सामाजिक शक्ति के जागरण का पर्व है ‘अयोध्या पर्व’

रामबहादुर राय

अयोध्या पर्व की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि रामलला का मुकदमा हम जीत गए। जब पिछले साल अयोध्या पर्व शुरू हुआ था तो किसने सोचा था कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ जायेगा। जो लोग सुप्रीम कोर्ट की प्रक्रिया जानते हैं और जजों पर नज़र रखते हैं, उन सब लोगों ने उम्मीद की थी कि दीपक मिश्र जब चीफ जस्टिस से रिटायर होंगे उससे पहले सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ जायेगा।

मैं जानता हूँ कि दीपक मिश्र फैसला न कर सकें इसके लिए कांग्रेस पार्टी, वामदल और उन तमाम वकीलों ने जो फैसलें को अटका देना चाहते थे, उन्होंने दीपक मिश्र के खिलाफ ही अभियान चला दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि चीफ जस्टिस ने राममंदिर के मुकदमे को अपने कंधे से उतार कर आगे बढ़ा दिया। रामजन्म भूमि आंदोलन के कई नेताओं से अलग-अलग बात करने पर पता चला कि किसी को भी यह यकीन नहीं था कि जैसा फैसला आया है वैसा आएगा। लेकिन एक व्यक्ति को था और उस व्यक्ति का नाम है अशोक सिंघल। 

2010 में जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया था तब मैं अशोक सिंघल से मिलने गया। अशोक सिंघल विश्व हिंदू परिषद में तो बाद में आएं। उनके बारे में आज लोग जानते हैं कि वो केवल विश्व हिन्दू परिषद के नेता थे, लेकिन अशोक जी जब कानपुर में रहते थे तो उत्तरप्रदेश के विद्यार्थी आंदोलन के सूत्रधार भी थे। 

इसीलिए जब अशोक जी विश्व हिन्दू परिषद में गए तो जैसे एक नौजवान आंधी तूफान लेकर के जाता है उसी तरह गए। पहले भी मैंने कई बार ये बात कही है। सरसंघ चालक मोहन भागवत जी जब अशोक जी की  श्रद्धांजलि सभा आये थे तो उनके सामने भी मैंने ये बात कही। अशोक सिंगल के पहले विश्व हिन्दू परिषद  आरएसएस का एक वानप्रस्थ आश्रम था। आरएसएस बूढ़े लोगों को विश्व हिन्दू परिषद भेज देता था। 1980-81 में जब अशोक सिंघल विश्व हिंदू परिषद गए तो उन्होंने पहचाना कि हिन्दू समाज के सामने अगर कोई आदर्श है और उस आदर्श के लिए जान की बाजी लगा के लड़ना है तो उसकी पहचान करना होगा। और उन्होंने खोजा और इस तरह से राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत हुई। 

उस रामजन्म भूमि पर 9 नवंबर, 2019 को फैसला आने के बाद 492-93 सालों की लड़ाई पूरी हुई है। अयोध्या पर्व का इस संघर्ष से संबंध है और ये संघर्ष के अब कई रास्ते खोलेगा। इस संघर्ष से मंदिर बनने की प्रक्रिया शुरू हो रही है लेकिन उससे भी बड़ी चुनौती हमारे सामने होगी।  

आज 2020 में हम केवल वाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस या उनके आधार पर लिखी हुई किताबों को ही याद करते रहेंगे तो हम अतीत में रहेंगे और फिर जो वर्तमान की चुनौती है उस चुनौती को समझ नहीं सकेंगे। इसलिए मैं पहली बात यह कहना चाहता हूँ कि अतीत को याद करें और उसकी महानता की इतनी पुस्तकें हैं, इतने ग्रंथ हैं जिनकी किसी छोटे भाषण में चर्चा नही की जा सकती। लेकिन एक किताब की मैं जरूर आपके सामने चर्चा करूँगा, क्योंकि उसका उल्लेख शायद यहां बोलने वालों में से किसी ने नहीं किया होगा। 

अगर आपको राम कथा जाननी हो तो कभी समय मिले तो उस किताब को आप पढ़ें, आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे। जिस व्यक्ति ने किताब लिखी है उस व्यक्ति का नाम है फादर कामिल बुल्के। बेल्जियम का एक ईसाई मिशनरी जो रांची आया था। यह कोई ज्यादा दिनों की बात नहीं है। ये 1935-36 की बात है कामिल बुल्के रांची आया और रांची में आदिवासियों के बीच में काम करने लगा, काम करते हुए उसको लगा कि अगर हम हिंदी ठीक से समझ और बोल नहीं सकत तो आदिवासियों के बीच में काम नहीं कर सकते। इसलिए उसने हिंदी सीखी और जब हिंदी सीखी तो वो इलाहाबाद आया। 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उस समय एक बड़े साहित्यकार धीरेंद्र वर्मा होते थे। धीरेंद्र वर्मा के अधीन या उनका विद्यार्थी होकर उसने राम कथा पर अपनी पीएचडी का रजिस्ट्रेशन कराया और मैं इस किताब का उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि अपने अतीत को जानने के लिए जितना उपलब्ध साहित्य है वेद से लेकर रामचरितमानस तक, भारत और एशिया और दुनिया के दूसरे देशों में जहां-जहां रामकथा कही जाती है, उसका स्रोत क्या है, और उस स्रोत में कहां क्या कहा गया है ये सब कामिल बुलके ने रिसर्च करके उसका डॉक्यूमेंटेशन किया और वो किताब उपलब्ध है। 

