
अरविंद केजरीवाल की नौटंकी खबरों में है। इसमें वे और उनके साथी हैं। अरविंद केजरीवाल के कारण उनके साथी भी चर्चा में हैं। कितने दिन वे लोग खबरों में रहेंगे? यह न वे जानते हैं और न दूसरे। अनेक राजनीतिक विश्लेषकों ने उन्हें अतीत के अंधेरे में हमेशा के लिए भेज दिया है। यह अतिरंजना है? इसे भी भविष्य तय करेगा। जो लोग दिल्ली के विधान सभा चुनाव नतीजे की जांच–परख कर रहे हैं वे कुछ बातों की अनदेखी कर रहे हैं। जैसे यह कि मानो अरविंद केजरीवाल कोई बड़ा सपना लेकर चले थे। यह सच नहीं है। जो व्यक्ति अपने साथियों से शुरू से ही विश्वासघात करता रहा है वह बड़े सपने का नाटक जरूर कर सकता है, लेकिन उसके लिए जीने–मरने का गुण अर्जित करना संभव नहीं है। ऐसा ही अरविंद केजरीवाल का इतिहास है। इसे कौन नहीं जानता!
दिल्ली के मतदाताओं ने अरविंद केजरीवाल को एक दशक का अवसर दिया। बार–बार सुधरने की सलाह दी। जब देखा कि यह व्यक्ति राजनीतिक तो है ही नहीं, सिर्फ षड़यंत्रकारी और भ्रष्टाचारी है तो उसे हटा दिया। केवल हटाया नहीं, हराया भी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरविंद केजरीवाल सहित उनकी पार्टी को दिल्ली के लिए आप–दा घोषित किया। राजधानी वासियों ने उनके कथन को सिर–माथे उठाया। आप–दा को दूर भगा दिया। अरविंद केजरीवाल हारे। मनीष सिसौदिया हारे। वे अपनी हार चुनाव से पहले ही कबूल कर चुके थे। विधान सभा क्षेत्र बदला। जिसे सुरक्षित क्षेत्र समझा वहां गए। लेकिन जंगपुरा क्षेत्र के मतदाताओं ने उन पर भरोसा नहीं किया। एक जंगजू को जिताया। वे तरविंदर सिंह मरवाह हैं।
इस चुनाव में तीसरी हार भी उतनी महत्वपूर्ण है जितनी पहली और दूसरी है। वह सत्येंद्र जैन की हार है। नाम से वे सत्येंद्र हैं। आचरण में पापेंद्र हैं। इसीलिए सबसे पहले उन्हें जेल जाना पड़ा था। अरविंद केजरीवाल के भ्रष्टाचार का खजाना उन्हीं के पास था। उसका राज अब खुलेगा? लेकिन जनादेश ने भ्रष्टाचार की तिकड़ी को अपनी सजा दे दी है। भ्रष्टाचार दूर करने के लिए छिड़े अन्ना आंदोलन से कम से कम यह उम्मीद तो नहीं थी कि उसके नेता भ्रष्टाचारी होंगे। कोई बहुत पुरानी बात नहीं है। यह तो इस पीढ़ी की भी याद में है क्योंकि वह आंदोलन 2011 में शुरू हुआ। वह एक परिणति पर पहुंचा। उसमें तीन साल लगे। ऐसे आंदोलन देश के दूसरे हिस्सों में जब–तब होते रहे हैं।
उन आंदोलनों का एक इतिहास है। वह पिछली सदी के छठे दशक से जुड़ा हुआ है। जिसकी श्रृखंला में सबसे बड़ा आंदोलन बिहार में हुआ। वह राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर सके, उससे पहले ही इमरजेंसी लगा दी गई। वह लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन था। उसका भी मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार समाप्त करना था। फिर राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में दूसरा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चला। उस आंदोलन ने पहली बार केंद्र की सरकार को अपदस्थ कर दिया। राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पराजित हुई। वह कांग्रेस पराजित हुई जिसे लोकसभा के इतिहास में सबसे प्रबल बहुमत प्राप्त हुआ था। इस दृष्टि से अगर तुलना करें तो अन्ना आंदोलन के बाद दूसरे चुनाव में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में उनकी पार्टी को दिल्ली विधान सभा में उससे भी ज्यादा बहुमत मिला था।
जिस तरह राजीव गांधी ने संवैधानिक लोकतंत्र की परवाह नहीं की थी, ठीक उसी तरह अरविंद केजरीवाल ने भी दिल्ली में उसे दोहराया। राजीव गांधी से भी देश ने बड़ी उम्मीदें लगा रखी थी। उसके बहुत किस्से आज भी लोगों को याद हैं। वे पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने शासन में भ्रष्टाचार को खुलेआम स्वीकार किया था। किसे याद नहीं होगा कि उन्होंने कांग्रेस के जन्मशती अधिवेशन में कहा था कि केंद्र सरकार विकास के कार्यों के लिए 100 रूपए भेजती है और पहुंचता है, 16 रूपए। वही राजीव गांधी स्वयं भ्रष्टाचार के ऐसे आरोपों से घिरे कि अपना दाग छुड़ाना उनके लिए असंभव हो गया। भ्रष्टाचार के खिलाफ विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आवाज लगाई, आंदोलन नहीं किया। जो किया वह आंदोलन नहीं था, एक अभियान था।
