दिल्ली के लाल किला पर राजा शिव छत्रपति महानाट्य होने जा रहा है। यह महनाट्य 2 से 6 नवंबर को होगा। यह समय महत्वपूर्ण है। नगर निगम चुनाव से ठीक पहले लालकिला पर होने जा रहे राजा शिव छत्रपति महानाट्य के राजनैतिक मायने निकाले जा रहे। दरअसल इतने बड़े आयोजनों के जरिए संघ और भाजपा राष्ट्रवाद को धार देने की तैयारी कर रही है। खासकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। इस आयोजन से आगे की रणनीति को भी समझा जा सकता है।
दरअसल राजा शिव छत्रपति महानाट्य सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अगली कड़ी का हिस्सा है। इस महानाट्य की भव्यवा का अंदाज इस् बात से लगाया जा सकता है कि, इसमें 250 से ज्यादा कलाकार हिस्सा लेंगे। चार मंजिला मंच होगा। छत्रपति शिवाजी की सैन्य सक्ति को जीवंत बनाने के लिए घुड़सवारों की सेना शामिल होगी। 5000 विदेशी मेहमानों को बुलाने की व्यवस्था की गई है। उन सभी विदेशी मेहमानों को उनकी भाषा में महानाट्य को दिखाने की व्यवस्था की गई है।
आयोजन समिति दिल्ली ने दिल्ली में हिन्दू राजाओं पर एक पुस्तक का प्रकाशन करेगा। पुस्तक का लोकार्पण इस महानाट्य के मंच से होगा। हिन्दू राजाओं की युद्ध नीति, राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था के गौरवशाली इतिहास की तथ्यात्मक विवेचना पुस्तक में होगी। यह आयोजन पूरे देश के लिए हिन्दुत्व के गौरवशाली इतिहास से रूबरू कराने का एक माध्यम है। काशी कारीडोर, महाकाल कारीडोर और अयोध्या के दीपोत्सव जैसे आयोजनों के बाद हिन्दू राजाओं के शौर्य, पराक्रम और उनके गौरवशाली इतिहास को घर-घर तक ले जाने की अगली कड़ी के रूप में देखा जा रहा है।
पूरे दिल्ली में संघ परिवार के सभी संगठन इस महानाट्य को सफल बनाने में लगे हैं। दिल्ली के स्कूलों में शिवाजी पर प्रतियोगिताएं हो रही है। इन प्रतियोगिताओं 25000 छात्र हिस्सा ले रहें हैं। विदेशी मेहमानों को कोई असुविधा न हो इसके लिए दूसरे देशों के राजदूतों के साथ भी बैठके हो रही है। यह महानाट्य केजरीवाल को बीजेपी का एक जवाब भी होगा। यह महानाट्य अपने गौरवशाली अतीत से लोगों को अवगत कराएगा। छत्रपति शिवाजी के उदय और मराठा राज्य की स्थापना ने भारत के राजनैतिक वातावरण क ही बदल दिया था। यह बात अठारहवीं शताब्दी की है। मराठों का वह शासन हिन्दू शासन था, भारतीय शासन था।
छत्रपति शिवाजी के शासन ने राजधर्म की पुरानी मान्यताओं को फिर से स्थापति किया था। स्थानीय शासन को कराधान के अधिकार फिर मिल गए। जिसका लोगों के हित में उपयोग होने लगा। मंदिरों की ओर कोई बुरी नजर से आंख उठाकर भी नहीं देख सकता। मजहबी पूर्वाग्रह से न्याय करने की प्रथा समाप्त हो गई। भारतीय विद्या परंपराओं का सम्मान होने लगा। धर्माचार्यों की प्रतिष्ठा फिर से स्थापित हो गई। इस तरह अठारहवीं शताब्दी भारतीय शासन की पुनर्स्थापना की शताब्दी थी।