देश के बहुत से लोगों के लिए गांधीजी का नाम राम बाण हो गया है। जब भी उन्हें देश के औद्योगिक ढांचे की कोई बुराई नजर आती है, उन्हें गांधीजी का ग्राम स्वराज्य याद आने लगता है। सरकारी नीतियों की हर असफलता का कारण उन्हें यही दिखाई देता है कि वे गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित नहीं हैं। उन्हें लगता है कि 1947 में अगर हम जवाहरलाल नेहरू के रास्ते के बजाय महात्मा गांधी के रास्ते पर गए होते तो देश ज्यादा खुशहाल होता और देशवासी ज्यादा सुखी होते। 1977 में जब कांग्रेस का शासन बदलने के संकेत दिखाई दे रहे थे और विरोधी दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई थी तो उसके कई नेताओं ने यह भरोसा दिलाया था कि अब देश को महात्मा गांधी के रास्ते पर मोड़ दिया जाएगा। इससे कांग्रेस के शासन के दौरान पैदा हुई बहुत सारी बुराइयां अपने आप खत्म हो जाएंगी। आज भी जब कोई वैकल्पिक नीतियों की बात करता है तो उसे गंभीरता ही याद आते हैं।
इसके बावजूद महात्मा गांधी का रास्ता सबके लिए एक गुत्थी ही बना रहता है। आज तक किसी ने उनक इस वैकल्पिक रास्ते का कोई बहुत संतोषजनक ब्यौरा नहीं दिया। दुनिया में जितना गांधीजी के विचारों पर लिखा गया हे हमारी इस सदी के किसी और आदमी के विचारों पर नहीं लिखा गया है हमारी इस सदी के किसी और आदमी के विचारें पर नहीं लिखा गया। कार्ल मार्क्स पर भी उतनी पुस्तकें और लेख नहीं लिखे गए हैं जितने गांधीजी पर लिखे गए है। उसके बाद भी उनके विचारों में से किसी सभ्यता या किसी सरकार को चलाने का व्यावहारिक ढांचा और शक्ति नहीं निकल पाई। देश के किसी राजनैतिक दल ने भी हमारे यहां की राजनीति का कोई वैकल्पिक गांधीवादी ढांचा बनाने की कोशिश नहीं की। राजनीति के वैकल्पिक ढांचे की बात तो छोड़िए, किसी दल या नेता ने सरकार को दिशा निर्देश देने वाला कोई व्यावहारिक गांधीवादी कार्यक्रम देने तक में सफलता हासिल नहीं की।
मुट्ठी भर लोग गांधीजी के विचारों से एक नया अर्थशास्त्र पैदा करने की जरूर कोशिश करते रहे हैं। इस अर्थव्यवस्था के जरिए वे औद्योगीकरण से फैलने वाली गरीबी दूर करना चाहते हैं। कुछ दूसरे लोग गांधीजी का हवाला देते हुए पंचायती व्यवस्था बनाने या लागू करने की कोशिश कर रहे हैं। कभी-कभी शिक्षा का ढांचा सुधारने के लिए महात्मा गांधी का नाम लिया जाता है। यह सब लोग गांधीजी के विचारों में से कुछ ऐसे सूत्र ढूंढ़ते रहते हैं जिन्हें आधुनिक व्यवस्थाओं पर लागू करके उन्हें सुधारा जा सके। इस तरह की सभी कोशिशों को अभी तक निराशा ही हाथ लगती रही है। आधुनिक व्यवस्थाओं की आंतरिक शक्ति इतनी प्रबल है कि वह किसी भी सुधारवादी कलम को टिकने नहीं देती। फिर भी हमारा यह गांधीवादी रोमांस खत्म नहीं होता।
