स्वामी दयानंद सरस्वती ने सत्य पर प्रकाश डाला। एक पुस्तक बनाई। वह सत्यार्थ प्रकाश है। महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग कहा। इन दोनों पुस्तकों में सत्य समान रूप से है। उसकी कथन शैली अलग-अलग है। इन दोनों का समय भी अलग-अलग है, लेकिन प्रयोजन एक है कि सांस्कृतिक चेतना भारत में जगे। स्वामी दयानंद सन्यासी थे। महात्मा गांधी ने सन्यास को अपने जीवन में उतारा। क्या कोई राजनेता भी उस परंपरा को स्वतंत्र भारत के राज-काज में अपना सकता है? यह प्रश्न शुरू से है। 28 मई, 2023 की तारीख इसका उत्तर देती है। राजनीति का सांस्कृतिक उत्थान उस दिन संसद के नए भवन में घटित हुआ। देश -दुनिया ने देखा और पहचाना कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के लोकतंत्र को भारतीयता के सनातन सत्य पर स्थापित कर दिया है।
आजादी के अमृत काल की यह सगुण घोषणा है। अमृत महोत्सव का यह अगला कदम है। अमृत महोत्सव ने देश के जन-मानस को स्वतंत्रता संग्राम से परिचित कराया। स्वतंत्रता के सर्वांग-अर्थ महोत्सवों में प्रकट हुए। लोगों ने उसे समझा और जाना। फिर शुरू हुआ अमृत काल। इसका एक पड़ाव 2047 होगा। इस अमृत काल की शुरूआत नए संसद भवन से हुई है। यह असाधारण कार्य है, जो संपन्न हुआ है। नए संसद भवन के निर्माण ने हर भारतीय को आत्म गौरव का अनुभव कराया है। कौन सोच सकता था कि तमिलनाडु से एक रहस्य उजागर होगा! तमिल अखबारों को सच उजागर करने का श्रेय है।
बहुत पढ़े-लिखे हैं, जयराम रमेश । वे कांग्रेस के प्रवक्ता हैं। किसी मजबूरी में हैं। नहीं तो वे नहीं पूछते कि सत्ता हस्तांतरण में तमिलनाडु के एक प्रमुख शैव मठ की महत्वपूर्ण भूमिका थी? वे यह भी नहीं पूछते कि उसके दस्तावेजी सबूत कहां हैं? उन्हें अब तक इस का उत्तर मिल गया होगा। थिरूवावाडुथिरै मठ ने स्पष्ट कर दिया है कि उनके सन्यासी 14 अगस्त, 1947 को राजदंड सौंपने दिल्ली पहुंचे थे। जयराम रमेश को अपनी भूल स्वीकार कर देश से माफी मांग लेनी चाहिए। तथ्य यह है कि सत्ता हस्तांतरण की पावन प्रक्रिया को विधि-विधान से शैव परंपरा के इस प्रमुख मठ के सन्यासी ने संपन्न कराया। उस समय का एक चित्र है। जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू पीताम्बरी ओढ़े हुए हैं और उनके हाथों में स्वर्णजटित राजदंड है। वह सत्ता हस्तांतरण का प्रतीक है। उनके दाहिनी ओर एक व्यक्ति गांधी टोपी पहने और चश्मा लगाए खड़ा है। वे हैं, डा. पी. सुब्रायन। कांग्रेस के इस जाने-माने नेता को चक्रवर्ती राज गोपालाचारी ने थिरूवावाडुथिरै मठ से संपर्क कर सहयोग लेने की जिम्मेदारी सौंपी थी।
उसका एक इतिहास है। वह अब हर आदमी जानता है। लार्ड माउंटबेटन वायसराय थे। उन्हें वह कार्य संपन्न करना था, जिसे सत्ता का हस्तांतरण कहते हैं। संविधान सभा की कार्यवाही में सिर्फ यही दर्ज है कि अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने घोशणा की कि ‘संविधान सभा शासन का अधिकार ग्रहण करती है।’ इस प्रकार विधिवत सत्ता का हस्तांतरण हुआ माना जाता रहा है। नए संसद भवन ने उसे भी उजागर कर दिया है जो इतिहास के अंधेरे में छिपा दिया गया था। सच यह है कि ब्रिटेन के राजपरिवार में सत्ता के हस्तांतरण का एक तरीका है। उससे परिचित लार्ड माउंटबेटन ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से पूछा कि भारत में इसकी परंपरा क्या रही है। इससे अनभिज्ञ पंडित नेहरू ने राजाजी की शरण ली। