संघ लंबे समय से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए स्वयं को तैयार कर रहा था। पर 9 अगस्त, 1942 को प्रारंभ हुए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन में उसने सहभाग नहीं किया। कारण यह था कि कांग्रेस ने देश के संगठनों को जोड़ने का प्रयास नहीं किया।
ब्रिटिश गुप्तचर विभाग इस बात से परेशान था कि वह संघ के अंदरुनी मामलों की जानकारी प्राप्त नहीं कर पा रहा है। राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित ब्रिटिश गुप्तचर विभाग की 1942-43 की रिपोर्ट बताती है कि संघ के इतिहास में पहली बार नागपुर के ग्रीष्म शिविर में एक विशेष सेंसरशिप विभाग की स्थापना की गई। बाहर जाने वाली डाक की पूरी तरह जांच-पड़ताल की गयी। मुंबई के संघ कार्यालय में प्रवेश पत्र प्रणाली का गठन किया गया है। मेरठ में मई माह में हुए संघ शिक्षा वर्ग में भाषणों के समय दरवाजे बंद कर दिये जाते थे। केवल विशेष पास वालों को ही भीतर प्रवेश दिया जाता था।
बनारस के अधिकारी शिक्षा शिविर में भी यही सब सावधानियां बरती गईं। यहां शिक्षार्थियों को भाषणों एवं चर्चा के लिखित नोट्स न लेने का आदेश दिया गया। 4 अगस्त को रावलपिंडी में लाल कुंदन लाला कक्कड़ ने स्वयंसेवक भर्ती में चौकस रहने का आग्रह किया, ताकि संघ में पुलिस के जासूसों को घुसने का मौका न मिलने पाये। 12 अगस्त को कानपुर में संघ के बारह स्वयंसेवकों ने एक पुलिस कांस्टेबिल पर पथराव किया, क्योंकि वह शाखा पर उनकी कवायद को ध्यान से देख रहा था।
6 सितंबर को अकोला में विदर्भ के प्रमुख कार्यकर्ताओं की एक बैठक दशहरा कार्यक्रम की योजना बनाने के लिए बुलायी गयी। उस बैठक में उपस्थित लोगों के नामों एवं उसकी कार्यवाही को गुप्त रखने के लिए विशेष व्यवस्था की गई। अक्टूबर मास में गोरखपुर के डी.ए.वी. स्कूल में लगे एक शिविर में एक सादी वर्दीधारी पुलिस अधिकारी को भीतर जाने से रोक दिया गया। भंडारा में संघ के एक कार्यक्रम में दो सादी वर्दी वाले पुलिस अधिकारियो को यह कहकर प्रवेश नहीं दिया गया कि यह कार्यक्रम धार्मिक है।
तैयारी की, पर भाग नहीं लिया
इतनी सब तैयारियों के बावजूद यह सत्य है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ से अलग रहा। उसने संघ के नाते उसमें भाग नहीं लिया। संघ के कुछ कार्यकर्ताओं ने व्यक्तिश: कुछ अवश्य किया। ब्रिटिश सरकार भी संघ की गतिविधियों पर पूरी तरह नजर रखे हुए थी। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हिंसक घटनाओं पर अपनी रिपोर्ट में बंबई के होम डिपार्टमेंट ने कहा कि ‘संघ ने अपने को पूरी तरह कानून की सीमाओं में रखा है और अगस्त, 1942 में जो दंगे और हिंसक घटनाएं जगह-जगह पर हुईं, उनसे अपने को पूरी तरह अलग रखा है।’
रिपोर्ट में कहा गया कि ”यह तर्क नहीं दिया जा सकता कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से शान्ति और व्यवस्था को तत्काल कोई खतरा है।” उस फाइल क्र. 28/3/1943 में अनेक ब्रिटिश अधिकारियों की लंबी बहस का निष्कर्ष निकला कि गुरुजी गोलवलकर अभी हमसे टकराव की मुद्रा में नहीं हैं। अत: उन्हें अकारण ही गिरफ्तार करके हम टकराव की स्थिति क्यों पैदा करें?