महात्मा गांधी हमारे लिए इतनी जटिल और अबूझ पहेली क्यों बन गए हैं? इसकी वजह शायद यही है कि हम गांधीजी के विचारों में गांधीवाद ढूंढ़ने की कोशिश करते रहते हैं। गांधीजी ने खुद अपने विचारों के बारे में विनम्रता से भरी टिप्पणियां ही की हैं और उनकी यह विनम्रता सिर्फ विनम्रता नहीं थी सच्चाई भी थी। गांधी जी ने कहा था कि उन्होंने कहीं कोई मौलिक बात नहीं कही है। वे तो वही बातें दोहरा रहे हैं जो हमारी सनातन परंपरा मं रही है। पराधीनता के दिनों को निराशा ने हममें अपनी परंपरा की स्मृति जरूरी धुंधली कर दी है, उसमें हमारा आत्म विश्वास घटा दिया है। लेकिन हमरे संस्कारों और सामाजिक व्यवहार व लोक प्रचलित संस्थाओं में हमारी यह सनातन परंपरा टूटी-फूटी शक्ल में ही सही, आज भी जीवित है। इस सनातन परंपरा के सिद्धांतों और व्यावहारिक पहलुओं को जानने क जरूरत है। उसमें समयानुकूल नवीनीकरण करने की जरूरत है। इसके अलावा हमें कुछ करने की जरूरत दिखाई नहीं देगी।
गांधीजी ने अपनी यह बात इतनी बार कही और दोहराई है कि उसकी उपेक्षा आश्चर्यजनक लगती है। शायद हममें अपनी सनातन परंपरा के बारे में अज्ञान के साथ-साथ आत्महीनता भी पैदा हो गई है। गांधीजी के विचारों के ढांचे को समझने के लिए हम उस परंपरा की जांच-पड़ताल करना तक नहीं चाहते। यह बात केवल उन लोगों के बारे में सही नहीं है जो गांधीजी या उनके विचारों को करीब से नहीं जानते। बल्कि उन लोगों के बारे में भी सही है जो अपने आपको गांधीवादी भी बताते हैं और हमारी परंपरा को जानने का भी दावा करते हैं। उन्हें भी अक्सर हमारी परंपरा से मिलने वाली बातों से गांधीजी की बातों का संबंध दिखाई नहीं पड़ता।
इस सिलसिले में मुझे प्रसिद्ध गांधीवादी मनमोहन दिवाकर का एक अंतरंग किस्सा बताने की छूट लेनी पड़ेगी। वे गांधीजी पर लिखा गया धर्मपाल जी का एक पर्चा देख रहे थे। इस पर्चे की शुरुआत यह कहते हुए की गई थी कि गांधीजी मोक्ष के लिए प्रयत्नशील थे। यह बात गांधीजी ने खुद भी कई बार और कई कई तरह से कही है। लेकिन भारतीय परंपरा और गांधीवादी विचारों दोनों के गंभीर अध्येता दिवाकरजी को यह टिप्पणी रास नहीं आई और उन्होंने कहा कि गांधीजी मोक्ष के लिए नहं सत्य के लिए प्रयत्नशील थे। मैं उनकी इस टिप्पणी को सुन कर बिलकुल चकित रह गया, क्योंकि भारतीय आध्यात्मिक चिंतन से परिचित साधारण से साधारण आदमी भी यह जानता है कि सत्य पाना ही मोक्ष है। हमारा सारा वांग्मय सत्य को परम तत्व बताने वाली टिप्पणियों से भरा पड़ा है। और उसका साक्षात्कार ही परमात्मा की प्राप्ति या मोक्ष है।
इस बात को मनमोहन दिवाकर न जानते हों यह असंभव है। फिर भी वे गांधीजी की सत्य की साधना में और मोक्ष की साधना में संबंध नहीं देख पाए। इसकी वजह शायद यही है कि गांधीजी को समझाने के लिए हम अपनी सनातन परंपरा को देखना ही नहीं चाहते। उनके विचारों की जड़ें यूूरोप के आधुनिक और उदारतावादी चिंतन में ढूंढ़ने की फूहड़ कोशिश तो बहुत हुई हैं मगर यह समझने की कोशिश नहीं हुई कि गांधीजी के विचारों और कामों का अपने यहां के परंपरागत चिंतन से क्या संबंध रहा है। इस संबंध के बारे में गांधीजी ने खुद कभी कोई दुराव-छिपाव नहीं बरता। वे अपने आपको हमेशा एक सनातनी हिंदू बताते थे और वह बताते हुए गर्व महसूस करते थे। अपने तमाम बुनियादी विचारों की व्याख्या करते हुए उन्होंने यही कहा कि उसे उसके मूल वैदिक अर्थ में ही समझना चाहिए वरना वह समझ में नहीं आएगा।
