हुजूर, अपनी इज्जत बचाइये!

शिवेंद्र सिंहयतो धर्मस्ततो जयः अर्थात् जहाँ धर्म है, वहां जय है. इस ध्येय वाक्य के साथ स्वतंत्र भारत में न्यायपालिका की स्थापना हुईं, इस विश्वास के साथ की वह भारत के संविधान और देश के हर नागरिक में न्याय के प्रति आस्था को जिन्दा रखेगी, उसकी उम्मीद का केन्द्र होगी. लेकिन आज आजादी के 70 सालों बाद ज़ब हम अतीत की अपनी यात्रा का सिंहावलोकन करते हैं तो इस न्याय-निर्णय और न्याय की उम्मीद, दोनों की तस्वीर बड़ी धुंधली नज़र आती है.
इसमें कोई शक नहीं स्वतंत्रता के हर बीतते दशक के साथ भारत की संसद, लोक सेवा आयोगों, पुलिस-प्रशासन जैसी प्रत्येक संस्था में नैतिक गिरावट आई जो समय के साथ बढ़ती चली गईं  किन्तु उसमें सबसे दुःखद रहा है, न्यायपालिका की पतनशीलता. आपातकाल में जिस प्रकार प्रकार  माननीय न्यायधीशों ने सत्ता के समक्ष घुटने टेके, वे एक विभाजक रेखा थीं, न्यायपालिका के गरिमा की अवहेलना एवं सत्ता की शक्ति और निजी स्वार्थ के दबाव की.
आज गणतंत्र दिवस के 75 वर्ष पूरे करने के बाद यह महसूस होता कि नकारात्मक परंपरा एक व्यवस्थित रूप ले चुकी है, जो दिनोंदिन और ढलान की ओर है. इस विचार आधारहीन नहीं है. न्यायपालिका के अनैतिक-असंगत निर्णय और न्यायधीशों का अनियंत्रित-अमर्यादित आचरण की एक लंबी फेहरिस्त है जिससे स्पष्ट होता है कि न्यायपालिका की प्रतिष्ठा आहत है.
 इसी परिपेक्ष्य में न्यायपालिका के कुछ करामाती निर्णयों पर एक नजर डालिये. जून, 2024 में राजस्थान हाईकोर्ट के जज अनूप कुमार ने आरोपी को राहत देते हुए अपने निर्णय में कहा कि लड़की के अंतःवस्त्र उतारना, नंगा करना और खुद नंगा होना बलात्कार का प्रयास नहीं है. इसी प्रकार पिछले दिनों उड़ीसा हाईकोर्ट ने 6 साल की बच्ची के बलात्कार के आरोपी मोहम्मद आकिल कोर्ट के. लिए कहा कि वो पांच वक्त का नमाजी है. उसे सुधरने का समय दीजिये. वही दिल्ली हाईकोर्ट ने पिछले साल इस्लामिक क़ानून का हवाला देते हुए एक 15 साल की लड़की के निकाह को जायज ठहरा दिया. अरे भाई! संवैधानिक नियम किसलिए हैं, ज़ब निर्णय धार्मिक-पंथीय आस्थाओं के आधार पर ही देना है.
 निर्णय ही नहीं बल्कि जजों के कारनामें भी नित-चर्चा में हैं. बांदा के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट भगवान दास गुप्ता द्वारा उनके आवास के बिजली के लंबित बिल की वसूली के लिए जाने वाले कर्मचारियों पर फर्जी मुकदमा दर्ज कराया गया. मामले की सुनवाई के बाद इलाहबाद हाईकोर्ट ने इसे पद में दुरूपयोग का मामला मानते हुए कहा कि ये व्यक्ति जज बनने लायक नहीं है. फिर क्या? न्यायालय मात्र एक तल्ख़ टिप्पणी करके रह जाता है. यदि ऐसे व्यक्ति को न्यायिक प्रणाली का हिस्सा बने रहने दिया जाये तो कल्पना करिये की ऐसे लोग न्याय जैसे शुद्ध एवं पवित्र भावना का मान कैसे रखेंगे.
इन सबसे बढ़कर चर्चित मामला रहा पुणे पोर्श मामला, जहाँ शराब के नशे में दो युवा इंजिनियरों को कार से कुचलकर मार डालने वाले नाबालिग को मात्र 15 घंटों के अंदर ही, ‘सड़क दुर्घटनाओं के प्रभाव और उनके समाधान पर 300 शब्दों के निबंध लिखने’, ‘किसी नशा मुक्ति केंद्र में जाकर रिहैबिलिटेशन लेने, ‘ट्रैफिक नियमों को पढ़ने’ जैसी शर्तों पर कोर्ट से जमानत मिल गईं.
