यह तो कहीं-कहीं छपा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि पटेल जयंती आयोजित करने वाला मैं कौन होता हूं।’ लेकिन यह नहीं छपा है कि उन्होंने सभागार में उपस्थित सैंकड़ों लोगों के जरिए पूरे देश से अपील की कि वे सरदार पटेल पर बनी डिजिटल प्रदर्शनी सपरिवार देखने का वक्त निकालें। इसे संस्कृति मंत्रालय ने बनवाया है। जिसका उद्घाटन 31 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। यही अवसर था जब उन्होंने एक खास बात कहीं। वह यह कि सरदार पटेल के कारण भारत आज एक है। उनके कौशल ने अंग्रेजों की चाल को विफल कर दिया। अंग्रेज तो भारत को कई टुकड़ों में बांटने का इंतजाम करके गए थे। उस समय 562 रियासतें थी। वे अपना निर्णय स्वयं कर सकती थी। जिन्हें सरदार पटेल ने भारत में मिलाया।
हर नागरिक अब सरदार पटेल के महान कामों के बारे में जानने लगा है। अब तक उनकी उपेक्षा होती रही है। यह बात भी धीरे-धीरे उजागर होने लगी है कि कांग्रेस ने बीते बहुत सालों में जानबूझकर सरदार पटेल की उपेक्षा की और कराई। केंद्र की कांग्रेस सरकार ने उनके जन्म दिन को एक महापुरूष की याद में जैसा उत्सव के रूप में मनाया जाना चाहिए वैसा कभी नहीं मनाया। वह सिलसिला अब षुरू हुआ है। कुछ सामाजिक संस्थाएं अवष्य हर 31 अक्टूबर को सरदार पटेल जयंती मनाती रही हैं। दिल्ली का नागरिक परिषद उनमें से एक है। जिसे जनसंघ के नेता कवर लाल गुप्त ने बनाया था। उनकी अगुवाई में हर साल पटेल चैक पर यह आयोजन होता रहा है। जिसे बाद में नई दिल्ली नगर पालिका ने अपने जिम्मे ले लिया।
इस बार की पटेल जयंती राजधानी में कुछ खास रही। डिजिटल प्रदर्शनी के उद्घाटन का समारोह था तो सरकारी पर बन गया बहुत ही असर-कारी। यानी प्रभावी। लोग उमड़ कर आए। हालांकि संस्कृति मंत्रालय ने निमंत्रण पत्र की व्यवस्था कराई थी और उसे सुलभ कराया। प्रधानमंत्री की उपस्थिति से सुरक्षा संबंधी जो तामझाम होता है वह लोगों के उत्साह को ठंडा नहीं कर सका। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही वह अक्सर भुला दी जाती है। उन्होंने कहा कि ‘ज्यादातर सूबे पटेल को पीएम बनाना चाहते थे। लेकिन सरदार साहब ने गांधीजी की इच्छा का सम्मान किया। इसलिए नेहरू प्रधानमंत्री बने।’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक ऐतिहासिक भूल की ओर इषारा कर रहे हैं। उसे महात्मा गांधी ने की। इससे दो कटु यथार्थ घटित हुए। जो सरदार पटेल के प्रधानमंत्री बनने से न होते। पहला कि कश्मीर समस्या तब ही हल हो जाती। दूसरा कि भारत जिस आर्थिक ढोंग के रास्ते पर नेहरू के कारण बढ़ा और पिछड़ता ही गया वह न होता। आखिर नेहरू प्रधानमंत्री कैसे बने? संदर्भ क्या था? किस तरह घटनाओं ने मोड़ लिया? सरदार पटेल और नेहरू की तब क्या भूमिका थी? ये कुछ सवाल हैं जो अनुत्तरित नहीं हैं। इसके बारे में सबसे प्रामाणिक विवरण महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने अपनी पुस्तक ‘पटेल, ए लाइफ’ में दिया है। यह पुस्तक सरदार पटेल की जीवनी है।