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने उन्हें चोल राजवंश की परंपरा बताई। उन्होंने ही अपने एक सहयोगी डा. पी. सुब्रायन को इस कार्य में लगाया। वे स्वयं तो उस अवसर पर उपस्थित नहीं थे क्योंकि उन्हें 15 अगस्त, 1947 को बंगाल के राज्यपाल का पद संभालना था। जिसकी घोशणा करीब 12 दिन पहले हो चुकी थी। लेकिन राजाजी के निर्देश पर जो रस्म पूरी की गई वह डा. राजेंद्र प्रसाद के निवास पर संपन्न हुई। जिसे उस समय इंडियन एक्सप्रेस, स्टेट्समैन, हिन्दुस्तान टाइम्स, द हिन्दू आदि ने अपनी खबरों में छापा।
वह इतिहास विलुप्त सा हो गया था। नए संसद भवन की कला सज्जा पर मंथन की प्रक्रिया में उसे खोजा जा सका। इसका परिणाम यह हुआ कि एक नया इतिहास रचा जा सका। जिसे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने छिपाया। उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महत्व दिया। 1947 में वह रस्म निजी बन गई। जो राजदंड पंडित नेहरू ने सन्यासी से प्राप्त किया, उसका वे महत्व समझ नहीं सके। इसीलिए उसे उन्होंने कुछ दिनों तक अपने घर रखा और उसके बाद इलाहाबाद संग्रहालय को सौंप दिया। संग्रहालय में वह एक वस्तु के रूप में था। राजदंड के शिखर पर तमिल में कुछ पंक्तियां अंकित हैं। उन्हें पढ़ने की कोई कोशिश भी नहीं हुई। भारत के संस्कृति मंत्रालय ने राजदंड का महत्व उन्हें समझाया।
तब और अब में जमीन-आसमान का अंतर है। अपने सामने दो तस्बीरें रखिए। अंतर साफ-साफ दिखता है। 1947 में पंडित नेहरू अजीब दिख रहे हैं। उनकी भाव मुद्रा एक पहेली है। बड़े बेमन से वे उस राजदंड को पकड़े हुए हैं। शायद सदियों पुरानी भारत की राज्य व्यवस्था से वे अपना मेल नहीं बैठा पा रहे हैं। दूसरी तस्बीर 2023 की है। जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राजदंड (सेंगोल) को दोनों हाथ से प्रणाम की मुद्रा में पकड़े हुए हैं। उन्हें एक सन्यासी ने वह राजदंड विधि-विधान से संपन्न कर सौंपा। 1947 में एक मठ के सन्यासी थे। इस बार तमिलनाडु के 21 यानी सभी प्रमुख मठों के प्रतिनिधि सन्यासी थे। प्रधानमंत्री के एक तरफ दस और दूसरी तरफ 11 सन्यासी खड़े थे। उस राजदंड को जमीन पर लेटकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे समर्पण से प्रणाम कर रहे हैं। उस अवसर पर सर्वधर्म प्रार्थना भी हुई। प्रधानमंत्री की यह मुद्रा पवित्रता, समर्पण और भारत की सत्ता परंपरा में विनम्रता की द्योतक है। उस समारोह में एक विशेष बात भी हुई। जिसका महत्व थोड़े लोगों ने समझा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दोनों हाथ से राजदंड को पकड़े हुए विधिवत वहीं पर परिक्रमा भी की। यह वही कर सकता है, जो गहरे रूप में आस्थावान हो। उसका महत्व समझता हो। जिसको अपने पर भरोसा हो। दुनिया क्या कहेगी, इसकी जिसे परवाह न हो। जिसे अपनी राह पता हो।
उसी दिन भारतीय शासन प्रणाली का सनातन सत्य स्थापित हुआ। जहां राजदंड रहना चाहिए वहां वह अब विराजमान हो गया है। उसका वनवास उस दिन समाप्त हुआ। संग्रहालय में जो उपेक्षित सा रखा गया था, वह वहां पहुंचा, जहां भारत का नया लोकतंत्र का भवन बना है। उसे लोकतंत्र का मंदिर भी कह सकते हैं। नीति और नियमन की वह याद दिलाता रहेगा। सबसे खास बात यह भी है और जिसे बार-बार स्मरण करने की जरूरत है कि वह राजदंड तमिल परंपरा से देश की राजधानी में पहुंचा है। इस प्रकार