आज के हिन्दू समाज में अनेक विषमताएं हैं. जाती – पाती, उच्च – नीच, वर्ण आदि अनेक ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर अनेकों बार समाज बटा हुआ सा लगता हैं.
क्या इतिहास में भी यही या ऐसी ही विषमताएं हिन्दू समाज में थी..?
इसका स्पष्ट उत्तर हैं – नहीं.
*उत्तर वैदिक काल में, हिन्दू समाज में ऐसी विषमताएं नहीं थी. अगर होती तो हिन्दू समाज इतने सामर्थ्यशाली स्वरुप में, तत्कालीन विदेशी आक्रांताओं के सामने खड़ा ही नहीं रहता. उस समय का हिन्दू समाज समरस था. और इसीलिए एकरूप था.* हमारे पुरखों ने ‘समता’ के तत्व को प्रारंभ से ही माना था. समता, बंधुता यह हमारे ‘मूल्य’ थे. सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद के दसवे अध्याय में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं. यह वेदमंत्र देखे –
*समानी व आकूति: समाना ह्रुदयानी व: I*
(ऋग्वेद १० / १९१)
इसका अर्थ हैं – हमारी अभिव्यक्ति एक जैसी, हमारी सोच एक जैसी, हमारे अन्तःकरण एक जैसे रहे (जिसके कारण हम संगठित रहे).
इसी श्लोक में आगे लिखा हैं –
*संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् I*
*देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते II*
अर्थ – हम सब एक साथ चले. आपस में संवाद करे. हमारे मन एक हो. जिस प्रकार पहले के विद्वान अपने नीयत कार्य के लिए एक होते थे, उसी प्रकार हम भी साथ में मिलते रहे.
दूसरा एक और मंत्र देखिये –
*समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सहचित्तमेषाम् I*
*समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि II*
(ऋग्वेद अध्याय ८ / ४९ / ३)
अर्थ – इन (मिलकर कार्य करने वालों) का मन्त्र समान होता है. अर्थात ये परस्पर मंत्रणा करके एक निर्णय पर पहुँचते हैं, चित्त सहित इनका मन समान होता है. मैं तुम्हें मिलकर समान निष्कर्ष पर पहुँचने की प्रेरणा (परामर्श) देता हूँ, तुम्हें समान भोज्य प्रदान करता हूँ.
इनमे कही भी जाती का उल्लेख नहीं हैं. क्योंकि हमारे मूल ग्रंथों में कही भी जाती के आधार पर भेदभाव का एक भी (जी हां, एक भी) उदाहरण नहीं मिलता हैं.
तो क्या उस समय वर्ण व्यवस्था नहीं थी..?
उस समय वर्ण व्यवस्था को मानने वाला वर्ग समाज में था. लेकिन यह चातुर्वर्ण्य व्यवस्था, जन्म के आधार पर नहीं थी. वह गुणों के आधार पर थी. इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं. *जिनको हम प्रकांड पंडित मानते हैं, ऋषि – मुनि मानते हैं, ऐसे अधिकांश विद्वानों का जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआ था.*
महाभारत लिखने वाले महर्षि वेदव्यास मछुआरे के पुत्र थे. पराशर ऋषि, स्मशान में काम करने वाले चंडाल के घर पैदा हुए थे. जिनके नाम से गोत्र का निर्माण हुआ, ऐसे वसिष्ठ मुनि, एक वेश्या के पुत्र थे. ऐतरेय ब्राह्मण कुल के निर्माता महिदास, इतरा नाम की शूद्र स्त्री के कोख से जन्मे थे. दीर्घतमा ऋषि की माँ उशिज यह शूद्र दासी थी (आचार्य सेन – ‘भारतवर्ष में जाति भेद’ / पृष्ठ १२, १४, २४). सत्यकाम जाबाली की कथा हम सभी जानते हैं. इन सभी को समाज ने यदि दुत्कारा होता, ठुकराया होता तो क्या हिन्दू समाज इतना समृध्द होता..? अर्थात हिन्दू समाज गुणों की कद्र करता था. जन्म कुल की नहीं.
