां पर्दे पर आते हैं। वे आज भी पहेली बने हुए हैं। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सर ‘सैयद अहमद खां के पूर्वज शाहजहाँ के काल में हिरात से चल कर आए थे। तब से उनके परिवार का रिश्ता किसी न किसी रूप में मुगल दरबार से बना रहा।’ अपने पिता के निधन के बाद उन्होंने न्यायालय कार्य संबंधी प्रशिक्षण अपने चाचा के यहां सीखा। दिल्ली में ही अंग्रेज जज हेमिल्टन से उनका संपर्क हुआ। उसने उन्हें नायब मुंशी बनाया। मुन्सफी की परीक्षा पास कर वे 24 दिसंबर, 1841 को मैनपुरी में पहली बार मुन्सिफ नियुक्त हुए। इस तरह ईस्ट इंडिया कम्पनी में एक पद उन्हें प्राप्त हुआ। ‘1857 की घटनाओं में सैयद अहमद खां न सिर्फ एक सरकारी मुलाजिम की हैसियत से शरीक थे, बल्कि वे सबसे पहले भारतीय थे, जिन्होंने उसके बारे में लिखा, उसका विवेचन किया। क्रमशः