भारत की एकता-एकात्मता के रक्षाबंधन का भी वह प्रतीक है। इससे परस्परता की एक कड़ी जुड़ी है। संस्कृति मंत्रालय के प्रतिनिधि जिन दिनों तमिलनाडु के शैव मठों में गए और वहां सन्यासियों से मिले तो उन्हें भरपूर सहयोग मिला। वे यह अनुभव कर सके कि उन शैव मठों के स्वामियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति बहुत आत्मीयता का भाव है। जिस आस्था से वे जीवन जीते हैं वही उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में भी दिखता है। यह भी एक कारण था कि हर मठ ने भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय का निमंत्रण कृतज्ञता के भाव से स्वीकार किया। संस्कृति मंत्रालय के प्रतिनिधि से बातचीत में ज्यादातर सन्यासियों ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी धर्म के रक्षक हैं। वह धर्म जो सब को धारण करता है।
उस राजदंड को समारोह पूर्वक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नए लोकसभा सदन में अध्यक्ष के आसन के करीब स्थापित किया। उस राजदंड में एक संदेश समाहित है। भारत में शासन एक मौलिक आदर्श से चलता रहा है। उस आदर्श की स्थापना कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान से निकली राज्य व्यवस्था को भारत के उन गौरवशाली क्षणों से जोड़ दिया है जिसे हम अपनी आत्महीनता में भुला चुके थे। सही मायने में लोकतंत्र के जीवनमूल्य की उस दिन स्थापना हो गई। वह यह कि जन प्रतिनिधियों को अपने लिए लोकतंत्र के मूल नियम समझ लेना चाहिए। नेहरू युगीन भारत और मोदी युगीन का अंतर समझने के लिए इन दोनों तस्बीरों को बार-बार देखा जाना चाहिए।
पहली तस्बीर भ्रम और भ्रमित अवस्था की है। दूसरी तस्बीर अपने मूल से जुड़ने और उस राह पर चलने की है जिससे आत्मनिर्भर और समृद्ध भारत अपनी वैश्विक भूमिका बखूबी निभा सकता है। इसीलिए उस दिन अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मविश्वास से कहा कि यह इतिहास का अमिट पल है। वे सच ही कह रहे थे। इस छोटे से वाक्य में आजादी की लड़ाई और उसकी आकांक्षा का इतिहास छिपा है। इतना ही नहीं, बल्कि जैसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि आत्मनिर्भर भारत और विकसित भारत के संकल्पों के सूर्योदय का यह नया संसद भवन साक्षी बनेगा। यह विश्व के विकास का भी आह्वान करेगा। जो योजना को यथार्थ से, नीति को निर्माण से, संकल्प को सिद्धि से जोड़ सकेगा।
महान साहित्यकार डा. रामधारी सिंह दिनकर ने पांच वर्षों के गहन शोध से एक ग्रंथ बनाया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उसकी प्रस्तावना लिखी। वह चर्चित ग्रंथ है, ‘संस्कृति के चार अध्याय।’ इसमें इतिहास के आदिकाल से 1947 तक की संस्कृति का वर्णन है। पंडित नेहरू की प्रस्तावना को के.एम. मुंशी ने भारतीय विद्या भवन की पत्रिका में छापा। इसके बाद उन्होंने कांची के परमाचार्य चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती से अनुरोध किया कि वे पंडित नेहरू की प्रस्तावना पर अपनी टिप्पणी लिखें। उन्होंने लिखा। जो अबएक पुस्तिका के रूप में उपलब्ध है। पंडित नेहरू की प्रस्तावना में समस्या है और कांची के स्वामी की टिप्पणी में समाधान है। डा. रामधारी सिंह दिनकर अगर आज होते तो वे एक नई पुस्तक लिखते। उसे संस्कृति का पांचवां अध्याय बताते। राजदंड की स्थापना से वास्तव में संस्कृति का पांचवां अध्याय प्रारंभ हुआ है।