एक संवादाता ने मेरे पास कराची के एक विवाह समारोह के समाचार भेजे हैं। कहा गया है कि वहां एक धनवान सेठ श्री लालचंदजी ने अपनी 16 वर्ष की लड़की के ब्याह के मौके पर तमाम फिजूल खर्चियां बंद की और विवाह समारोह को उदात्त धार्मिक रूप देकर, उस अवसर पर कम-से-कम खर्च किया। समाचारों से पता चलता है कि सारे समारोह में दो घंटे से ज्यादा समय नहीं लगा; वैसे आम तौर पर ब्याह के मौकों पर कई दिन तक फिजूल खर्चियां होती रहती हैं। विवाह विधि का सारा काम एक विद्वान ब्राहा्रण के हाथों कराया गया था।
उन्होंने वर-कन्या द्वारा उच्चारित सभी मंत्रों का अर्थ भी उन्हें समझाया। मैं सेठ लालचंद और उनकी धर्मपत्नी को भी जिन्होंने बहुत दिनों से इस अपेक्षित सुधार के कार्य में अपने पति का पूरा-पूरा साथ दिया है, हृदय से बधाई देता हूं और आशा करता हूं कि देश के दूसरे धनी लोग सर्वत्र इस उदाहरण का अनुकरण करेंगे। खादी प्रेमी यह जानकर प्रसन्न होंगे कि सेठ लालचंद और उनकी धर्मपत्नी पक्के खादी प्रेमी है और वर-वधू भी खादी में पूर्ण श्रद्धा रखते और सदा खादी पहनते हैं। यह विवाह समारोह मुझे आगारा के विद्यार्थियों की सभा का स्मरण कराता है। उन्होंने एक मित्र द्वारा दी गई इस सूचना की पुष्टि की थी कि संयुक्त प्रांत के कालेजों और विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थी स्वयं छोटी उम्र में ब्याह किए जाने के लिए उत्सुक रहते हैं और एक तरह से माता-पिता को कीमती वस्तुएं खरीदने, फिजूल खर्ची करने एवं बड़े-बड़े भोज या बढ़िया दावतें देने को विवश करते हैं।
मेरे मित्र ने कहा था कि अत्यंत उच्च शिक्षा प्राप्त माता-पिता भी संपत्ति के मिथ्याभिमान से बरी नहीं हैं, और इसलिए जहां तक रूपया बहाने का संबंध है, वे अनपढ़ मगर धनवान व्यापारियों मात कर देते हैं। ऐसे सब लोगों के लिए सेठ लालचंदजी का ताजा उदाहरण और सेठ जमनालाल जी का कुछ समय पूर्व का उदाहरण एक पदार्थ-पाठ होना चाहिए, जिससे प्रेरणा लेकर वे तमाम फिजूल खर्चियों से हाथ खींच लें। किंतु माता-पिताओं से अधिक नवयुवकों का यह कर्त्तव्य है कि वे बालविवाह का जोरों से विरोध करें; खासकर विद्यार्थी अवस्था के विवाहों का तो डटकर विरोध करें। साथ ही हर तरह से तमाम फिजूल खर्चियां बंद करवाएं। विवाह की धार्मिक विधि के लिए तो दस रूपए से ज्यादा की जरूरत नहीं होती, न होनी चाहिए और न विवाह विधि के सिवा और किसी बात को विवाह का आवश्यक अंग ही मानना चाहिए।
प्रजातंत्र के इस जमाने में जब कि धनी-निर्धन, ऊंच-नीच आदि के भेदों को मिटाने का प्रयत्न किया जा रहा है, धनियों का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने भोग-विलास और आमोद-प्रमोदों पर अंकुश रखकर गरीबों को संतोषी जीवन बिताने का अवसर दें और ‘भगवद्रीता’ के ‘यद्यदाचरित श्रेष्ठस्तश्रदेवेत रोजनः’ कथन की याद रखें-बड़े लोग जैसा आचरण करते हैं, जनसाधारण उसी का आदर्श मानकर चलते हैं। इस कथन की सचाई हम अपने रात-दिन के व्यवहार में प्रतिपल अनुभव करते हैं, खासकर विवाह के अवसरों और मृत्यु के बाद की क्रियाओं में। केवल यह अनुकरण ही हजारों गरीब लोगों के जीवन में आवश्यक वस्तुओं के अभाव और सर्वनाशकारी ब्याज की दरों पर लिए गए ऋण-भार से, जिंदगी-भर दबे रहने का कारण्ण बना बैठा है, राष्ट्रीय शक्ति और साधनों का यह अमित दुरूपयोग सहज ही रोका जा सकता है बशर्ते कि देश के नौजवान, खासकर लक्ष्मीपुत्र, अपने लिए होने वाली हर तरह की फिजूल खर्ची के कट्टर दुश्मन और विरोधी बन जाएं।
(अंग्रेजी से)
यंग इंडिया, 26.9.1929