अंग्रेजों ने भारत की आजादी को केवल ‘सत्ता का हस्तांतरण कहा। यही हमें बताया और समझाया गया। बार बार दोहराया गया। अफसोस यह कि हमारे नेताओं ने भी यही माना, समझा और समझाया। वैसे आजादी से पहले ऐसे सवालों पर महात्मा गांधी ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से बात करनी चाही ताकि स्वाधीन भारत की भावी रचना का खाका बनाया जा सके। लेकिन, इसे नेहरू ने गैरजरूरी समझा। इस कारण वे सारी मान्यताएं, धारणाएं और शासकीय व्यवस्थाएं पहले की तरह चलती रहीं, जिनकी नींव अंग्रेजों ने डाली थी।
इसलिए हम कह सकते हैं कि पहले बाहरी लोग हम पर शासन करते थे लेकिन 1947 के बाद हमारे चुने हुए लोग हम पर शासन करने लगे। इससे अधिक 1947 के बाद कुछ भी नहीं हुआ। हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, ऐसे में हमें अपना और अपनी व्यवस्था का एक बार रूककर मूल्यांकन करना चाहिए।
हमें सोचना पड़ेगा कि हमारे पुरखों ने जिन्होंने स्वाधीनता संघर्ष का दर्शन तैयार किया, इसके लिए जिन्होंने प्रेरणाभूमि बनाई उन लोगों का स्वाधीन भारत का चित्र क्या था। क्या हम उस चित्र का निर्माण कर पाए। आखिर हम उस चित्र का निर्माण क्यों नहीं कर पाए। क्या हमारे अंदर संकल्प की कमी थी। क्या हमें इस चीज की स्पष्ट कल्पना नहीं थी। क्या कारण है कि वह चित्र नहीं बन पाया। यानि आज का जो चित्र दिखता है वह अंग्रेजों का बनाया हुआ है।
हम शिक्षा प्रणाली को ही देखें। जिस शिक्षा प्रणाली को हमने शुरू से ही अस्वीकार किया, उस शिक्षा प्रणाली के विकल्प के लिए हमने अनेक प्रयोग किए, यह प्रयोग रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने किया, श्री अरविंदों ने किया, महर्षि दयानंद की प्रेरणा से डीएवी मूवमेंट चला। गांधी जी की प्रेरणा से विद्यापीठ संस्थाएं खुली। नई तालीम के प्रयोग हुए। इस तरह जो अनेक प्रयोग शिक्षा के क्षेत्र में हुए वे आज कहां पर हैं। उनमें जो दर्शन था, जो विचार था, वह तो आज भी हमें उपलब्ध है। लेकिन व्यवहार में जो प्रयोग उन्होंने किए उन प्रयोगों की आज गति क्या है। इसी तरह आज का जो प्रशासन तंत्र है इसको अंग्रजों ने बनाया। इस प्रशासन तंत्र को भी अंग्रेजों ने क्रमश खड़ा किया।
भारत को अपनी मेधा, अपनी प्रतिभा के साथ दुनिया में अपनी भूमिका अदा करने के लिए जिस आत्मविश्वास से खड़ा होना था, वह सही ढंग से नहीं हो पाया। भारत का आम आदमी, उसका हित और उसका स्वभाव, भारत के अभिजात्य वर्ग के हित और स्वभाव से कट गया।
भारत की पारंपरिक व्यवस्था में समाज की प्रधानता थी। इसलिए यह देश समाज की अदरूनी ताकत और सामाजिक पूंजी के आधार पर चलता था। लेकिन, भारत में जो राज्य व्यवस्था क्रमशः लागू की गयी उसको देखकर ऐसा लगता है जैसे राज्य व्यवस्था ने समाज को चलाने का ठेका ले रखा है। जिसके कारण यह सोच बनती चली गयी कि सब कुछ राज्य करेगा। जबकि वास्तविकता यह है कि राज्य कभी भी बहुत कुछ करने की स्थिति में था ही नहीं।
वास्तव में भारत चलता था अपनी ‘सामाजिक पूंजी’ और सांस्कृतिक परंपरा के बल पर।भारत के सामाजिक अग्रदूतों का इस सामाजिक जीवन में बहुत योगदान रहा है। उनका अपना एक प्रभाव होता था जिसका लाभ समाज को मिलता था। यहां इसी कड़ी में एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा कि 19वीं सदी में जहां एक ओर प्रशासकीय स्तर पर यूरोपीय मान्यताओं को लागू किया जा रहा था तो वहीं दूसरी ओर सामाजिक स्तर पर भारत नई अंगड़ाई भी ले रहा था। ये दोनों घटनाएं साथ-साथ हो रही थीं।
इन सामाजिक अग्रदूतों में एक धारा रामकृष्ण परमहंस की निकली जो अपनी तरह से भारत के नवोत्थान के लिए काम कर रही थी। एक धारा लोकमान्य तिलक की निकली जो अपने तरीके से काम कर रही थी। इसी बीच स्वतंत्रता संघर्ष में महात्मा गांधी का उदय हुआ। उन्होंने अंग्रेजों के प्रशासन से ही मुक्ति की बात ही नहीं सोची, बल्कि भारतीयता के आधार पर प्रशासन की एक प्राथमिक रूपरेखा भी तैयार की। इसी काल में सुभाष चंद्र बोस का संघर्ष था तो डा. हेडगेवार का बहुमूल्य रचना-संसार और भारत की आत्मप्रतिष्ठा का संघर्ष भी है।
ऐसे बहुत से लोग विभिन्न स्तरों पर मानो भारत के पुनर्जागरण के लिए काम कर रहे थे। 1947 में सत्ता के हस्तांतरण के बाद सामाजिक अग्रदूतों या आंदोलनों के साथ राज्य ने कोई तादात्म्य बिठाने की कोशिश नहीं की। इसलिए धीरे-धीरे राज्य और समाज के बीच दूरी बढ़ती चली गयी। नहीं तो कोई कारण नहीं है कि तिलक द्वारा जन-एकत्रीकरण के लिए शुरू किए गए गणेश-उत्सव को ‘कम्युनिटी’ विशेष का करार दे दिया गया। कल्पना करिए कि आज के समय में भी क्या गांधी जी ‘रघुपति राघव राजाराम’ गाकर सांप्रदायिक होने से बच पाते। ऐसी स्थिति इसलिए निर्माण हुई है क्योंकि राज्य समाज के चलने की मानसिकता से निकल नहीं पा रहा है। इसलिए वह अपनी समझ और सुविधानुसार कायदे-कानून निर्धारण करता है। राज्य ने जो कार्य निर्धारण किए, जो नियमावली बनायी, उससे देश की ऊर्जा, देश की प्रतिभा का उपयोग देश के विकास में पूरी तरह नहीं हो पा रहा है। देश और समाज अपने हिसाब से चल रहा है, जबकि राज्य उसे अपने हिसाब से चलाने की कोशिश करने में पूरी तरह से लगा हुआ है।