बात 1946 की है। उस समय मौलाना अब्दुल कलाम आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे। दूसरे विश्व युद्ध और कांग्रेस नेतृत्व के बंदी हो जाने के कारण अध्यक्ष का चुनाव टलता रहा। आजाद छः साल अध्यक्ष बने रहे। उस समय सवाल आजाद के उत्तराधिकारी का नहीं था। यह था कि जो अध्यक्ष बनेगा वही गर्वनर जनरल की काउसिंल का उपाध्यक्ष बनेगा। यानी भारत का प्रधानमंत्री। कांग्रेस पार्टी सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में थी। सरदार का पार्टी में नेहरू से कोई मुकाबला ही नहीं था। इसका एक बड़ा कारण था। 1942 के भारत छोड़ों आंदोलन में सरदार जितने साफ और निर्णायक बने थे उतने नेहरू खुद को साबित नहीं कर पाए। वे ढुलमुल थे। आजादी के आंदोलन का वह निर्णायक दौर ताजा ही ताजा था। जिसकी क्रांतिकारी स्मृति में सरदार पटेल महानायक थे। वे छाए हुए थे। इन्हीं भावनाओं के वषीभूत कांग्रेस की 15 प्रदेश कमेटियों में से 12 ने सरदार पटेल के लिए अपने नामाकंन भेजे थे। नेहरू का नाम कहीं से नहीं आया था।
ऐसी स्थिति में सरदार पटेल स्वाभाविक विजेता थे। अगर महात्मा गांधी ने हस्तक्षेप न किया होता। उस समय कांग्रेस के महासचिव थे, आचार्य जे.बी. कृपलानी। महात्मा गांधी की इच्छा वे जानते थे। इसलिए उन्होंने कार्यसमिति में एक कागज घुमाया। वह नेहरू के नामांकन का था। वह मामला गांधीजी के सामने प्रस्तुत हुआ। उन्होंने नेहरू को वस्तुस्थिति से परिचित कराया। बताया कि ‘तुम्हारा नाम कहीं से नहीं आया है।’ नेहरू यह जानते थे कि प्रदेश कमेटियों ने सरदार का नाम भेजा है। वे गांधी के बताने पर देर तक चुप्पी साधे रहे। महात्मा गांधी ने उन्हें सोचने के लिए एक अवसर दिया। नेहरू के सामने सीधा सा विकल्प था। वे सरदार को अध्यक्ष स्वीकार करते। उनके सहयोगी के रूप में काम करने के लिए तैयार हो जाते। उनकी चुप्पी दूसरा संदेश दे रही थी। जिसे गांधी ने समझा।
फिर गांधी ने सरदार पटेल को कहा कि उस कागज पर दस्तखत कर दो। सरदार ने गांधी जी का आदेष माना। रंच मात्र विरोध नहीं किया। यह थी उनकी अनुशासन प्रियता। अवश्य ही उन्होंने सोचा होगा कि अब शायद ही उन्हें भारत सरकार के नेतृत्व का अवसर मिले। तब वे 71 साल के हो रहे थे। उनके इस कदम से नेहरू निर्विरोध अध्यक्ष बने। बात मई 1946 की है। उसी से कुछ महीने बाद नेहरू भारत के प्रधानमंत्री बन पाए। दुर्गादास ने अपनी पुस्तक- ‘इंडियाःफ्राम कर्जन टू नेहरू’ में डा राजेंद्र प्रसाद की इस पर टिप्पणी का उल्लेख किया है। तब डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था-‘फिर एक बार महात्मा गांधी ने अपने भरोसेमंद सहयोगी को अवसर से वंचित कर नेहरू को महिमामंडित किया है।’ ऐसा ही मत पूरी कांग्रेस का था। 1929 में भी गांधीजी ने मोतीलाल नेहरू के कहने पर सरदार पटेल के बजाए नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया था। उसी तरह 1939 में गांधी के कहने पर सरदार पटेल ने मौलाना आजाद के लिए अध्यक्ष पद से अपने को दूर कर लिया था। ऐसे थे, सरदार पटेल। त्याग की मूर्ति।