दुनिया चमत्कार को नमस्कार करती हैं. भगवान विष्णु के दस अवतारों में, श्रीराम का अवतार ही ऐसा अवतार हैं, जिसमे चमत्कार न के बराबर हैं. किन्तु फिर भी दुनिया प्रभु श्रीराम को ही पूजती हैं. संपूर्ण भारत में, भौगोलिक / भाषिक विभेदों से ऊपर उठकर श्रीराम पूजे जाते हैं. भारत ही क्यों, विश्व की सबसे ज्यादा मुस्लिम लोकसंख्या वाले देश इंडोनेशिया में आज भी प्रभु श्रीराम के जीवन प्रसंग पर आधारित लीलाओं का मंचन होता हैं. थायलैंड के राजा, अपने नाम में ‘राम’ का नाम जोड़ते हैं. उसमे गर्व का अनुभव करते हैं. बैंकॉक के प्रमुख रास्तों के नाम ‘राम-१’, ‘राम-२’ ऐसे हैं. सारा दक्षिण पूर्व एशिया, सूरीनाम, मॉरीशस, फ़िजी.. सभी श्रीराम की आराधना करते हैं. उनका गुणगान गाते हैं.
प्रभु श्रीराम ने कोई चमत्कार नहीं दिखाए थे. अहिल्या को शीला रूप से मुक्त किया, ऐसा कहा जाता हैं. किन्तु वह प्रतीकात्मक हैं. किसी कारण से जड़वत जीवन जीने वाली अहिल्या का प्रभु श्रीराम ने उद्धार किया, यही इसका अर्थ हैं. इसके विपरीत, सीता माई का हरण होने पर प्रभु श्रीराम विलाप कर रहे हैं. भ्राता लक्ष्मण के मूर्च्छित होने पर भी श्रीराम विलाप करते हुए दिखते हैं. अर्थात, श्रीराम पूर्णतः मानवी गुणों से परिपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में प्रकट हो रहे हैं.
फिर भी प्रभु श्रीराम की जयजयकार होती हैं. विश्व में उनके नाम का डंका बजता हैं. सर्वत्र उनकी आराधना होती हैं. ऐसा क्यों ?
यह समझने के लिए श्रीराम जी के समय की परिस्थिति को समझना होगा. *उन दिनों, पूरे आर्यावर्त में, अर्थात तत्कालीन अखंड और विशाल भारत में, जबरदस्त दहशत फैली हैं. यह दहशत आसुरी शक्तियों की हैं. ये सज्जन शक्ति को कुछ भी अच्छा, कुछ भी मंगल, कुछ भी पवित्र कार्य करने से रोक रही हैं. विश्वामित्र जैसे तपस्वी ऋषि को भी यज्ञ – याग करना संभव नहीं हो रहा हैं. इसलिए वे दशरथ के दरबार में आते हैं, प्रभु श्रीराम को मांगने, यज्ञ की रक्षा के लिए ! जब श्रीराम और लक्ष्मण को लेकर ऋषि विश्वामित्र यज्ञ स्थल की ओर जा रहे हैं, तो रास्ते में अनेक उजड़े हुए गांव – शहर दिखते हैं. वे सभी त्रटिका (ताड़का) जैसी आसुरी शक्तियों के दहशत के कारण उजड़े हैं. ऋषि विश्वामित्र के यज्ञ पर भी असुरों का आक्रमण होता हैं. ताड़का, सुबाहु, मारीच… ऐसे अनेक शक्तिशाली असुर यज्ञ को बंद कराने, आक्रांता के रूप में आते हैं. प्रभु श्रीराम और भ्राता लक्ष्मण, इन सभी को परास्त करते हैं. अधिकतर राक्षसों का वध करते हैं.
ये सब राक्षस / असुर कौन हैं ? ये सभी एक जबरदस्त दानवी शक्तियों के ‘नेटवर्क’ का हिस्सा हैं. और इनका मुखिया हैं – रावण ! जी, हां. लंकाधिपती रावण. ताड़का, सुबाहु, मारीच.. ये सब रावण के क्षत्रप हैं. वाल्मीकि रामायण में, कंब रामायण में, रामचरित मानस में इसका स्पष्ट उल्लेख हैं.
वाल्मीकि रामायण में ‘बालकाण्ड’ के तीसवें सर्ग में राक्षसों के आतंक का विस्तार से वर्णन हैं. १७ वे श्लोक में मारीच को श्रीराम ने किस प्रकार से मार भगाया, इसका उल्लेख हैं –
*स तेन परमास्त्रेणं मानवेन समाहितः I*
*संपूर्ण योजना शतं क्षिप्तस्सागर संप्लवे II १७ II*
अर्थात – श्रीराम ने बड़े रोष में भरकर मारीच की छाती में उस बाण का प्रहार किया. उस मानवास्त्र का गहरा आघात लगने से मारीच पूरे सौ योजन की दूरी पर, समुद्र के जल में जा गिरा.
