दीनबंधु एंड्रयूज न केवल एक भले अंग्रेज हैं तथा उन्होंने इस देश के लिए न केवल अपना सर्वस्व निछावर किया है बल्कि वे एक कलाकार, कवि और अच्छे वक्ता भी हैं। जिन लोगों ने उनके भाषण सुने हैं और जिन्होंने उनके कामों का अध्ययन किया है, वे जानते हैं कि उनके सभी काम कलापूर्ण होते हैं। वे कवि हैं; क्योंकि वे यह जानते हैं कि भविष्य कैसा होगा और कैसा होना चाहिए। वे सुवक्ता हैं, इस कारण नहीं कि वे धारा प्रवाह भाषण दे सकते हैं अथवा उनका उच्चारण और भाषा उच्च कोटि की है, बल्कि उनकी सारी खूबियां तो उनके हृदय से उठकर आती हैं। आप उनका भाषण पढ़ें तो एक तरह का असर होगा, और जो उस भाषण को ध्यानपूर्वक सुनेंगे, उन पर कुछ दूसरी तरह का असर होगा। आमतौर पर हम यह मानते हैं कि जो व्यक्ति घंटों धारा-प्रवाह बोल सकता है, वह सुवक्ता है। किसी-किसी के मन में यह बात उठ सकती है कि एंड्र्यूज को कदाचित भाषण देने का अभ्यास नहीं है, इसलिए उन्होंने अपना भाषण लिखकर पढ़ा। किंतु ऐसा सोचना भूल है। उन्होंने अपने लिखित भाषण में इतना रस भर दिया था कि हम सभी उससे सरोबार हो गए। यह रस उनके हृदय से छलका है।
उन्होंने अपने भाषण में स्वर्गीय हकीम साहब का उल्लेख किया है। यों ऊपर से देखने पर किसी को लग सकता है कि हकीम साहब की मृत्यु से स्नातकों के दीक्षांत समारोह का क्या संबंध है, यह तो कला-विहीनता की निशानी हुई। मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने इसी के द्वारा अपनी कला सूचित की और अपना उद्देश्य भी स्पष्ट कर दिया। एंड्रयूज उम्र में आप से तो बड़े ही हैं। उन्होंने अपने बचपन की बात बताई। उन्होंने हकीम साहब के पास अपनी तालीम शुरू करने की बात कही। तब तक हकीम साहब मशहूर हो चुके थे और अपने तिब्बी ज्ञान की मारफत राजा-रंक की सेवा कर रहे थे। एंड्रयूज को लगा कि यह सच्ची शिक्षा वे उनसे ले रहे हैं। उन्होंने जो कहा उसे अपने अनुभव के आधार पर ही बताते हुए यह कहा कि मुझे अपने अध्यापकों के लेक्चर याद नहीं; किंतु अपने इस अध्यापक के कामों की श्रेष्ठ और पुण्यतम स्मृति आज भी उनके मन में बसी हुई है; वे उनके मन में गहरे पैठ सके थे। शिक्षा का यही सार बताने के लिए उन्होंने हकीमजी की कहानी कही। इसमें अद्भुत कला भरी हुई है और यह करूणापूर्ण तो है ही। अपना भाषण पढ़ते हुए, उन्होंने हमें वीर रस का आस्वादन कराया और अंत में त्याग का उपदेश दिया।
तदुपरांत उन्होंने अपनी जीवन-कथा सुनाई। हमारा हृदय निराशा के गर्त में पड़ा हुआ है। हमें यह भय बना रहता है कि इमारत तो हमारे पास है किंतु कहीं दो वर्ष बाद इसमें कौवे न बोलने लगें। निराशा की इस भावना की उन्हें खबर है। इस संबंध में मैंने उनसे कोई बात नहीं की, किंतु वे तो हवा का रूख देखकर ही भांप लेते हैं। इसीलिए उन्होंने आपसे कहा कि आपके पास तो इमारतें हैं रूपए हैं, जमीन है तथा गुजरात जैसे प्रांत में पैसे भी मिलते ही रहते हैं किंतु मैं जिस कालेज में पढ़ा हूं, उसके जन्म की कहानी यदि मैं सुनाऊ तो आपको आश्चर्य होगा और आपको आशा की किरणें दिखने लगेंगी। वह एक छोटी सी झोपड़ी में शुरू हुआ और सो भी एक साहसी विधवा के बल पर, वह विवाह के दिन ही विधवा हो गई थी। यदि वह चाहती तो पुनर्विवाह कर सकती थी, किंतु उसने सेवा धर्म को अपनाया। उस विधवा ने साधु-संन्यानियों को खोजकर, उनसे विद्यार्थियों की शिक्षा देने को कहा और उनके रहने के लिए झोंपड़ियां बनवा दीं। उन्हीं झोपड़ियों को आज हम विशाल पेंब्रोक महाविद्यालय के रूप में देखते हैं। जहां से स्पेंसर और ग्रे-जैसे कवि, पिट-जैसे धुरंधर राजनीतिज्ञ तथा ब्राउन जैसे पंडित निकले।