 
वही दिल्ली शराब घोटाला मामले में राउज एवेन्यु कोर्ट की जज न्याय बिन्दु ने केजरीवाल को यह कहते हुआ जमानत दे दी कि ईडी के इतने ज्यादा पेज के डॉक्यूमेंट पढ़ना संभव नहीं है. जज साहिबा के इस तर्क को मान लें तो क्या समय का अभाव किसी संवेदनशील मामले के त्वरित निर्णयन का कारण होना चाहिए? इसी न्यायपालिका के दरवाजे पर एक ओर न्याय के लिए एड़ियाँ रगड़ते लोगों की ज़िन्दगी गुजर जाती हैं और दूसरी तरफ प्रभावशाली लोगों के लिए त्वरित फैसले देने के लिए उद्यत अदालतें, एक असमानतापूर्ण न्यायिक प्रणाली का उदाहरण प्रस्तुत कर रहीं हैं. कहना होगा कि वर्तमान में न्यायपालिका जिस तरह संदिग्ध निर्णयों के जंजाल में फंसी है, यदि आगे वह इसमें सुधार का प्रयास नही करती तो यकीन मानिए अगले एक दशक में ही उसकी विश्वसनीयता रसातल में होगी.
 इसी सन्दर्भ में बताते चलें कि केजरीवाल के वकीलों द्वारा लगातार तीनों कोर्ट में बेल की याचिका लगाई गईं. आखिर एक व्यक्ति को एक ही कारण के लिए, बेल के इतनी एक्सेस कैसे उपलब्ध हो सकती हैं? क्या यही सुविधा आम भारतीयों को भी हासिल है? ये समझना जरा कठिन है. असल में स्थिति ऐसी है कि इस देश में क़ानून का स्वरुप एक सा जरूर है लेकिन वह व्यक्ति की पृष्ठभूमि के अनुरूप अलग-अलग तरीके से काम करता है. वेदांत अग्रवाल के मामले (पुणे पोर्श कांड) में ही इस देश की न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था का वह रूप दिखा जो धन-बल के समक्ष नंगा खड़ा था. इस मामले में दो चीजें एक स्पष्ट थी. पहली, इस देश में आम, मेहनतकश लोगों के जान की कोई क़ीमत नहीं है क्योंकि यदि आपकी मौत किसी धनवान-तथाकथित  संभ्रांत परिवार के बिगड़ैल बच्चे के एडवेंचर का हिस्सा है तो उसके धनबल से अभिभूत देश का क़ानून और प्रशासन इसे सडक के कुत्ते की मौत से अधिक नहीं मानता और दूसरा, यदि आप शक्तिशाली वर्ग यानि धन, उच्च वर्ग से सम्बंधित हैं तो इस देश में आपको कुछ भी करने की इजाजत है, यहाँ तक कि शराब पीकर किसी के ऊपर गाड़ी चढ़ाकर उसे मार डालने की भी.
 अब नीट पेपर घोटाले का मामला ही लें तो सर्वोच्च न्यायालय का इसे रद्द करने का असमंजस समझना कठिन है. सरकार का कहना और कोर्ट का सुनना कि इसे रद्द करने से बच्चों का भविष्य ख़राब होगा, पूर्णतः अस्वीकार किया जाना चाहिए. यदि सरकार को, पुलिस-प्रशासन को, परीक्षा एजेंसी को यानि सबको लगता है कि पेपर लीक हुआ है, परीक्षा में धांधली हुईं है, चाहे एक जगह या दो जगह, चाहे कम या अधिक, तो फिर उसे निरस्त करने में न्यायालय को क्या समस्या है? एक ओर हजारों बच्चे अपने भविष्य की चिंता में सड़कों पर आंदोलन कर रहें हैं तो फिर न्यायपालिका एक त्वरित और कठोर निर्णय से परहेज करके आखिर किसका भविष्य बचाना चाहती है?
 इन न्याय-निर्णयन की विसंगतियों के अतिरिक्त बहुत से ऐसे मुद्दे हैं. जिनमें न्यायपालिका का आचरण अनुचित है.. जैसे आज भी  ब्रिटिश परंपरा के अनुरूप न्यायधीश कई हफ्तों के ग्रीष्म और शीत अवकाश पर चले जाते हैं, उस देश में, जिसका जनमानस समस्याओं, मुक़दमों के बोझ तले श्वास लेने में घुटन महसूस कर रहा है. यानि अंग्रेजी सत्ता की विदाई के सात दशकों बाद भी न्यायपालिका की औपनिवेशिक मानसिकता यथावत है.
