सैनिक विद्रोह को 1857 की क्रांति और ‘गदर’ भी कहा जाता है। इस क्रांति के पीछे सामूहिक रूप से अनेक कारण रहे लेकिन एक सैनिक मंगल पांडे ने उन्हें हवा दी, इसलिए इसे ‘सैनिक क्रांति’ कहा गया। इस क्रांति ने ब्रिटिश सरकार की चूलें हिला दीं और यहीं से उनके शासन काल की उलटी गिनती आरंभ हुई।
अंग्रेज लोग व्यापारी से भारत के शासक बन बैठे और अपने फायदे के लिए उन्होंने तरह-तरह के कानून बनाकर जनता पर थोप दिए। लाॅर्ड डलहौजी (1848-1856) ने राजाओं के राज्य हड़पने के लिए ऐसी नीतियां बनाई कि कोई राजा निस्संतान मर जाता तो उसका राज्य स्वतः ब्रिटिश शासन की झोली में आ गिरता। उसने नरेशों को गोद लेने का अधिकार समाप्त कर दिया। इस प्रकार उसने झांसी, नागपुर, सतारा, अवध, संभलपुर, जैतपुर आदि रियासतें हड़प लीं।
कई राजाओं के राजपाट छल-बलपूूर्वक हड़प लिये, उनकी पेंशनें बंद कर दीं। ईसाई मिशनरियों को भारत में आने की अनुमति प्रदान की। वे यहां ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगीं और स्थानीय संस्कृति-सभ्यता को नष्ट करने लगीं। अंग्रेज अपनी नस्ल को श्रेष्ठ मानते थे। रेल-यात्रा में भारतीय लोग प्रथम श्रेणी में यात्रा नहीं कर सकते थे। उन्हें ऊंचे पदों से वंचित रखा जाता था। वे अंग्रेजों से बराबरी नहीं कर सकते थे। यूरोपियों द्वारा संचालित होटलों एवं क्लबों में भारतीयों का प्रवेश निषिद्ध था। वहां द्वार पर ही लिखा होता था: ‘भारतीयोंऔर कुत्तों का प्रवेश वर्जित है’।
भारतीय को न्याय भी नहीं मिल पाता था। अंग्रेज न्यायाधीश ज्यादातर पक्षपात करते थे और अंग्रेजों के पक्ष में ही निर्णय देते थे। अंग्रेज सरकार ने समाज के सभी वर्गों पर बेतहाशा कर थोप दिए थे जिससे मजदूर, व्यापारी, जमींदार आदि सभी व्यथित थे। भारतीय लोग अपना जा सामान या कच्चा माल ब्रिटेन भेजते थे, उस पर सरकार ज्यादा कर लेती थी, जबकि ब्रिटेन से भारत आने वाले माल पर आयात कर बहुत कम लगता था। इस प्रकार भारतीय व्यापारी गरीब होते जा रहे थे और ब्रिटिश व्यापारी अमीर।
अंग्रेज सरकार का पूरा ध्यान भारत की प्राकृतिक संपदा के दोहन पर था। खेती पर उसका बिलकुल ध्यान नहीं था। इससे खेती चौपट होती जा रही थी। कहीं अकाल और कहीं बाढ़ आम प्राकृतिक कहर थे। छोटे किसान भुखमरी की कगार पर बैठ थे।
भारतीय सैनिकों का वेतन अंग्रेज सैनिकों की अपेक्षा कम था और उनकी पदोन्नति में अनेक बाधाएं थीं। उन्हें बर्मा तथा अफगानिस्तान युद्ध में भेजा जाता था, जहां वरिष्ठतम भारतीय सैनिक को भी अंग्रेज पदाधिकारी के अधीन कार्य करना पड़ता था। इन कारणों से भारतीय पैदल सेना मे अत्याधिक असंतोष था। इतनी समस्याओं के दौर में ही जनवरी 1887 में एक दिन किसी हिंदू सैनिक को पता चला कि अंग्रेज शीघ्र ही उन्हें ऐसे कारतूस देने वाले हैं जिनमें सूअर और गाय की चरबी मिली होगी। यह खबर जंगल की आग की भांति शीघ्र ही बैरकपुर छावनी ‘कलकत्ता’ तक पहुंच गई। वहां तैनात 19वीं रेजीमेंट के सिपाहियों ने चरबीयुक्त कारतूस के प्रयोग से इनकार कर दिया। बड़़े अधिकारियों ने जैसे-तैसे उस मामले को वहीं दबा दिया और 19वीं रेजीमेंट भंग कर दी गई। लेकिन इसके बाद हुई घटना को वे वहीं दबा न सके। 29 मार्च, 1857 को 34वीं रेजीमेंट के मंगल पांडे ने चरबीयुक्त कारतूस को चलाने से न केवल मना किया कि वे अपने धर्म की रक्षा करें। 34वीं रेजीमेंट आनन-फानन में भंग कर दी गई और वारदात के 10 दिन बाद 8 अप्रेल, 1857 को मंगल पांडे को फांसी दे दी गई।
मंगल पांडे की फांसी ने इस विद्रोह में घी का काम किया। 24 अप्रैल को मेरठ छावनी के कुछ और सैनिकों ने उन कारतूसों के प्रयोग से इनकार कर दिया। इस पर उन्हें अपमानित किया गया और 10-10 साल की सजा दी गई