भारत के सनातन धर्म से गांधीजी के संबंध को समझने के लिए उनके पूरे जीवन काल को एक सरसरी निगाह से ही दिखा दिया जाना चाहिए। उनका राजनैतिक जीवन उनके दक्षिण अफ्रीका जाने के बाद शुरू होता है। यहां उनकी सबसे बड़ी समस्या ईसाई धर्म और हिंदू धर्म का मूलभूत अंतर समझना है और यूरोपीय सभ्यता व भारतीय सभ्यता का फर्क पहचानना है। इस काम के लिए वे जैन चिंतक रायचंद भाई से लगा कर दुनिया भर के लोगों से सवाल पूछते हैं। इक्कीस-बाईस साल की उम्र में उन्होंने साल भर के भीतर इक्यानवे ग्रंथ पढ़े हैं। आज के हमारे बड़े-बड़े पंडितों के लिए इतना पढ़ना आसान नहीं होगा। अपनी इसी जिज्ञासा और खोज से उन्हें अपनी लड़ाई का सबसे तेजस्वी औजार सत्याग्रह प्राप्त हुआ। उसे पाने से पहले वे एक आश्रम बना चुके थे और अपने जीवन में पांचों यमों को उतार चुके थे। सत्य और अहिंसा तो उन्हें स्वभाव और संस्कार में ही मिले थे, ब्रम्हचर्य और अपरिग्रह का व्रत लेने में उन्हें काफी मेहनत उठानी पड़ी। क्या यह बात असाधारण नहीं है कि अपना राजनैतिक अभियान छेड़ने से पहले उन्हें ये व्रत लेने जरूरी लगे। यह भी गौर करने की बात है कि वे सत्याग्रह और पश्चिम से आए नागरिक अवज्ञा के विचार का फर्क समझाते हुए यह कहते रहे कि सत्याग्रह भारतीय परंपरा का पुराना विचार है और नागरिक अवज्ञा से अलग है।
भारत आने के बाद उन्होंने सत्याग्रह की लड़ाई छेड़ने के लिए साबरमती का सत्याग्रह आश्रम बनाया और देश का पुनर्निर्माण करने का अभियान छेड़ने के लिए वर्धा जिले का सेवाग्राम आश्रम। भारत आने के बाद दो साल के भीतर उन्होंने तब तक की राष्ट्रीय लड़ाई की कमजोरी पहचान ली। यह कमजोरी उन्होंने राजनैतिक रणनीति में नहीं तलाशी। साबरमती आश्रम में 1917 में दिया गया उनका एक भाषण आंख खोलने लायक है। इस भाषण में वे कहते हैं कि इस समय देश में दो उल्लेखनीय लोग हैं। एक तिलक महाराज, जिनके लिए देश के हजारों नौजवान अपनी जान दे सकते हैं और दूसरे मदन मोहन मानवीय जो इस समय राजनी िके सबसे पवित्र व्यक्ति हैं। इन दोनों के बारे में गांधीजी यह टिप्पणी करते हैं कि हिंदू धर्म का मर्म नहीं जानते। यही वजह है कि राष्ट्रीय आंदोलन सफल नहीं हो पाया।
आजादी की लड़ाई की कमान संभालने से पहले अपने इस भाषण से गांधीजी ने यह घोषणा की थी कि हिंदू धर्म या सनातन धर्म का मर्म केवल वही जानते हैं और इसलिए वही भारत माता की इस लड़ाई के सेनापति हो सकते हैं। उनकी इस घोषणा में वहीं आत्मविश्वास और संकल्प रहा होगा जो किसी समय गौतम बुद्ध में दिखाई दिया होगा। जब उन्होंने घोषित किया था कि वे कोई नया धर्म चलाने नहीं आए। वे तो सनातन धर्म को ही जीवित और जागृत करने आए हैं और वही उसका मर्म समझते हैं। इसलिए इस काम को वे ही कर सकते हैं। समय-समय पर हमारे सभी महान लोगों ने यही कहा है और सनातन रास्ते का आत्मसात करके समाज को सही रास्ते पर लौटा दिया है। गांधीजी ने भारत में आने के बाद जो भी विचार या अवधारणाएं दीं उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसे भारतीय परंपरा से काट कर समझा जा सकता हो।