पूरे देश को संवैधानिक मूल्यों का पाठ पढ़ाने वाली न्यायपालिका को आत्ममूल्यांकन का भी प्रयास करना चाहिए. वो कोलिजियम सिस्टम जिसे संविधान सभा ने ख़ारिज किया, उसे न्यायपालिका ने 199-93 में लागू कर दिया और इसके बाद परिवारवाद-वंशवाद का नंगा खेल शुरू हो गया. 2014 में संसद के दोनों सदनों ने भारी बहुमत से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को पारित किया लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे मूल ढांचे के विरुद्ध बताते हुए ख़ारिज कर दिया. क्या न्यायपालिका को लगता है कि इस देश में मात्र वही सत्यता की प्रतिमान है? या वह स्वयं को संसद के समानांतर सत्ता का केन्द्र मानती है. जो भी हो किन्तु उसका यह एकांगी आचरण संवैधानिक मर्यादा के अनुरूप नहीं है.
 इतना ही नहीं आज जजों में सत्ताधारी दलों से संपर्क साधकर मानवाधिकार आयोग जैसे सांविधिक निकायों में पद हथियाने की होड़ लगी है. ऊपर से माननीय न्यायधीशों की विधानमण्डलों में पहुंचने की. महत्त्वकांक्षा ने न्यायपालिका की विश्वासनीयता तीव्रता से संकटग्रस्त किया है. पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद राज्यसभा के मनोनीत सदस्य का पद स्वीकारना सरासर अनुचित निर्णय था. हालांकि ये कोई नई बात नहीं है. इससे पूर्व रंगनाथ मिश्र, मोहम्मद हिदायतुल्ला, बहरुल इस्‍लाम जैसे कई न्यायधीश सत्ताधारी दलों की कृपा से राज्यसभा तक पहुंच चुके हैं लेकिन इनमें  कलकत्ता हाईकोर्ट अभिजीत गंगोपाध्याय तो सबसे विशिष्ट निकले. वे अपने पद से इस्तीफा देकर एक राजनीतिक पार्टी में शामिल हो गये. कहने का तात्पर्य यह है कि न्यायमूर्तियों की सत्ता सुख में शामिल होने की अशुभ त्वरा न्यायपालिका की साख को चोटिल कर रही है.
 हालांकि आज भी कोई आम भारतीय खुद ज़ब सरकार, प्रशासन, धनिको, बाहुबलियों और अपराधियों से पीड़ित-प्रताड़ित होकर खुद को संघर्ष के लिए खड़ा करता है तो इसके पीछे उसका यह विश्वास होता है कि न्यायपालिका उसकी आवाज़ जरूर सुनेगी, कि न्याय के इस मंदिर में उसे इंसाफ जरूर मिलेगा, लेकिन कैसी विद्रुप स्थिति होगी ज़ब मंदिर का देवता ही किसी उत्कोच के वशीभूत होकर याची की पुकार, उसकी पीड़ा को नज़रअंदाज कर दे. तब तो आम लोगों की वेदना से उपजा क्रोध उस पूरे धार्मिक मान्यता का अस्तित्व ही संकट ग्रस्त कर देगा.
 वर्तमान संकट केवल यह नहीं है कि देश की एक प्रमुख संवैधानिक संस्था का इक़बाल ढह रहा है बल्कि समस्या इस बात की है कि उस संस्था की विश्वासनीयता दांव पर लग गईं है जिसे संविधान का एक आधार स्तम्भ, उसके मूल्यों का संरक्षक और व्याख्याकार माना जाता है.
  जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, ‘ज़ब शुद्ध भावनाएं बुद्धि द्वारा दूषित हो जाती हैं तब जीवन बहुत मामूली दर्जे का होता है.’ न्यायपालिका में पैठ कर चुकी भौतिक  स्वार्थ और पद-सत्ता की लालसा ने न्याय के मन्दिर प्रतिष्ठा को दांव पर लगा दिया है. हालांकि अभी भी देश के करोड़ों लोगों ने इससे अपनी आस्था का त्याग नहीं किया है क्योंकि जिस दिन ऐसा होगा उस उसी दिन राष्ट्रीय समाज का संतुलन बिगड़ जायेगा. यदि मी लार्ड सुन रहे हैं तो उनसे गुजारिश है, ‘हुजूर अपनी इज्जत बचाइये!’
(लेखक के अपने विचार हैं )

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