संपादक के तौर पर गाँधी

 

जवाहरलाल कौल

हम आज पहले ये जानने की कोशिश करते है की जिसे हम पत्रकारिता कहते है या जिसे हम मीडिया कहते है उसकी संस्कृति क्या है। तब हम ये समझ सकते हैं की गाँधी जी पत्रकार के रूप में या संपादक के रूप में कितने भिन्न थे। एक बार एक अग्रेज वाइसरॉय लिलितगोव ने गाँधी जी को अपने तर्ज़ में बताया था की गाँधी गज़ब की चीज़ थे। अब ऐसा गज़ब का उनमे क्या था असल में जो उनके सिधांत सारे मानक वो दूसरों को बताते थे वो पहले उस पर अमल करते थे। ऐसा कोई उपदेश या सलाह उन्होंने नही दी जो वो स्वयं अपने ऊपर लागु ना कर सकें। इसलिए वे जब पत्रकार बने तो उन्होंने उसका कारण स्पष्ट किया उन्होंने कहा की वो सिर्फ शौखिया तौर पर पत्रकार नही बनाना चाहते। उन्होंने बताया की जनसेवा और राष्ट्र की अभिव्यक्ति का जो काम मैंने करने का सोचा है उसको आगे बढ़ने के लिए प्रचारी प्रसारित करने के लिए मैं पत्रकार बनना चाहता हूँ। इस काम के लिए मैं पत्रकारिता को एक माध्यम के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता हु। वो यह जानते थे की पत्रकारिता जब तक सेवा करने का एक मार्ग है, एक मिशन है तभी तक उपयोगी है। जिस दिन वो रोज़ी रोटी कमाने का साधन बन जाता है उस दिन उसमे विकृतियाँ आती हैं। गाँधी जी के समय में श्रमजीवी पत्रकार नही थे। व्यावसायिक पत्रकारिता नही थी। फिर भी बड़े अखबार थे चाहे देसी हो या विदेशी।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया को लिखे अपने पहले पत्र में ही उन्होंने बता दिया था कि ‘मैं तो मानता हु कि जिनके पास साधन नही है और जन जन तक पहुचना चाहते हैं उनके लिए पत्रकारिता सबसे कारगर साधन है। और अपने लिए सेल्फ डिफेन्स का तरीका है। लेकिन उस वक़्त भी वो मानते थे की इसमें बहुत सारी खूबियों के बावजूद भी खामियां हैं। वो उस वक़्त भी यह मानते थे कि अक्सर बड़े अखबारों के संपादक बातों को तोड़ मरोड़ कर लिखते हैं, तत्थ्यों को अधुरा बताते हैं। इससे पहले की मैं ये बताऊ की गाँधी जी संपादक के रूप में कैसे थे मैं ये बताना चाहता हु की आज हम पत्रकार क्या हैं। किसी भी  अखबार को छपने और बेचने में कुल खर्चा 40 रूपए के करीब आता है। लेकिन वही अखबार 4 रूपए में बिकता है तो जाहिर है की अखबारी घराने पाठकों पर आश्रित नही है। उनको मुनाफा कमाने के लिए पाठकों से कुछ लेना देना नही है। इस काम के लिए वह विज्ञापन दाताओं पर आश्रित हैं। अगर आप देखें तो हर बड़ा अखबार अपना सालाना प्रोफाइल जारी करते हैं। जिसमे वह यह बताते हैं कि उनका पाठक किस वर्ग का है।

ज्यादातर अखबार यही बताते हैं की उनके अधिकांश पाठक स्नातक या उससे अधिक पढ़े लिखे हैं। उनके पाठक वर्ग में 1 लाख से 5 लाख आये वर्ग वाले लोग अधिक हैं और उससे कम आय वाले पाठक कम हैं। इससे वह विज्ञापन दाताओं को यह बताना चाहते हैं की जो आपका ग्रहक है वही हमारा पाठक है। ऐसी स्थिति में पाठकों के हित के बारे में अखबार क्यों सोचेंगे। अब हम गाँधी जी पर आते हैं गाँधी जी को यह अंदाज़ा तो तभी था की अगर अखबार मुनाफा कमाने के उद्येश्य से चलाया जायगा तो वह विकृत हो जायगा। पर उनको यह अंदाज़ा नही था अखबार बाज़ार पर निर्भर हो जायगा या बाज़ार ही उसको चलाएगा। जैसे जो अखबार देहातों में ज्यादा पढ़ा जाता है भले ही उसका सर्कुलेशन अधिक हो पर अधिक विज्ञापन उसी अखबार को मिलेंगे जो शहरी इलाकों में अधिक पढ़ा जाता हो।  कारण है खरीदने की क्षमता। तो बाज़ार अखबार को बदल सकता है बदलता रहता है और आगे बढ़ा सकता है। गाँधी जी को जो मिशन था उसको आगे बढाने का माध्यम अखबार था। और इसलिए उनका एक कहना था की सत्य को जनता के सामने लाने में विचार जो संपादक ठीक समझता है उसको बताने में और गरीब और कमजोर जनता के हित आवाज़ उठाने में अगर अडचने आती है अगर पत्रकार को दण्डित किया जाता है और अगर अखबार बंद भी हो जाता है तब भी संपादक को समझौता नहीं करना चाहिए।

