पांचवीं कक्षा तक की पढ़ाई गांव में कर लेने के पश्चात् वे उच्चशिक्षा हेतु अपने बड़े भाई के साथ नासिक चले आए। नासिक में विनायक अपनी समान आयु के छात्रों की एक मित्र-मंडली बनाकर उन्हें राष्ट्रीय गीतों एवं विचारों से अभिभूत करने लगे। 10 वर्ष की आयु से ही इन्होंने मराठी कविताएं लिखनी प्रारंभ कर दी थीं एवं पूना के प्रसिद्ध समाचार-पत्र उन्हें प्रकाशित भी करने लगे। विनायक अपने साथियों के साथ -‘केसरी’ आदि राष्ट्रीय विचारों के समाचार-पत्रों को मंगाकर देश की स्थिति के बारे में विचार करते थे। इन दिनों अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध महाराष्ट्र में एक लहर दौड़ रही थी।
ऐसे वातावरण में 1897 ई. में पूना में प्लेग की भयंकर बीमारी फैल गई। पूना के अंग्रेज अधिकारियों द्वारा प्लेग की रोकथाम के लिए विशेष कदम न उठाए जाने के फलस्वरूप चाफेकर बंधुओं ने उन्हें गोली से उड़ा दिया किंतु द्राविड़ बंधुओं की विश्वासघात से चाफेकर बंधु पकड़े गए एवं फांसी पर लटका दिए गए। इस समय ये भगूर में ही थे एवं जब यह समाचार पढ़ा तो इस घटना ने इनके हृदय में अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह के बीज पैदा कर दिए, ये व्यथित हो उठे। इनका देशभक्त बालहृदय क्रोध से कांप उठा-‘स्वदेश पर हुए अत्याचार का बदला लेकर चाफेकर बन्धु फांसी चढ़ गए। उनकी प्राणज्योति से प्रज्वलित हुई शत्रुंजय वृत्ति में सतत समिधा डालकर उसे ऐसी ही जलती रखना है तो इसका उत्तरदायित्व हम पर भी आता है, सोचने के इन क्षणों में ये अपनी कुलदेवी दुर्गा की प्रतिमा के सामने जा खड़े हुए एवं दृढ़ प्रतिज्ञा ली-
‘‘देशाचे स्वतंत्र्य परत मिळलण्यासाठी सशस्त्र
क्रांतीचा केतू उभारून मी मारिता मारिता मरेतो झुंजेना!’’
‘देश की स्वाधीनता के लिए जीवन के अंतिम क्षणों तक सशस्त्र क्रांति का झंडा लेकर जूझता रहूंगा।’ और यहीं से शुरू हो गई इनकी स्वाधीनता की अखण्ड लड़ाई।
क्रांतिकारी संगठन
विनायक अब नासिक लौट आए एवं अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए योजनाएं बनानी आरंभ कर दी। इन्होंने अपने बड़े भाई के दो नए साथी म्हास्कर एवं पग्गे, जो परांजपे के क्रांतिकारी विचारों से अभिभूत थे किंतु प्रत्यक्ष क्रिया में वे तिलक के नजदीक थे, को अपने भाषणों एवं विचारों के दीर्घ प्रयासों के फलस्वरूप अपने निकटतम सहयोगी बनाकर देशभक्त समूह नामक गुप्त संस्था का 1899 ई. में श्रीगणेश किया जो आगे चलकर 1900 ई. में मित्र मेला के नाम से प्रसिद्ध हुई। नासिक के एक दैनिक पत्र ‘नासिक वैभव’ में इन्होंने ‘हिंदुस्तान का वैभव’ शीर्षक से दो बार संपादकीय लिखे जिसकी स्वयं तिलक एवं परांजपे ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। नासिक के आसपास का सारा प्रदेश इनके तेज से अभिभूत हो गया एवं राष्ट्रीय गीतों से गद्गद हो गया। किंतु इसी समय इनके परिवार को फिर दुर्भाग्य ने आ घेरा। 1899 ई. में ही इनके पिता एवं चारा प्लेग की महामारी से मर गए एवं छोटा भाई नारायणराव भी प्लेग से बीमार हो गया जिसे नासिक ले जाया गया, वहां गणेशराव स्वयं उनकी देखभाल करते थे, किंतु एक दिन वे भी इस बीमारी से अछूते नहीं रहे। यह समाचार जब सावरकर को मिला तो ये रो पड़े किंतु अपनी भाभी को इसकी खबर तक नहीं दी। प्रभु कृपा से आखिर दोनों भाई स्वस्थ लौट आए, तब ही विनायक का मन शांत हुआ।
इन्होंने छात्रों को एकत्रित करके ‘मित्र मेला’ के तत्वावधान में गणेशोत्सव, शिवाजी महोत्सव आदि कार्यक्रम आयोजित करके युवकों में सशस्त्र क्रांति का प्रचार आरंभ कर दिया। सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषणों द्वारा युवकों को प्रभावित कर अपने दल का सदस्य बना लिया। 1901 ई. में जब इंग्लैंड की रानी विक्टोरिया का देहान्त हुआ तो अपनी राजनिष्ठा व्यक्त करने हेतु सारे भारत में शोक-सभाएं मनाई जाने लगीं। इनके साथी म्हास्कर व पग्गे भी जब इससे सहमत हो गए तो इन्होंने ‘मित्र मेला’ की एक बैठक में इन शोक-सभाओं का कड़ा विरोध करते हुए कहा-‘‘राजा हो या रानी, वह किसकी है यह प्रश्न है? इंग्लैंड की रानी यानी हमारे शत्रु की रानी। इसलिए ऐसे अवसर पर राजनिष्ठा व्यक्त करना, यह राजनिष्ठा नहीं, यह तो गुलामी की गीता का पाठ पढ़ाने सदृश है।’ इसी प्रकार ये एक बार कोथुर की एक जनसभा में एक नेता का भाषण सुन रहे थे। उस नेता ने एडवर्ड सप्तम को ‘हमारे पिता’ कहकर संबोधित किया। इन शब्दों को सुनने के साथ ही ये तिलमिला उठे एवं एक घंटे के भीतर उस गांव की दीवालों पर इस घटना का जिक्र देते हुए इन्होंने पोस्टर चिपका दिए एवं पूछा कि-‘तो तुम्हारे इस पिता का तुम्हारे मां के साथ क्या संबंध है?’ यानी इनके विचार इतने उग्र एवं प्रभावी थे कि सब इन्हें अपना नेता मानने लगे। धीरे-धीरे जब ये समाचार-पत्रों में प्रकाशित हुए तो तिलक जी के मुंह से यह अकस्मात् ही निकल पड़ा-‘लगता है महाराष्ट्र में शिवाजी ने पुनः जन्म ले लिया है।’…….