धीरे-धीरे विद्रोह सुलगता रहा और 10 मई, 1857 को इसने उग्र रूप ले लिया। विद्रोही सैनिकों ने 10 मई को मेरठसे चलकर दूसरे ही दिन दिल्ली पर अधिकार कर लिया और बहादुर शाह द्वितीय को दिल्ली का सम्राट् घोषित कर दिया। तत्पश्चात् क्रांति की ज्वाला अवध और रूहेलखंड में भी फैल गई। राजपूताने में स्थित नसीराबाद, ग्वालियर में नीमच, उत्तर प्रदेश में बरेली, लखनऊ, बनारस तथा कानपुर की छावनियों में सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध खुला विद्रोह किया। बुंदेलखंड में विद्रोह का नेतृत्व करने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजी फौज को कड़ी शिकस्त दी। कानपुर के निकट बिठूर में नाना साहब को ‘पेशवा’ घोषित कर दिया गया। अंग्रेजी सत्ता प्रारंभ में इस क्रांति से डांवांडोल हो उठी। लेकिन धीरे-धीरे सिखो, गोरखों तथा दखिण के सैनिकों की मदद से वह पुनः स्थापि हो गई। 14 सितंबर, 1857 को अंग्रेजों का दिल्ली पर पुनः अधिकार हो गया। कानपुर तथा लखनऊ के घेरे भी टूट गए। कैंपबेल ने अवध तथा रुहेलखंड का विद्रोह दबा दिया।
बुंदेलखंड में झांसी की रानी जान की बाजी लगाकर लड़ी और शहीद हो गई। नाना साहब के सेनापति तात्या टोपे को बंदी बनाकर फांसी दे दी गई। दिल्ली पर पुनः राज्य स्थापित करने के बाद अंग्रेजों ने बहादुरशाह जफर को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया, जहां उसकी मृत्यु हो गई। नाना साहब नेपाल क तराई की ओर भाग गए। इस प्रकार यह क्रांति विफल हो गई। 8 जुलाई, 1858 को अंग्रेजों ने विद्रोह की समाप्ति की घोषणा कर दी।
यह लड़ाई ज्यादातर दिल्ली, झांसी, मथुरा, मेरठ, फैजाबाद, लखनऊ, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद, ग्वालिर, कालपी, पटना, दानापुर, शाहबाद, जगदीशपुर, छोटानागपुर और हरियाणा के कुछ भागों तक ही सीमित थी। इसमें भी इस विद्रोह के मुख्य केंद्र दिल्ली ‘बहादुरशाह जफर’, लखनऊ ‘बेगम हजरत महल’, कानपुर ‘नाना साहेब अजीमुल्ला’, झांसी ‘रानी लक्ष्मीबाई’ तथा ग्वालियर ‘तात्यां टोपे’ रहे।
इस दौरान बंगाल, मद्रास और बंबई के इलाके शांत रहे। हैदराबाद, मैसूर, ट्रावणकोर, कश्मीर और राजपूताना रियासतों ने भी विद्रोह में हिस्सा नहीं लिया। यही नहीं, पंजाब, राजस्थान और दक्षिणी रियासतों के कई नरेशों ने तो आर्थिक और सैन्य रूप से अंग्रेजां को सहायता दी। कुल मिलाकर यह सैनिक विद्रोह असफल रहा। इसके कई कारण गिनाए जा सकते हैं। विद्रोह का कोई एक प्रमाणिक नेता नहीं था। विद्रोहपूर्ण नियोजन और सुसंगठित नहीं था। विद्रोह का रूप स्थानीय था। कई जगह तो इसकी खबर तक नहीं पहुंची थी। विभिन्न सेनानायक अपने-अपने स्तर पर लड़ाई लड़ रहे थे। उनमें आपसी समन्वय का घोर अभाव था। अफवाहों का बाजार गरम था। कई भारतीय रियासतें तटस्थ रहीं तो कई अंग्रेजों की पिछलग्गू। विद्रोह के कारण भी अस्पष्ट थेः कि यह आजादी की लड़ाई थी या मात्र सैन्य विद्रोह? भारतीय सैनिक हालांकि अंग्रेज सैनिकों की तुलना में सात गुना थे, लेकिन उनके पास आधुनिक हथियारों का अभाव था, जो पराजय का सबसे बड़ा कारण बना।
इस विद्रोह ने पहली बार अंग्रेजों को भयभीत भी किया। क्रांति के दौरान भारतीयों तथा अंग्रेजों ने एक-दूसरे पर अमानुुषिक अत्याचार किए। इस घटना के बाद कंपनी का राज्य समाप्त हो गया और भारत का प्रशासन इंग्लैंड की महारानी के हाथों में आ गया। इस प्रकार राजतंत्र बदल गया लेकिन नीतियों में ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ। हां, अंग्रेजों ने साम्राज्यवाद की नीति त्याग दी बल्कि अब वे राजे-रजवाड़ों को अपने पक्ष में लेकर चलने लगे थे। सैन्य गठन वे क्षेत्रीय व जातीय आधार पर करने लगे-जैसे गोरखा रेजीमेंट, सिख रेजीमेंट, असम राइफल्स इत्यादि, ताकि जातीय या धर्म के आधार पर सैनिकों को एकजुट होने का आधार न मिले।
इस सैन्य विद्रोह या सन् सत्तावन की क्रांति को अलग-अलग लोग पृथक-पृथक संबोधन देते हैं। कुछ इसे महज सैन्य विद्रोह मानते हैं, कुछ सागर में एक कंकर की हलचल जैसा, तो कुछ इसे विकृत मस्तिष्क की उपज कहते हैं। लेकिन इससे जुड़े हिंदू, मुसलमान, किसान, मजदूर, महाजन, साहूकार, विद्यार्थी, शिक्षक-सभी ने इसे एक राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान किया और इसे भारत का ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ बनाया।
(स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन) पुस्तक से साभार