गाँधी जी ने मजबूरी में अग्रेजी में पत्रकारिता शुरू की लेकिन वे समझते थे की बहुत लोगों तक उनका सन्देश पहुच नही पाएगा। और इस बात का एहसास उनको तब हुआ जब नवजीवन का प्रकाशन शुरू हुआ। तब ‘इंडियन ओपिनियन’ की 1200 प्रतियाँ बिकती थीं और ‘नव जीवन’ की 12000 और उनको यह भी बताया गया की यह संख्या 20000 भी हो सकती है लेकिन हमारे पास छपाई की व्यवस्था नही है। इसके बाद उन्हने यह महसूस किया की भारतीय भाषाओँ में अगर अखबार छापें तो उसके मध्यम से सन्देश किसानों तक मज़दूरों तक या कम आय वर्ग ले लोगों तक पहुच सकता है। और उनकी इच्छा थी की भृत्य भाषाओँ में पत्रकारिता करे और उसमे लिखे। आज भी अगर हम देखें तो हिंदी के अख़बारों का वितरण अग्रेजी के अखबारों से बहुत अधिक है।

गाँधी जी मानते थे की एक संपादक को अपने विचार व्यक्त करते हुए शिष्ट सोम्य और ऐसी भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए जो किसी को आहत ना करे। दो अंग्रेज अफसरों ने यह बयां दिया की भारतीय राष्ट्रवादियों को ये समझ लेना चाहिए की उन्हें आज़ादी अभी नही मिलेगी बहुत देर से भी नही मिलेगी कभी नही मिलेगी। अब गाँधी जी के लिए यह वक्तव्य एक बहुत बड़ी चुनौती थी। उन्होंने इस पर एक बहुत सख्त एडिटोरियल लिखा। उन्होंने लिखा कि दुनिया में जितनी भी ज़ालिम और दूसरों का दमन करने वाली जो सरकारे हुई हैं वो ज्यादा दिन तक नही चली हैं। और मैं इन दोनों महँ अफसरों को यह बता देना चाहता हूँ कि ब्रिटिश सरकार जो ऑर्गनआइज़ड ब्रुटेलिटी और ऑर्गनआइज़ड एक्सप्लॉइटेशन पर टिकी हुई है भी जल्द ही जायगी। आम तौर पर गाँधी जी इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल नही करते थे पर उहे लगा की इस बात का जवाब बहुत सख्ती से देना चाहिए तो उन्होंने दिया। एक संपादक  का काम सिर्फ सम्पादकीय लिखना ही नही होता। अख़बार में छपने वाली सामग्री को नियंत्रित करना भी होता है। और इसीलिए वो मानते थे की जहाँ विरोध करना है वही विरोध करो। गाँधी बहुआयामी हो गये। उनका जो मिशन था उसका एक ही आयाम था की भारत आज़ाद हो। लेकिन उनके बहुत से आयाम है। जैसे जब वो अस्पर्शता को समाप्त करने की  बात करते हैं जब वो साफ़ –सफाई की बात करते है, जब वो खादी की बात करते है, जब वो ग्रामोद्योग की बात करते है। क्योंकि गाँधी जानते थे कि अंग्रेज चले भी जाये तो भी हम वो लक्ष्य प्राप्त नही कर सकते जो उनका लक्ष्य था। वो तब हो सकता है जब समाज भीतर से बदले।

साऊथ अफ्रीका जहाँ से गाँधी ने  पत्रकारिता शुरू की थी वह उन्होंने ‘सेल्फ डिफेन्स’ की पत्रकारिता की थी। साऊथ अफ्रीका में छोटा सा भारतीय समाज था जो पीड़ित था। गाँधी जी ने उनकी पीड़ा में साथ  देने का फैसला लिया था। पर भारत में बात अलग थी। भारत बड़ा राष्ट्र था। यहाँ की व्यवस्थाएं अलग थीं। भारतीय समाज एक बहुत बड़ा और बहुआयामी समाज था। उस बहुत बड़े समाज को जोड़ने के लिए उसे इस लायक बनाने के लिए की  वो एक विशाल साम्राज्य को चुनौती दे। गाँधी के लिए आवश्यक था कि वो पत्रकारिता के अलग-अलग आयामों में प्रवेश करे। बहुआयामी पत्रकारिता उनकी पहचान है। जितनी भी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन उन्होंने किया वो एक दुसरे से काफी भिन्न थीं पर भिन्न होते हुए भी उनमे एक समानता थी। गाँधी की छाप, उनकी सम्पादकीय दृष्टि, उनका राष्ट्रीय मिशन। यह सब एक तरह का था।

ऐसे समय में जब हम गाँधी की पत्रकारिता की बात करते है। आज की पत्रकारिता के सम्बन्ध में मैंने आपको बताया। क्या हम गाँधी जी के विचारों की पत्रकारिता कर सकते है। क्या गाँधी जी के सम्दाकृत्तव (संपादन कला) से कुछ सीख सकते हैं, क्या यह संभव है। सभव है पर गाँधी जी के उदेश्यों को साकार करने वाली पत्रकारिता के लिए एक बहुत बड़ी क्रांति की ज़रूरत है। क्योंकि मीडिया टीआरपी वाली इस पत्रकारिता से ये सम्भव नही है। इस तरह की पत्रकारिता से हम राष्ट्रीयता या मानवता या गरीबो के हित की कामना नही कर सकते। गाँधी आज भी प्रासंगिक इसलिए है क्योंकि हम गाँधी को आज भी जीवित देखना चाहते हैं। उनके मिशन को पुनर्जीवित हारना चाहते हैं क्योंकि ऐसा ना होने पर यह चौथा स्तंभ खड़ा नही रह सकता। लोकतंत्र को मजबूती देने वाला यह स्तंभ उसे मजबूत करने के बजाय और कमज़ोर कर देगा।

 

 

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