रोमिला थापर की आड़ में………….

 

बनवारी

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने जिन 12 एमेरिटस प्रोफेसरों से उनका व्यक्तिगत-शैक्षिक वृत्त मांगा है, उनमें से केवल एक को लेकर यह सार्वजनिक विवाद पैदा किया जा रहा है।

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के अध्यापक संघ और वामपंथी अध्यापकों व आंदोलनकारियों ने रोमिला थापर को लेकर एक अनावश्यक विवाद पैदा कर दिया है। वे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थीं और सेवानिवृत्त होने के बाद उनके अनुभव और ख्याति को देखते हुए विश्वविद्यालय की ओर से उन्हें ‘प्रोफेसर एमेरिटस’ की उपाधि दी गई। यह केवल एक उपाधि है और उसके साथ कोई अधिकार या दायित्व जुड़ा हुआ नहीं है। हमारे यहां यह चलन यूरोपीय और अमेरिकी विश्वविद्यालय के अनुकरण पर शुरू हुआ। यह कहना कठिन है कि इस उपाधि की कोई वास्तविक उपयोगिता है या नहीं। विश्वविद्यालय को तो उसका कम ही लाभ होता है।

जिसे उपाधि प्राप्त होती है, वह उसका कुछ लाभ अवश्य ले सकता है। इस उपाधि का अर्थ केवल इतना ही है कि सेवानिवृत्त होने के बाद भी उपाधि प्राप्त व्यक्ति उस विश्वविद्यालय से जुड़ा हुआ प्रोफेसर माना जाता है और वह इसके आधार पर अंतरराष्ट्रीय शैक्षिक जगत से अपने संपर्क बनाए रखने के लिए उसका उपयोग कर सकता है। जहां से इस उपाधि का प्रचलन आरंभ हुआ है, उन यूरोपीय और अमेरिकी विश्वविद्यालयों में उसके बारे में अलग-अलग नियम हैं। कहीं यह उपाधि जीवनपर्यंत बनी रहती है। कुछ अन्य जगह एक समय के बाद उसे लेकर यह आकलन किया जाता है कि उपाधि प्राप्त व्यक्ति शैक्षिक रूप से सक्रिय है या नहीं।

अपनी आयु और स्वास्थ्य कारणों से वह बिल्कुल निष्क्रिय तो नहीं हो गया है। अगर वह निष्क्रिय पाया जाता है तो विश्वविद्यालय उसे दी गई उपाधि वापस ले सकता है। अगर उसकी शैक्षिक गतिविधियां विश्वविद्यालय के शैक्षिक जगत की मान्यताओं और सामान्य मर्यादाओं के खिलाफ पाई जाती है तो भी यह उपाधि वापस हो सकती है। यह एक सामान्य प्रक्रिया है और यूरोपीय-अमेरिकी विश्वविद्यालय में इसे लेकर कोई विवाद नहीं छिड़ता। वहां भी शैक्षिक प्रतिष्ठानों में राजनीति कम नहीं है। लेकिन फिर भी इस तरह के विवादों से बचा जाता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अपनी स्थापना से ही शैक्षिक राजनीति का अड्डा रहा है।

उसे संसद में पारित कानून के आधार पर 1969 में स्थापित किया गया था। यह वह समय था जब कांग्रेस की ताकत घट रही थी और वामपंथियों का एक वर्ग सरकारी तंत्र का सहारा लेकर सरकारी संस्थाओं में घुसने और अपने प्रभाव का विस्तार करने में लगा हुआ था। उस दौर में हिन्दूवादी शक्तियों के उभार की आशंका बताते हुए नेहरू के विचारों को केंद्र बनाकर भारत के इतिहास की एक भिन्न व्याख्या तैयार की जा रही थी। भारतीय इतिहास लेखन की नींव अंग्रेज इतिहासकारों ने ही तैयार की थी। वामपंथी विचारक उसे वामपंथी सिद्धांतों के और निकट लाने में लगे थे। बौद्धिक जगत में वे अल्पसंख्या में थे।

