बिहार ‘कोकिला’ नाम से मशहूर शारदा सिन्हा नहीं रहीं

प्रज्ञा संस्थानपग-पग लिये जाऊं तोहरी बलैयां’….जैसे गीत के भाव को अपने स्‍वर से हम सबके भीतर जीवित करने वाली शारदा सिन्हा चली गईं. उनके बिना कोई छठ पूरा नहीं होता, ना ही आगे हो सकेगा. 26 जनवरी 1948 को जब पटना केंद्र का उद्घाटन सरदार वल्‍लभभाई पटेल की मौजूदगी में हुआ तो वहां विंध्‍यवासिनी देवी ने गाया—‘भइले पटना में रेडियो के शोर/ तनिक खोला सुन सखिया .पटना आकाशवाणी केंद्र से शारदा सिन्‍हा ने भी अपने स्वर के उत्कर्ष का सफर शुरू किया. सन 1973 में शारदा सिन्‍हा ने जब गाना शुरू किया तो वो सुगम-संगीत से जुड़ी थीं. गीत-ग़ज़ल-भजन गाया करती थीं.

72 साल की उम्र में शारदा सिन्हा ने दिल्ली के एम्स अस्पताल में आख़िरी सांस ली. पद्मभूषण और पद्मश्री से सम्मानित सिन्हा पिछले कई दिनों से एम्स अस्पताल में भर्ती थीं. डेढ़ महीने पहले ही 22 सितंबर को शारदा सिन्हा के पति बृजकिशोर सिन्हा का निधन ब्रेन हेमरेज के कारण हो गया था. अपने पति के निधन के बाद से ही शारदा सिन्हा सदमे में थीं. मंगलवार को ही शारदा सिन्हा के बेटे अंशुमान सिन्हा ने अपने यूट्यूब चैनल पर अपनी माँ की सेहत से जुड़े अपडेट साझा किए थे. शारदा सिन्हा के लाखों प्रशंसकों को संबोधित करते हुए कहा था, ”माँ वेंटिलेटर पर हैं. बहुत बड़ी लड़ाई में जा चुकी हैं. इस बार काफ़ी मुश्किल है.””अभी मैंने कन्सेंट साइन किया है. बस आप लोग प्रार्थना कीजिए कि वो लड़कर बाहर आ सकें. अभी उनसे मिलकर आया हूँ. छठी माँ कृपा करें. डॉक्टरों ने बताया कि अचानक उनकी स्थिति बिगड़ गई है.

संयोग है कि जिस छठ महापर्व के गीतों के लिए शारदा सिन्हा ज़्यादा जानी जाती हैं, उसी पर्व के दौरान उनका देहांत हुआ. उनके गाए मैथिली और भोजपुरी के लोकगीत पिछले कई दशकों से बेहद लोकप्रिय रहे हैं. आस्था के महापर्व छठ से जुड़े उनके सुमधुर गीतों की गूंज भी सदैव बनी रहेगी. उनका जाना संगीत जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है .सिन्हा ने भोजपुरी, मैथिली और हिन्दी में कई लोकगीत गाए हैं. उनकी गायकी में बिहार से पलायन और महिलाओं के संघर्ष  को काफ़ी जगह मिली है. फ़िल्म ‘हम आपके हैं कौन’ में बाबुल गाने को शारदा सिन्हा ने ही गाया था. यह गाना आज भी बेटियों की शादी के बाद विदाई के दौरान नियम की तरह बजाया जाता है. 2018 में शारदा सिन्हा को भारत के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था.

शारदा सिन्हा के गाए गीत कई मौक़ों पर अनुष्ठानों में नियम की तरह शामिल होते हैं. वो चाहे जन्म का उत्सव हो या मृत्यु का शोक, चाहे त्योहार हो या मौसम का करवट लेना. हालांकि शारदा सिन्हा के परिवार में गायकी की कोई पृष्ठभूमि नहीं थी, लेकिन उनके पिता ने भांप लिया था कि उनकी बेटी के भीतर संगीत की ज़मीन बहुत उर्वर है.

शारदा सिन्हा का जन्म साल 1953 में बिहार के सुपौल के हुलास गाँव में हुआ था.उनके पिता बिहार सरकार के शिक्षा विभाग में अधिकारी थे और उन्होंने उनमें गायकी के गुण देखने के बाद उसे सींचने का फैसला किया था. पिता सुखदेव ठाकुर ने 55 साल पहले दूरदर्शिता दिखाते हुए उन्हें नृत्य और संगीत की शिक्षा दिलवानी शुरू कर दी थी और घर पर ही एक शिक्षक आकर शारदा सिन्हा को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देने लगे थे. शारदा सिन्हा ने सुगम संगीत की हर विधा में गायन किया, इसमें गीत, भजन, गज़ल, सब शामिल थे लेकिन उन्हें लोक संगीत गाना काफी चुनौतीपूर्ण लगा और धीरे-धीरे वो इसमें विभिन्न प्रयोग करने लगीं. शादी के बाद इनके ससुराल में इनके गायन को लेकर विरोध के स्वर भी उठे लेकिन शुरू में पति का साथ फिर बाद में सास की मदद से शारदा सिन्हा ने ठेठ गंवई शैली के गीतों को गाया. शारदा सिन्हा के बाद भी कई लोकगायिकाएं आईं, लेकिन किसी को वो पहचान नहीं मिल सकी जो शारदा सिन्हा को मिली. इसकी एक वजह इनकी ख़ास तरह की आवाज़ है, जिसमें इतने सालों के बाद भी कोई बदलाव नहीं आया था.

 

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