अमूमन हर चुनाव की ऐन बेला पर किसी न किसी राजनेता का यौन प्रकरण उछलता ही रहता है। इस बार तृणमूल सांसद लावण्यवती महुआ मोइत्रा की संसदीय घटना खूब प्रचारित हुई। मगर वह आर्थिक अपराध वाली थी। हालांकि उनकी पार्टी के ही कद्दावर नेता माफिया डॉन मियां शाहजहां शेख का नाम खूब चल रहा है। उस पर महिला यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप हैं। पर वह चुनाव का प्रचारक है, प्रत्याशी अभी नहीं। सरसरी तौर पर एक उदगार याद आया 87-वर्षीय सांसद मियां मुहम्मद फारूक अब्दुल्ला का 2021 वाला। जम्मू के एक पुस्तक विमोचन समारोह (17 जनवरी) में वे बोले : ”जब से यह महामारी (कोविड) आई है, मैं अपने शरीके—हयात (जीवन संगिनी) का बोसा नहीं ले पाया हूं। आलिंगन तो दूर की बात है।” सभागार ठहाकों से गूंज उठा। (नवभारत टाइम्स, लखनऊ, 18 जनवरी 2021, अन्तिम पृष्ठ,12,आठवां कालम)।
अनायास याद आ गयी राज्य सभा के चुम्बन पर चली एक पुरानी रोचक बहस (शुक्रवार, 27 फरवरी, 1970)। चौवन वर्ष हुए। इसमें तब साठ साल पार कर चुके सांसदों ने चुस्कियां लेते हुये चुंबन पर विचारों का दिनभर आदान—प्रदान किया था। सदन में विषय था : “क्या चित्रपट पर चुम्बन का दृश्य हो ?” न्यायमूर्ति जीडी खोसला आयोग की रपट मेज पर रखी गयी थी। फिल्म सेंसर बोर्ड के गठन की आवश्यकता पर बहस हो रही थी। इसमें कम्युनिस्ट, प्रजा सोशलिस्ट, संगठन कांग्रेस आदि के सांसद वक्ताओं में थे। अध्यक्षता उपराष्ट्रपति न्यायमूर्ति (रिटायर्ड) गोपाल स्वरुप पाठक कर रहे थे। वे स्वयं 75 पार कर चुके थे। उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायमूर्ति रहे थे। इलाहाबाद में नेहरु परिवार के वकील रहे। चर्चा खुलकर हो रही थी। तभी प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बांका बिहारी दास ने सुझाया कि पचास वर्ष से ऊपर, अर्थात अधेड़ सदस्य, प्रश्न न पूछें। उनको प्रतिबंधित कर दिया जाये। इस पर संगठन (एस. निजलिंगप्पा की अध्यक्षता वाली) कांग्रेस ने विरोध दर्ज किया। उनका सुविचारित सुझाव था कि रुमानियत हेतु कोई आयु सीमा नहीं होती। उनकी राय में वस्तुत: पचास साल पर ही रुमानी भाव प्रस्फुटित होते हैं। इस पर फुर्ती से 68—वर्षीय (1902 में जन्में) अजित प्रसाद जैन (चन्दौसी) ने रहस्योद्घाटन किया कि साठ के पश्चात ही तो रंगीला मिजाज उपजता है। अर्थात इश्क का सठियाने से कोई सिलसिला नहीं है। बुजुर्गियता की यह नूतन परिभाषा लगी। जैन साहब यूपी में खाद्य मंत्री रह चुके थे तथा कर्नाटक के राज्यपाल भी थे।
इतनी देर तक गुदगुदाती, हृतंत्री को निनादित करने वाली परिचर्चा को सुनकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के (1952 से प्रथम राज्य सभा के सांसद रहे) कामरेड भूपेश गुप्ता (पश्चिम बंगाल) क्यों बगले झांकते? क्यों पिछड़ते? उनकी राय थी कि, ”हम उम्रदराज सांसदों को युवा पीढ़ी से प्रतिस्पर्धी नहीं करनी चाहिये। रुमानी दौर उनका है। हमारा तो बीत चुका है।” तब अध्यक्ष पीठ से न्यायमूर्ति गोपाल स्वरुप पाठक ने भूपेश गुप्ता को टोका कि ”आप की इस उक्ति से सदन में कोई सहमत होगा ?”
इस पर कई सदस्यों ने ठिठोली की। दखल भी दिया कि, ”भूपेश गुप्ताजी तो आजीवन अविवाहित है, उन्हें चुम्बन प्रक्रिया से कैसा सरोकार? आपको क्या तजुर्बा?” देरतक नोक झोंक होती रही। मसला था कि ब्रह्मचारी (अविवाहित) व्यक्ति चूंकि इस आकर्षक क्रिया के स्वाद से अनभिज्ञ है, अत: बहस में भाग लेने से दूर कर दिया जाये। वही मानस का कथन : ”बांझ क्या जाने प्रसव पीड़ा?”
अब तनिक विवेचन करें कि आखिर यह है क्या बला? परिभाषा क्या है? पढ़िये : ”चुम्बन किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु को होठों के स्पर्श करने अथवा लगाने की क्रिया हैं। चुम्बन के सांस्कृतिक अर्थ व्यापक रूप से भिन्न होते हैं। संस्कृति और संदर्भ के अनुसार, एक चुम्बन, अन्य कई भावों में से, प्यार, जुनून, प्रणय, यौन आकर्षण, कामुक गतिविधि, कामोत्तेजना, स्नेह, आदर, अभिवादन, मित्रता, अमन और खुशकिस्मती के भावों को दर्शा सकती हैं। कुछ परिस्थितियों में, चुम्बन एक अनुष्ठान होती हैं, अथवा औपचारिक या प्रतीकात्मक संकेत होती हैं, जो भक्ति, सम्मान या संस्कार को दर्शाती हैं।”
राज्यसभा में सांझ ढलेने तक चली इस बहस में एक विशेष गिला दीर्घा में विराजे दर्शकों की थी। हिन्दी—उर्दूभाषी राज्यों से सौ के लगभग सदस्य थे। मगर काव्यमय या शेरोशायरी वाला तत्व अभिव्यक्त नहीं हो पाया। मसलन अतिरंजनभरा एक जानामाना शेर है:” क्या नजाकत है कि आरिज उनके नीले पड़ गये, मैंने (शायर ने) तो बोसा लिया था ख्वाब में तस्वीर का” !
अब एक किस्सा हमारे लखनऊ प्रेस क्लब का है। एक बार चिरकुमार अटल बिहारी वाजपेयी ने हम से कहा कि : ”पत्रकारों और राजनेताओं का चोली—दामन का साथ होता है।” अनुभव के आधार पर था या अन्दाज से कही थी? कुछ ही पहले एक महिला पत्रकार ने इन्टर्व्यू में अटलजी से पूछा था: ”अब आपसे एक आखिरी प्रश्न। आपने आज तक शादी क्यों नहीं की?” अटलजी का जवाबी सवाल था : ”यह प्रश्न है अथवा प्रस्ताव ?” तुलना में बताता चलूं कि शरिया का कठोरता से पालन करने वाले डा. फार्रुख अब्दुल्ला एक पत्नीव्रती ही हैं। यारी भले ही बहुलता में रही हो।