अपनी इस अल्पसंख्या को बहुसंख्या में बदलने और अपने विचारधारात्मक आग्रहों को भारतीय इतिहास का मुख्य वृत्त बना देने के लिए वे काफी आक्रामक तरीके से अपनी बातें कह रहे थे। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को नेहरूवादी दृष्टि को सामने लाने के लिए ही स्थापित किया गया था। लेकिन आरंभ में उसमें जो लोग आए, उनमें सभी विचारों के लोग थे। उसके पहले उपकुलपति जी. पार्थसारथी किसी भी तरह कम्युनिस्ट नहीं थे। पर धीरे-धीरे वह वामपंथी विचारधारा वाले शिक्षकों का अड्डा हो गया। उनमें बहुत से घोषित तौर पर कम्युनिस्ट थे। रोमिला थापर कम्युनिस्ट नहीं थी, पर उनके वैचारिक आग्रह कम्युनिस्टों जैसे ही थे। जिन दिनों रोमिला थापर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थी, उन दिनों विश्वविद्यालय पर वामपंथियों का नियंत्रण ही था।

उनकी अंतरराष्ट्रीय ख्याति और एक गैर कम्युनिस्ट लेकिन वामपंथी रूझान वाले इतिहास के रूप में प्रतिष्ठा उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद प्रोफेसर एमेरिटस घोषित करवाने के लिए पर्याप्त थी। सेवानिवृत्त होने के बाद वे काफी दिन तक विश्वविद्यालय से नियमित संपर्क में थी। अब वे 87 वर्ष की हैं और कहा जाता है कि पिछले तीन वर्ष से विश्वविद्यालय नहीं आईं। पिछले वर्ष जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद ने प्रोफेसर एमेरिटस की उपाधि के बारे में कुछ नए नियम बनाए। इन नियमों के अनुसार यह उपाधि पाने वाले शिक्षाविदों का 75 वर्ष की आयु पार करने के बाद फिर से आकलन करने की व्यवस्था है।

यह नियम बनाने वाला जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अकेला विश्वविद्यालय नहीं है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अब तक लगभग 21 सेवानिवृत्त प्रोफेसरों को एमेरिटस की उपाधि दे चुका है। उनमें से 12 अपने जीवन के 75 वसंत देख चुके हैं। इस आधार पर विश्वविद्यालय की ओर से उनसे अपना एक व्यक्तिगत- शैक्षिक वृत्त भेजने का अनुरोध किया गया। पत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि कार्यकारी परिषद एक समिति गठित करेगी, जो उनके इस वृत्त पर विचार करके उनकी इस उपाधि के आगे जारी रहने के बारे में उन्हें सूचित करेगी। इन 12 एमेरिटस प्रोफेसरों में सभी विख्यात और प्रतिष्ठित शिक्षाविद् हैं।

अपनेअपने क्षेत्र में उन्होंने उल्लेखनीय कार्य किए हैं। उनमें से अनेक की अंतरराष्ट्रीय ख्याति रोमिला थापर से कम नहीं है। रोमिला थापर की तरह वे भी शिक्षा जगत के अनेक सम्मान पा चुके हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि विश्वविद्यालयों को भेजे गए उत्तरों में उन्होंने रोमिला थापर की तरह इन नियमों का विरोध किया है या नहीं। रोमिला थापर ने इन नियमों का विरोध करते हुए अपना वृत्त भेजने से इनकार कर दिया। उनके लिए उचित यह होता कि अगर वे विश्वविद्यालय के नियमों से सहमत नहीं है तो उसे यह सूचित कर देती कि उन्हें यह उपाधि नहीं चाहिए। ऐसा करने की बजाय उन्होंने अपना विरोध पत्र सार्वजनिक करके एक विवाद खड़ा कर दिया।

भारत में सरकारी तंत्र का दुरुपयोग करके और समाचार माध्यमों के समानधर्मी पत्रकारों का उपयोग करके वामपंथी दृष्टि के पक्ष में एक ऐसी अनुकूलता पैदा कर दी गई है कि इस वर्ग के सदस्य अपने से संबंधित सभी चीजों के लिए दबाव पैदा करने में सफल हो जाते हैं। यह संयोग नहीं है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने जिन 12 एमेरिटस प्रोफेसरों से उनका व्यक्तिगतशैक्षिक वृत्त मांगा है, उनमें से केवल एक को लेकर यह सार्वजनिक विवाद पैदा किया जा रहा है। सामान्यत: इस विरोध प्रदर्शन की उपेक्षा कर देनी चाहिए थी। विश्वविद्यालय यह स्पष्ट कर चुका है कि उसने पिछले वर्ष बदले गए नियमों के आधार पर ही यह पत्र भेजे हैं। यह एक औपचारिक प्रक्रिया है। इसी तरह की प्रक्रिया विश्व की कई प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों में अपनाई जाती है। यह पत्र भेजने का किसी भी तरह यह आशय नहीं है कि विश्वविद्यालय यह उपाधि लौटाने जा रहा है।