अरविंद केजरीवाल तो आंदोलन की उपज थे। अपने आचरण से उन्होंने यह दिखाया कि भ्रष्टाचार को राजनीतिक मुद्दा बनाकर वे सत्ता हासिल करने में सफल हुए। यह कोई असाधारण सफलता नहीं थी। वह मामूली सफलता थी। लेकिन उम्मीदें असाधारण थी। क्योंकि दिल्ली मॉडल की राजनीतिक व्यवस्था बनाने का दावा किया गया था। क्या वह मॉडल बना? यही प्रश्न है जो गहरी छानबीन की मांग करता है। दिल्ली मॉडल को ऐसा जादू की तरह पेश किया गया कि वह पूरे देश के लिए एक आदर्श हो सकता है। उसका प्रचार–प्रसार किया गया। इस चुनाव से पहले दिल्ली मॉडल पर एक किताब भी आई। उस किताब की अखबारों में चर्चा हुई। जनादेश ने यह सुनिश्चित कर दिया कि बड़े वादे और उसका सिर्फ प्रचार कर लोगों को बहुत दिनों तक भ्रमित नहीं किया जा सकता।
जिस दिल्ली मॉडल का बढ़ चढ़कर प्रचार किया गया वह क्या था? उसे जानने के लिए बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। सिर्फ यह याद करना काफी है कि अरविंद केजरीवाल ने एक छोटी सी पुस्तिका छपवाई थी। उसमें दिल्ली मॉडल को एक नाम दिया गया था। वह था, स्वराज्य। यह ऐसा जादुई शब्द है जिसे स्वाधीनता संग्राम में दादा भाई नौरोजी, महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, रवींद्र नाथ ठाकुर और उन जैसे महापुरूष अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते थे। उसे अपने उद्बोधनों में समझाते थे। उस स्वराज्य का सपना अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली वालों को दिखाया। उसका कोई राजनीतिक मॉडल तो नहीं बनाया, लेकिन एक बात हवा में उछाली। आंदोलन का वह नारा बना। लाखों लोग इस उम्मीद से आंदोलन में कूद पड़े कि हो सकता है इस बार संसदीय राजनीति थोड़ी जन–जवाबदेही से चले।
क्या ऐसा हुआ? यह प्रश्न पूछा ही जाता रहेगा। इसका कोई अंत नहीं होगा। इसका उत्तर मांगने का यही समय है। जिससे उत्तर मांगना चाहिए वह कोई दूसरा नहीं है। वह एक ही व्यक्ति है। उसका नाम है, अरविंद केजरीवाल। जो प्रश्न हैं वे एक नहीं हैं, अनेक हैं। वे गंभीर प्रश्न हैं। एक बड़े आंदोलन का अपहरण कर सत्ता की राजनीति जो व्यक्ति करे उसे किस तरह इमानदार कहा जा सकता है? राजनीति का रंग–ढंग वह आदमी कैसे बदल सकता है अगर वह उसी राजनीति का अंग होता है जो चली आ रही है। इसीलिए सरकार बना लेने के बाद अरविंद केजरीवाल की कलई खुलती गई। लोगों ने माना कि यह धोखेबाज और धंधेबाज है। उसे लोगों का ख्याल नहीं है, अपना ही ख्याल है। इसीलिए एक फोरम बनाया। वह मंच था। उस मंच पर एक ही कुर्सी थी। जिस पर अरविंद केजरीवाल को ही बैठना था। वही मंच एक राजनीतिक दल कैसे हो सकता है? राजनीतिक दल के लिए दुनियाभर में एक परिपाटी बनी हुई है। क्या अरविंद केजरीवाल ने राजनीतिक दल बनाया? इसकी किशिश ही नहीं की। जिन लोगों ने उस मंच से राजनीतिक दल बनाने के प्रयास किए उन्हें अरविंद केजरीवाल के लठैतों ने मार–मार कर दूर भगा दिया। ऐसे लोग ही आज अरविंद केजरीवाल की पराजय पर अपनी खुन्नस शब्दों में व्यक्त कर रहे हैं।
जिस तरह अन्ना आंदोलन की याद बनी हुई है उसी तरह लोग यह भी याद कर रहे हैं कि अरविंद केजरीवाल से ज्यादा कुशल नेतृत्व शीला दीक्षित ने दिल्ली को दिया। उन्होंने अपनी सूझ–बूझ से केंद्र की सरकार के साथ संवाद और सहयोग का संबंध बनाया। उससे दिल्ली को चौतरफा विकास के अवसर मिले। अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली मॉडल को अपनी महत्वकांक्षा से जोड़ दिया। केंद्र की सरकार से लड़ते हुए वे और उनके बंधक साथी राष्ट्रीय विकल्प बनने की काल्पनिक उड़ान भर रहे थे। लेकिन उनके पंख में वह दम नहीं था जो उन्हें ऊंची उड़ान का अवसर दें। वे मन से उड़ते रहे और तन से जेल में रहे। ऐसी विदूषक मंडली की करूण कहानी का यह प्रारंभ है।