1931 में कांग्रेस का आंदोलन हुआ। आंदोलन में डा. जी स्वयं शामिल हुए। डा. जी के साथ संघ के प्रमुख कार्यकर्ता भी थे। लेकिन जाते हुए उन्होंने कहा कि मैं जब आंदोलन में हिस्सा ले रहा हूं तब सरसंघचालक पद छोड़ रहा हूं। संघ का इस आंदोलन के साथ संबंध नहीं इसलिए मैं सरसंघचालक पद छोड़ रहा हूं। डा. परांजपे दूसरे सरसंघचालक बना दिए और कहा मैं तो सत्याग्रह में हिस्सा लेकर जेल में जाऊंगा, लेकिन बेटा तुम सबने शाखा ही चलानी है और कोई काम नहीं करना हे।
सबको आश्चर्य हुआ। यह क्या नीति है कि आप सत्याग्रह में हिस्सा लेकर जेल में जा रहे हैं और हमको कह रहे हैं कि नहीं कोई भला काम नहीं करो। उस समय दक्ष-आरम शब्द नहीं था, केवल शाखा चलाना था। लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर भाग्य नगर सत्याग्रह आया यानी हैदराबाद का। यानी निजाम के खिलाफ। अब इसमें संघ ने कोई भूमिका नहीं निभाई। संघ कोई भूमिका लेता नहीं है। संघ केवल संस्कार, स्वयंसेवक और संगठन का कार्य करता है। यही संघ का दायरा है।
संघ से प्रेरणा और संस्कार प्राप्त किए हुए स्वयंसेवकों को दुनियाभर के सब काम करना है। कोई काम वर्जित नहीं है। सभी काम स्वयंसेवक करें। संघ से प्रेरणा और संस्कार प्राप्त किए हुए स्वयंसेवकों को दुनियाभर के अच्छे काम करना है। भाग्य नगर सत्याग्रह अच्छा काम था, संघ ने उसमें हिस्सा नहीं लिया। यह सत्याग्रह हिंदू सभा और आर्य समाज के लोगों ने चलाया था। हिंदू सभा के लोगों ने बहुत दबाव डाला। डा. जी ने कहा संघ कभी हिस्सा नहीं लेगा, लेकिन आपको कितने लोग चाहिए? बताओ, स्वयंसेवक जाएंगे। माननीय भैया जी दाणी, दीनदयाल जी और सैकड़ों स्वयंसेवक उसमें गए। संघ ने हिस्सा नहीं लिया। कोई स्टेटमेंट जारी नहीं किया।
अब जब सत्याग्रह की समाप्ति हुई तो हिंदू सभा का जो मुखपत्र था उसमें आया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसमें प्रत्यक्ष सहकार्य किया है। प्रत्यक्ष सहभाग संघ ने किया है। अब श्रेय मिलने वाला था। डा. जी ने वह श्रेय भी छोड़ दिया। डा. जी ने दूसरा स्टेटमेंट जारी किया। उनको पत्र भेजा कि इसको प्रचारित करो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसमें हिस्सा नहीं लिया। लेकिन हां यह हिंदुत्व का केस था, हमारे स्वयंसेवक व्यक्तिगत रूप से इसमें गए। सैकड़ों की संख्या में गए। लेकिन संघ इसमें सहभागी नहीं था। ऐसा उन्होंने पत्र लिखा और कहा कि इसे प्रकाशित करो। यानी श्रेय मिलने वाला था वह भी खो बैठे।
ऐसी बुद्धिहीनता के कई लक्षण संघ के इतिहास में हैं। जहां राजनैतिक लोग सभी बातों का श्रेय लेने की कोशिश करते हैं वहां उन्होंने यह नहीं किया। और केवल इसी श्रृंखला में यह बात मैं बता दूं कि हिंदू सभा की ओर से कलकत्ता के अधिवेशन में यह तय हुआ कि एक राष्ट्रीय सेना खड़ी की जाए। राम सेना उसका नाम रखा। जिसका कमांडर-इन-चीफ डा. हेडगेवार जी रहेंगे। कितनी बड़ी बात थी। डा. जी ने स्टेटमेंट दे दिया कि मेरा नाम जो दिया है वह मेरी इजाजत के बगैर दिया है। मेरा इससे कोई संबंध नहीं। कमांडर-इन-चीफ होना कोई छोटा सम्मान है क्या? लेकिन वह भी छोड़ दिया। पता नहीं क्या उनके दिमाग में चलता था? आजकल तो म्यूनिसिपल काॅरपोरेशन का एक बार चुनाव लड़ने वाला भी ऐसी गलती नहीं करेगा। इतनी बड़ी-बड़ी गलतियां डा. हेडगेवार जी ने की हैं।………..अगली कड़ी में जोशीला भाषण और मजबूत नेतृत्व में अंतर….
(दिसंबर 1990 की 23 से 25 तारीख तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक की ओर से लुधियाना में आयोजित सम्मेलन में दत्तोपंत ठेंगड़ी का व्याख्यान से)