इन सब स्पष्टीकरणों के बावजूद सब समाचार और प्रचार माध्यमों का उपयोग करके कुछ ऐसा माहौल पैदा करने की कोशिश की गई कि रोमिला थापर को अपमानित करने या दंडित करने का कोई षड्यंत्र रच दिया गया हो। अब तक इस तरह के षड्यंत्र रचे जाते रहे हैं और वामपंथी इस कला में माहिर हैं। विशेषकर इतिहास में उनका वर्चस्व रहा है। उन्होंने अपने से भिन्न विचार रखने वाले किसी विद्वान को पनपने ही नहीं दिया। प्रोफेसर देवाहुति को इस वामपंथी गैंग के हाथों कितना परेशान होना पड़ा था, यह सर्वज्ञात है। वामपंथी शिक्षकों में से अधिकांश ने भारतीय इतिहास के बारे में जो लिखा है वह जुगुप्सा ही पैदा करता है। रामशरण शर्मा ने भारत में सामंतवाद सिद्ध करने के लिए जिस तरह की उलजलूल व्याख्याएं कीं, उन्हें देखते हुए उन्हें विद्वान मानने में हिचक होती है।

यह हमारा दुर्भाग्य है कि भारतीय इतिहास के बारे में अधिकांश उस दौर में लिखा गया, जब भारत पर ब्रिटिश शासन था। एक शैक्षिक विधा के रूप में इसका विकास भी उसी दौर में और मुख्यत: यूरोप में हुआ था। इन इतिहासकारों ने यूरोपीय इतिहास की व्याख्या को ज्यों का त्यों भारत पर लागू कर दिया। जबकि उससे पहले की शताब्दियों में भारत आने वाले अधिकांश यूरोपीय विद्वान भारत की विलक्षणता और यूरोप से भिन्नता को लेकर ही प्रभावित हुए थे। यह सारा इतिहास भारत में ब्रिटिश शासन का औचित्य दिखाने के उद्देश्य से लिखा गया था। हालांकि इसमें अनेक ऐसे इतिहासकार भी थे, जो भारत के प्रशंसक माने जाते थे।

इन इतिहासकारों में अधिकांश बाबरी मस्जिद के पक्ष में साक्ष्य जुटाने वाली मंडली के सदस्य थे। रोमिला थापर स्वयं कम्युनिस्ट नहीं हैं, लेकिन भारतीय इतिहास में हिंदुओं को खलनायक सिद्ध करने में वे भी उतने ही उत्साह से लगी रही हैं।

इस इतिहास लेखन की प्रतिक्रिया हुई और भारतीय दृष्टि से एक स्वतंत्र इतिहास लिखे जाने की बात होने लगी। ए.के. मजूमदार के नेतृत्व में एक समानांतर वृत्तांत भी तैयार हुआ। लेकिन यह भी भारतीय गौरव को समावेश करने के बावजूद अंग्रेजों द्वारा लिखे गए इतिहास से अधिक भिन्न नहीं था। लेकिन इन राष्ट्रवादी इतिहासकारों की प्रतिक्रिया में वामपंथी इतिहासकार खड़े हुए, जिनका एकमात्र उद्देश्य भारतीय इतिहास का एक निंदात्मक आख्यान तैयार करना था। इरफान हबीब इस वर्ग के अग्रणी इतिहासकार रहे हैं। इन इतिहासकारों में अधिकांश बाबरी मस्जिद के पक्ष में साक्ष्य जुटाने वाली मंडली के सदस्य थे। रोमिला थापर स्वयं कम्युनिस्ट नहीं हैं, लेकिन भारतीय इतिहास में हिंदुओं को खलनायक सिद्ध करने में वे भी उतने ही उत्साह से लगी रही हैं।

उनकी इसी योग्यता के कारण वामपंथी उनका सहारा लेकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अभी के अधिकारियों और परोक्ष रूप से वर्तमान भाजपा सरकार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं। उनका यह तर्क तो अत्यंत विचित्र है कि पुर्नमूल्यांकन के लिए रोमिला थापर को एक पत्र भेजना उनकी प्रतिष्ठा गिराने की कोशिश करना है। वामपंथी यह कहते हुए भूल गए कि उनका यह तर्क उनकी अपनी भाषा में सामंती तर्क ही कहा जाएगा।

 

 

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