यह वही मारीच हैं, जो बाद में सीता का हरण करने में अपनी भूमिका निभा रहा हैं. इस का पुनः उल्लेख आता हैं, ‘अरण्यकाण्ड’ के इकतीसवे सर्ग में, जब रावण, राम को परास्त करने मारीच की मदद मांगने जाता हैं.
*स दुरे चाश्रमं गत्वा ताटकेयमुपातगम I*
*मारिचेनार्चितों राजा भक्षभोज्यईर मानुषई: II ३६ II*
अर्थात – कुछ दूर पर जाकर वह (रावण) ताड़का पुत्र मारीच से मिला. मारीच ने अलौकिक भक्ष – भोज्य अर्पित कर के राजा रावण का स्वागत सत्कार किया.
रावण मारीच से कह रहा हैं –
*आरक्षो मे हतस्तात रामेणाक्लिष्टकारिणा I*
*जनस्थानमवध्यं तत् सर्वं युधि निपातितम् ॥ ४० ॥*
अर्थात – अरण्यकाण्ड के इकतीस वे सर्ग के ४० वे श्लोक में रावण कह रहा हैं, “तात, अनायास ही महान पराक्रम दिखाने वाले श्रीराम ने मेरे राज्य की सीमा के रक्षक, खर – दूषण आदि को मार डाला हैं. तथा जो जनस्थान अवध्य समजा जाता था, वहाँ के सारे राक्षसों को उन्होंने युध्द में मार गिराया हैं.“
रावण के अनुरोध को प्रारंभ में मारीच अस्वीकार करता हैं. किन्तु शूर्पणखा का विलाप सुनकर रावण पुनः मारीच के पास जाता हैं. तब मारीच उसे, श्रीराम से संबंधित उसका पुराना अनुभव बताता हैं. _(इस प्रसंग का उल्लेख बालकाण्ड के तीसवें सर्ग के सत्रहवे श्लोक में आ चुका हैं.)_
*तेन मुक्तस्ततो बाणः शितः शत्रुनिबर्हणः I*
*तेनाहं ताडितः क्षिप्तः समुद्रे शतयोजने ॥ १९ ॥*
अर्थात – इतने में ही श्रीराम ने एक ऐसा तीखा बाण छोड़ा, जो शत्रु का संहार करने वाला था; परंतु उस बाण की चोट खाकर मैं सौ योजन दूर समुद्र में आकार गिर पड़ा.
*संक्षेप में, ये सारे असुर, ये सारे राक्षस, रावण के निकट के साथी हैं, क्षत्रप हैं.* अरण्यकाण्ड में अनेक राक्षसों का वर्णन आता हैं. छठे सर्ग में, उन्नीस और बीस वे सर्ग में, जिन राक्षसों का उल्लेख हैं, वे सभी रावण के सेनानी हैं. चौदह हजार राक्षसों की सेना, उसका जनस्थान का सेनापति त्रिशिरा, खर – दूषण.. ये सभी, रावण के दहशतवादी नेटवर्क के कलपुर्जे हैं. शूर्पणखा तो उसकी बहन हैं.
रावण स्वतः अपने इस दहशतवादी नेटवर्क के बारे में बता रहा हैं. अरण्यकाण्ड के इकतीसवे सर्ग के चौथे श्लोक में रावण, अकम्पन नामक राक्षस से कह रहा हैं –
*केन भीमं जनस्थानं हतं मम परासुना I*
*को हि सर्वेषु लोकेषु गतिं नाधिगमिष्यति ॥ ४ ॥*
अर्थात – कौन मौत के मुंह में जाना चाहता हैं, जिसने मेरे जनस्थान का भयंकर विनाश किया हैं.
प्रभु श्रीराम, असुरों के इस दहशतवादी नेटवर्क को समझ रहे हैं. अनुभव कर रहे हैं. इनके कारण सामान्य नागरिक कितनी ज्यादा दहशत में जी रहे हैं, यह भी वे देख रहे हैं. इस नेटवर्क का खात्मा करने से ही आर्यावर्त की, इस भरतखंड की प्रजा चैन की सांस ले सकेगी, यह भी उनको दिख रहा हैं.
*श्रीराम स्वयं ईश्वर के अंश हैं. भगवान के स्वरुप हैं. किसी चमत्कार के द्वारा ऐसी दुष्ट शक्तियों का अंत करना उनके लिए सहज साध्य हैं. सरल हैं. किन्तु वे समझ रहे हैं, की इस प्रकार से इन दहशतवादी आसुरी शक्तियों को नष्ट करेंगे, तो सामान्य प्रजा हमेशा ही ऐसे प्रसंगों में, ईश्वर के अवतार की प्रतीक्षा करती रहेगी. स्वयं कुछ नहीं करेगी. यह ठीक नहीं हैं. सामान्य नागरिकों में यह विश्वास निर्माण करने की आवश्यकता हैं, की यदि वे संगठित होकर इन आसुरी शक्तियों से संघर्ष करेंगे, तो उनकी विजय निश्चित हैं.*
*और यही प्रभु श्रीराम ने किया हैं.*
यह करने के लिए उनको अवसर भी मिला हैं, माता कैकेयी ने राजा दशरथ से मांगे वचनों का. इन वचनों के अंतर्गत श्रीराम जी को १४ वर्ष वनों में गुजारना हैं. श्रीराम के लिए यह अवसर हैं, भरतखंड को समझने का. उस आसुरी नेटवर्क को समाप्त करने का.