वर्ण यह जन्म के आधार पर नहीं थे और उनमे कोई उच्च – नीच ऐसा भाव नहीं था. काठकसंहिता में स्पष्ट लिखा हैं, “ज्ञान व तपस्या इन गुणों से ही मनुष्य ब्राह्मण बनता हैं. फिर उसके माता – पिता की चिंता क्यों करना ? वेद यही ब्राह्मणों के पिता हैं और उनके पितामह भी.”
उस समय वर्ण संकर था. अंतरजातीय विवाह धडल्ले से होते थे. महाभारत के वन पर्व में नहुष और युधिष्ठिर का संवाद हैं. इसमें नहुष के प्रश्न का उत्तर देते हुए युधिष्ठिर स्पष्ट रूप से कहते हैं, “हे नागेन्द्र, वर्तमान में सभी जगह वर्ण संकर होने के कारण किसकी कौन सी जाती हैं, यह कहना कठिन हैं. इसलिए ‘ब्राह्मण किसे कहे’, इस प्रश्न का उत्तर हैं, ‘जिसका चारित्र्य स्वच्छ हो, जो सदाचारी हो और अध्ययन करता हो, वही ब्राह्मण हैं. उसके माता – पिता, कुल चाहे जो भी हो.’
अर्थात प्राचीन समय में हमारे हिन्दू समाज में वर्ण भेद या जाती भेद नहीं था. वर्ग भेद था, ऐसा हम कह सकते हैं. कार्य के अनुसार वर्ग बनते थे.
वेदों के अनेक सूक्त क्षत्रियों ने लिखे हैं. ऋग्वेद के पहले मंडल के पहले दस मन्त्र मधुच्छंद ने लिखे हैं. वे क्षत्रिय थे. विश्वामित्र ऋषि के लिखे सूक्त ऋग्वेद में हैं. गायंत्री मन्त्र के रचयिता भी विश्वामित्र ही हैं. यह गाधी राजा के पुत्र थे. क्षत्रिय थे. यज्ञ निष्ठा, वेद संस्कृति, संस्कृत वाणी यह आर्यत्व के लक्षण थे. फिर कुल कोई भी हो. सीतामाई के पिता, राजा जनक ब्रम्हवेत्ता थे. क्षत्रिय होने के बाद भी अनेक ब्राह्मणों को उन्होंने ब्रम्हविद्या सिखायी. वैश्य समाज के अग्रणी महाराजा अग्रसेन यह क्षत्रिय ही थे.
राज व्यवहार चलाने में सभी जाती के लोग रहते थे. महाभारत में भीष्म ने इस बारे में कहा हैं – ‘राजा के तीन शूद्र मंत्री, चार ब्राह्मण मंत्री, आठ क्षत्रिय मंत्री, इक्कीस वैश्य मंत्री तथा एक सूत मंत्री होना चाहिए. (शांति पर्व ८५ / ५). ब्राह्मणों से शूद्र मंत्रियों की संख्या मात्र १ से कम हैं.
*अर्थात प्राचीन काल में, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक इन सभी क्षेत्रों में समता का तत्व, सामाजिक मूल्य के रूप में प्रस्थापित था. इसका अनुसरण कर, समाज एकरस, एकरूप हुआ था. और इसीलिए उस समय हिन्दू समाज, दुनिया का सबसे बलशाली समाज माना जाता था.*
कालांतर में सामाजिक व्यवस्था में अनेक विकृतियां आती गयी और हिन्दू समाज की ताकत जाती रही…!
– प्रशांत पोळ
_(‘हिन्दुत्व – विभिन्न पहलू सरलता से..!’ इस पुस्तक के अंश. प्रकाशक – सुरुचि प्रकाशन, दिल्ली)_