धीरेंद्र वर्मा जो उनके गाइड थे या इस विषय के जितने भी जानकार हैं सबने ये कहा है कि कामिल बुल्के ने जो रिसर्च किया है उसकी कोई तुलना नहीं है यानी वो सबसे श्रेष्ठ रिसर्च है। अब सचमुच अयोध्या पर्व न होता तो मेरे घर में जो छोटी सी लाइब्रेरी है उसमें कामिल बुल्के की किताब को सबसे ऊपर रख दिया था। क्योंकि मुझे लग रहा था कि इन किताबों की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी लेकिन अयोध्या पर्व के कारण मैंने कामिल बुल्के की किताब फिरसे निकाली उसको देखा, उसको पढ़ा और सचमुच में नतमस्तक हूँ उस व्यक्ति के प्रति।

कामिल बुल्के आज नहीं है लेकिन उस पुस्तक से आप ये जान सकेंगे कि राम का अर्थ क्या है। रामकथा कहाँ पहुँची। मैं इसका आपसे उल्लेख इसलिए करना चाहता हूँ क्योंकि मेरा अयोध्या पर्व का अगला हिस्सा क्या होगा। क्या हम उन पुरानी कथाओं की ही चर्चा करते रहेंगे। ये एक प्रश्न है? अयोध्या पर्व का अगला हिस्सा और वो सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। वो ये कि इस बात का प्रचार और प्रसार किया जाए कि राम कथा कितने हैं। 

पिछले साल की तुलना में ये जो आयोध्या पर्व है वो बेहतर हुआ है। संख्या की दृष्टि से भी, उपस्थिति की दृष्टि से भी, और कार्यक्रम के संयोजन की दृष्टि से भी। अयोध्या पर्व चलने वाला सिलसिला है। अगला अयोध्या पर्व भी दिल्ली में ही होगा। अयोध्या और राम को मानने वाले दिल्ली में जो लोग हैं, जितनी संख्या में आज लोग उपस्थित हैं उससे कई गुना संख्या में अगले साल आएं इसकी सालभर अगर आप तैयारी करेंगे। तब जाकर के आप अगला अयोध्या पर्व ठीक से मना सकेंगे ये मेरी समझ से पहली जरूरत है। उसी तरह से इसको मैं एक सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक पर्व नहीं कह रहा हूँ लेकिन अयोध्या पर्व अपने आप में एक सामाजिक, सांस्कृतिक चेतना के विस्तार का माध्यम है। 

अयोध्या पर्व सांस्कृतिक चेतना के विस्तार की एक प्रक्रिया है इसलिए उस प्रक्रिया में हमारी अधिक से अधिक भागेदारी होनी चाहिए। अब जैसे जिस स्मारिका का लोकापर्ण हुआ या उससे पहले ही दिन ‘अहो अयोध्या’ एक छोटी सी किताब आयी है। अहो अयोध्या कोई पूरी किताब नहीं है लेकिन अहो अयोध्या ऐसी किताब है जो आज की अयोध्या से और अतीत की अयोध्या से हमें परिचित कराती है।

कृष्णगोपाल जी को जिन लोगों को भी सुनने का अवसर मिला होगा उन्होंने संभवतः इस बात को ध्यान दिया होगा। कृष्णगोपाल जी ने किसी विद्वान के जरिये ये कहा कि उन्होंने खोजा है कि अयोध्या के चारों तरफ एक सौ अड़तालीस ऐसे स्थान है जो पौराणिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक महत्व के स्थान हैं तो अयोध्या पर्व में कई काम होने हैं उसमें एक काम यह भी होना है कि उन स्थानों का पुनरुद्धार का निर्णय वहां का समाज स्वयं करे। 

इस प्रक्रिया में जैसे मैंने संभवतः पहले दिन जिक्र किया था मुझसे किसी पत्रकार ने पूछा कि अयोध्या पर्व के माध्यम से क्या आप लोग भारत सरकार को कोई ज्ञापन देंगे ? (मैं फिर से इसको दोहराना चाहता हूँ) ये उत्सव समाज की अपनी ताकत पर हो रहा है, सरकार को ज्ञापन देना, सरकार से मांगना, सरकार से कहना इस तरह के उत्सव को शोभा नही देता। इसलिए हमने शुरू से ही यह निर्णय किया है कि सरकार से हम कोई उम्मीद नहीं कर रहे हैं। सरकार अपना काम करेगी हम अपना काम करेंगे।

जो सामाजिक शक्ति है उसके जागरण का पर्व है अयोध्या पर्व। लोगों को ये भरोसा हो कि सरकार के बगैर भी हम कुछ कर सकते हैं और जब अपने आसपास समाज में हम देखेंगे तो पाएंगे कि जो बड़े काम हुए हैं उसको सरकार नही करती है। 1991 के बाद से तो यह धारणा ही बदल गयी है इसलिए पूरे भारत देश की कोई सामर्थ्य है तो उस सामर्थ्य का बहुत छोटा सा हिस्सा भारत सरकार के पास है। उसका जो 1/8 हिस्सा ही भारत सरकार के पास है 8/9 हिस्सा तो समाज के पास है। इसलिए इस ताकत को समाज समझे। 

अयोध्या पर्व के जरिए समझे, अयोध्या पर्व के कार्यक्रमों के जरिये समझें, यही सोच करके इस विश्वास के साथ ये शुरुआत हुई है। और दो कदम आगे बढ़े हैं केवल पिछले साल एक कदम आगे बढ़े थे इस साल दो कदम आगे बढ़े हैं। अगर हमको ये सही सही पता हो कि हमारी दिशा क्या है, हमें जाना कहाँ है, लक्ष्य क्या है, तो दो कदम का बढ़ना इस बात की गारंटी है कि हम लक्ष्य तक पहुचेंगे, मंजिल तक पहुचेंगे।

 

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