यहां प्रश्न खड़ा होता है कि उन दिनों स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने की इतनी चर्चा करने, इतनी तैयारियां करने के बाद भी संघ ने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में भाग क्यों नहीं लिया? अपने को उससे अलग क्यों रखा? इस प्रश्न का प्रामाणिक उत्तर कैसे प्राप्त हो? संघ में प्रारंभ से ही आंतरिक निर्णय-प्रक्रिया का कोई लिखित रिकार्ड न रखने की परंपरा स्वयं डॉ. हेडगेवार ने ही प्रारंभ की थी। स्वातंत्र्य प्राप्ति का संकल्प संघ की प्रक्रिया में सम्मिलित करने के बाद भी संघ शक्ति को निर्णायक प्रहार की स्थिति में लाने के लिए उन्होंने यह सावधानी अपनायी थी। ताकि पूर्ण तैयारी से पहले ब्रिटिश सरकार को संघ पर प्रहार करने का कोई मौका न मिले।
पर अब संघ के इतिहास लेखन के मार्ग में यह भारी बाधा बन गयी है। एक ही उपाय बचा है कि संघ के पुराने, अनुभवी व जिम्मेदार स्वयंसेवकों द्वारा निर्मित संघ साहित्य में गोते लगाकर कुछ संकेत सूत्र खोजे जाएं। संघ का इतिहास उसकी पहली पीढ़ी के कार्यकर्ताओं के संस्मरणों में से ही खोजा जा सकता है। पर उस पीढ़ी का शायद ही कोई कार्यकर्ता जीवित हो। अत: उनके द्वारा छोडे़ गये साहित्य का ही अवगाहन करना होगा।
इस दृष्टि से हमने गुरुजी गोलवलकर की जीवन चरित्रों एवं संघ के इतिहास की पुस्तकों को टटोलने का प्रयास किया। गुरुजी गोलवलकर के 51वीं जन्मतिथि के अवसर पर 1955 में संघ प्रचारक (स्व.) न. ह. पालकर द्वारा रचित ‘श्री गुरु जी-व्यक्ति और कार्य’ पुस्तक सामने आती है। इस पुस्तक में पालकर 1942 में गुरुजी गोलवलकर के वर्ष प्रतिपदा आहवान के फलस्वरूप प्रचारक योजना के आरंभ होने का उल्लेख करते हैं (पृ. 108)। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के संदर्भ में वे लिखते हैं कि, ‘यह समय ऐसा था जब स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील सभी संस्थाओं और संगठनों को एक करके, उन सबके संयुक्त बल पर यदि आंदोलन छेड़ा जाता, तो भी संदेह ही था कि अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने में पूर्ण सफलता मिलेगी।
कांग्रेस ने आंदोलन आरंभ करते समय देश की अन्य संस्थाओं का सहयोग लेने का कोई प्रयत्न भी नहीं किया था। ऐसी दशा में यदि अंग्रेजों ने उसे शीघ्र ही कठोरतापूर्वक दबा दिया तथा फलस्वरूप वह अपने पूर्व के आंदोलनों से भी फीका पड़ गया, तो आश्चर्य ही क्या है? (वही, पृष्ठ 111) संक्षेप में पालकर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से संघ के अलग रहने का कारण कांग्रेस के अन्य शक्तियों को जोड़ने की दिशा में प्रयास न करने को मानते है।
कांग्रेस ने प्रयास नहीं किया
इसके बाद हम 1984 में प्रकाशित पुणे के एक महत्वपूर्ण संघ कार्यकर्ता हरि विनायक दात्ये की ‘आरती आलोक की : श्री गुरुजी-एक दर्शन’ पुस्तक पर आते हैं। दात्ये भी पालकर के तर्क को आगे बढ़ाते हुए लिखते हैं, ”संग्राम छेड़ने के पहले गांधी जी व कांग्रेसी नेतागण ज्येष्ठता के नाते यदि देश की सभी शक्तियों एवं महत्वपूर्ण व्यक्तियों को अंग्रेजों के विरोध में संगठित करते और इस प्रकार एक राष्ट्रीय मोर्चा बना लेते तो आंदोलन अधिक प्रभावी होता।…. इस दिशा में किसी प्रयास का आभास तक दृष्टिगोचर नहीं होता।….. यह आंदोलन देश पर असमय एवं अपरिपक्व स्थिति में लाया गया था।” (पृ. 121) वे आगे लिखते हैं, ”सन 1942 के आंदोलन को असफल मानना अनुचित होगा। अर्थात उस आधार पर संघ पर आक्षेप लगाना तो और भी अनुचित होगा। ”(वही, पृष्ठ 122)
इस विषय पर अधिक विस्तृत चर्चा करते हुए संघ के मराठी दैनिक ‘तरुण भारत’ के संपादक एवं संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता (स्व.) च. प. भिशीकर ने ‘नवयुग प्रवर्तक श्री गुरुजी’ (लखनऊ, 1999) में लिखा है, ”कांग्रेस ने गांधीजी के नेतृत्व में आंदोलन की घोषणा तो की थी, किंतु आंदोलन के स्वरूप और कार्यक्रमों की कोई योजना स्पष्ट नहीं की। न ही यह प्रयास किया कि देश भर में बिखरी पड़ी शक्तियों को इस राष्ट्रीय आंदोलन में सहभागी बनाने के लिए एक सूत्र में गूंथा जाए।”