विचारों को तो छोड़ दीजिए उनके जीवन का हर फैसला और उनके दैनिक व्यवहार की हर छोटी बात सनातन धर्म को ध्यान में रखकर ही समझी जा सकती है। अपने इस तरह के फैसलों के बारे में कभी-कभी वे स्वयं भी पूरी तरह नहीं खुले। जैसे कि उनका केवल अधोवस्त्र तक सीमित रहने का निर्णय। इस बारे में उन्होंने बताया ही कि वे एक भारतीय नारी की दरिद्रता देख कर द्रवित हो गए थे। उसके पास केवल एक साड़ी थी और उसकी इस दरिद्रता से द्रवित होकर उन्होंने खुद भी एक वस्त्र में ही सीमित रहने का फैसला कर लिया। पर यह भी संभव रहा हो सकता है कि अपना पहला बड़ा आंदोलन छेड़ने से पहले गांधीजी लगभग संन्यासी जैसी स्थिति पर पहुंच जाना चाहते हों। उन्हें लगा कि भारत माता की लड़ाई का सेनापति बनने के लिए ऐसा करना जरूरी है।
उनके चैरी-चैरा वाले फैसले की अनेक व्याख्याएं की गई हैं और कई व्याख्याओं में काफी कुछ सच्चाई भी है। लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि उन्हें दोष और विघ्न में गहरा रिश्ता नजर आता है। उन्हें लगता है कि अगर उनको लड़ाई में जरा भी दोष आ गया तो उसके लक्ष्य में विध्न पैदा हो सकता है। इस विघ्न का उनको इनता ख्याल है कि वे मंगलवार का व्रत रखते हैं ओर सब जानते हैं कि मंगलवार और शनिवार यही दो दिन सप्ताह में अनिश्टकारी माने जाते हैं। उनके व्याख्याकारों ने तो उनकी गो-पूजा की भी आर्थिक व्याख्याएं ही की हैं ओर उनके व्रत-उपवास को स्वस्थ रहने की कोशिश बताया है। ऐसे व्याख्याकारों का तो कोई इलाज नहीं है।
जो लोग देश के लिए गांधीवादी विकल्प तैयार करने में लगे हैं उन्होंने गांधीजी के समूचे चिंतन को एक नया अर्थशास्त्र बनाने से अधिक महत्वपूर्ण नहीं समझा। हमारे जमाने की यह बहुत बड़ी सीमा हो गई है कि हम हर चीज को आर्थिक मान कर ही देखते हैं। अगर गांधीजी के सारे चिंतन में हमें ग्रामशिल्प ही नजर आता है तो न तो हमे उनके ग्रामोद्योग का अर्थ और उद्देश्य पता लगेगा, न उनके गांवों का और न हम उस बुनियाद तक पहुंच पाएंगे जहां से गांधीजी के आर्थिक और दूसरे सभी विचार निकले हैं। सभ्यताएं छिटपुट विचारों पर खड़ी नहीं होती और अगर हम उसे गांधीजी के छिटपुट विचारों के आधार पर खड़ा करना चाहें तो वह उस पर भी खड़ी नहीं होगी। उसके लिए तो हमें गांधीजी के विचारों के मूल स्रोत पर जाना पड़ेगा। वे खुद चाहे स्वराज्य की बात करत हों, चाहे स्वदेशी की, चाहे स्वधर्म की बात करते हों चाहे वर्ण धर्म की- उसकी व्याख्या वैदिक अर्थों में ही करते दिखाई देते हैं और इन मूलभूत विचारों की अंग्रेजों के समय तक चली आई परंपरा को दिखा देते हैं हमें भी यही करना पड़ेगा। हमें अपनी आज की समस्याओं और चुनौतियों का सीधा-सादा और कारगर इलाज मिल जाएगा। अगर हम यह देख लें कि हमारे अपने समाज मे पारंपरिक तौर पर उन समस्याओं और चुनौतियों क8ा निपटारा कैसे किया जाता रहा है। किसी पुराने जमाने में नहीं पचास सौ बरस पहले तक ही। यही सही मायने में गांधीवादी विकल्प है।
‘भारतीय सभ्यता के सूत्र’ पुस्तक से साभार