इसलिए १४ वर्षों में से १३ वर्ष प्रभु श्रीराम, भ्राता लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ वनों में घूम रहे हैं. वनों में रहने वाले लोगों से घुल – मिल रहे हैं. वहां निवास कर रहे ऋषि – मुनियों के यज्ञ – याग में आने वाले विघ्नों को हर रहे हैं. किन्तु अभी तक उनका सामना, इस दहशतवादी तंत्र के सूत्रधार रावण से नहीं हुआ हैं.
*इसलिए जब वनवास का चौदहवां वर्ष प्रारंभ होता हैं, तो श्रीराम का निश्चय हैं, रावण से भिड़ने का.* इसलिए शूर्पणखा जब भेस बदलकर श्रीराम के पास आती हैं और श्रीराम को पता चलता हैं की यह रावण की बहन हैं, तो प्रभु यह मौका चूकना नहीं चाहते. अत्यंत सज्जन, अत्यंत सच्छिल, स्त्रियों का अत्यधिक सम्मान करने वाले प्रभु श्रीराम, शूर्पणखा के नाक – कान काटने का आदेश अपने भ्राता लक्ष्मण को देते हैं. श्रीराम के व्यक्तित्व से यह कृति मेल नहीं खाती. किन्तु उनका लक्ष्य रावण हैं. इसलिए अपने व्यक्तित्व से बाहर आकर, वे शूर्पणखा को विद्रुप करने का आदेश दे रहे हैं. इस माध्यम से वे रावण को ललकार रहे हैं. शायद शूर्पणखा नहीं आती, तो प्रभु श्रीराम, रावण से भिड़ने का कोई और मार्ग खोजते. पर किसी भी माध्यम से रावण तक पहुंचना यह उनका लक्ष्य हैं.
रावण के विनाश के लिए, श्रीराम अपने साथ ले रहे हैं, वनों में रहने वाले नरों को. अर्थात वानरों को. *यह सारा वनवासी समाज हैं, जिसे प्रभु श्रीराम संगठित कर रहे हैं. इन सामान्य वनवासियों की मदद से, श्रीराम को, महाबलाढ्य ऐसे रावण को परास्त करना हैं.*
इसलिए बाली का वध कर के, सुग्रीव को सिंहासन पर बिठाकर, प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण, अगले चार महीने प्रस्त्रवणगिरी पर्वत पर मुकाम कर रहे हैं. किन्तु उनके लिए यह विश्राम का समय नहीं हैं. उन चार महीनों में, श्रीराम और लक्ष्मण, वनवासियों को युध्द के लिए प्रशिक्षित कर रहे हैं. अन्यथा, अपनी पत्नी के वियोग में विलाप करने वाले श्रीराम, चार महीनों तक, सीता माता की खोज को रोक कर, विश्राम क्यों करेंगे? उन्हे रावण के शक्ति की जानकारी हैं. इसलिए ये चार महीने युध्द की तैयारी के हैं.
*प्रभु श्रीराम ने महबलाढ्य, शक्तिशाली, चतुरंग सेना के धनी, आतंकी नेटवर्क के सूत्रधार, ऐसे रावण के विरोध में सर्वसामान्य नागरिकों की संगठित शक्ति को खड़ा किया हैं. इस शक्ति में सभी का सहभाग हैं. छोटीसी गिलहरी भी, रेत के कणों से सेतुबंधन में सहयोग कर रही हैं. और जब सज्जन शक्ति संगठित होती हैं, तो उसमे देवत्व का निर्माण होता हैं. यह देवत्व, किसी भी आसुरी शक्ति को पूर्णतः पराजित कर सकता हैं. प्रभु श्रीराम ने रावण को परास्त करके, यह सिध्द कर दिखाया हैं.*
प्रभु श्रीराम के इस संघर्ष से और संघर्ष से मिली विजय से, जन सामान्य में यह विश्वास जागा की हम सभी मिलकर, किसी भी आतंकी / दहशतवादी / आसुरी शक्तियों का निर्दालन कर सकते हैं. यही प्रभु श्रीराम जी की अपार लोकप्रियता का रहस्य भी हैं.
रामनवमी के दिन, संगठित शक्ति के विजय पर्व का यह स्मरण स्वाभाविक हैं..!