यह बताकर उन्होंने आपको आश्वस्त किया कि जो कहानी उनके कालेज की है वही आपके कालेज की भी समझिए। यदि आप यहां धैर्यपूर्वक काम करते रहेंगे तो यहां से महान लोग निकलेंगे। और उन्होंने इसका उपाय बताया-आत्म-विश्वास। आत्मविश्वास, ईश्वर में विश्वास और धैर्य से उत्पन्न होता है। कोई भी उत्तम वस्तु एकाएक नहीं बन जाती। विशाल सुदृढ़ वृक्ष का बीज कुछ काल तक धरती में ही रहता है किंतु माली जानता है कि यथा समय वह वृक्ष बन जाएगा। कुछ समय तक धरती पर घास रहेगी; और उसे उगते रहने दिया जाएगा। माली निराश नहीं होता क्योंकि वह इस विषय में जानता है। हम से एंड्रयूज ऐसे किसी ज्ञान की आशा नहीं रखते; किंतु श्रद्धा की आशा रखते हैं। श्रद्धा के संबंध में ‘बाइबिल’ की व्याख्या उन्होंने आपके सामने रखी, जो वस्तु दिखाई नहीं देती, श्रद्धा उसी का प्रमाण है। यदि आप में वैसी श्रद्धा हो तो विद्यापीठ कभी बंद नहीं होगा। जितने वर्ष पेंब्रोक को विकसित होने में लगे, इस विद्यापीठ को उतने नहीं लगे। आप कहेंगे कि क्या 15 बाल-विद्यार्थियों का बंद हो जाना ही प्रगति हुई। यदि और भी विद्यालय बंद हो जाएं, किंतु आप में श्रद्धा हो तो आप निराश न होंगे। बाल- विद्यालयों के बंद होने का कारण यह है कि हम अपने सिद्धांत पर अटल रहे, हम अपनी शर्त पर डटे रहे और कहाः ‘काम सको तो रहो, नहीं तो जाओ।’
एक दिन ऐसा भी आ सकता है कि यहां कोई न रहे, सिर्फ कुलपति ही बैठा हो, वही शिक्षक हो और वही शिष्य भी। उसके समाने उसका चरखा पड़ा हो तो कोई-न-कोई तो आएगा-जाएगा। यदि कोई भी न आए तो बंदर तो आएंगे और यदि उसमें श्रद्धा होगी तो वह वैदर्भी की भांति उनसे बातें करेगा और इसी से उसे आश्वासन मिलेगा। मेरी श्रद्धा का प्रमाण क्या है? उसका प्रमाण यही है कि वह है। आपसे यदि कोई पूछे तो उससे कहें कि वह जो चरखा-चरखा चिल्लाता रहता है, उसी के पास जाओ। यदि आप में इतनी श्रद्धा हो तो एंड्रयूज कहते हैं कि आप एक नहीं बल्कि एक हजार पेंब्रोक खड़े कर सकते हैं। कहां इंग्लैंड और कहां भारत; भारत में कितने ही इंग्लैंड समा जाएं। किंतु क्या हम में उतना साहस है? उतना धीरज है? हम अपने सिद्धांतों पर डटे रहें और विश्वास रखें। हमें उस दगाबाज व्यापारी की भांति व्यापार नहीं करना है, जो ग्राहक देखकर पुड़िया बांधता हे और दाम घटाता-बढ़ाता रहता है। ‘यदि नियमों में इतनी ढिलाई की जाए तो विद्यार्थी आएंगे, अंतः इतनी ढील दे दी जाए।’ इस प्रकार के व्यापार से न तो जनता को और न विद्याथियों को ही कुछ मिलेगा। यदि अध्यापकों में श्रद्धा होगी तो वे एक ही बात कहेंगे और विद्यार्थी भी एक ही बात कहेंगे। वे कहेंगे कि यदि मैं एक ही हूं तो भी क्या होता है? अध्यापक मुझ पर अपना सर्वस्व निछावर कर देंगे। ईश्वर भी एक ही है किंतु उसकी कृतियां अनेक हैं। इस प्रकार यदि कोई विद्यार्थी अकेला होते हुए भी निर्भय होकर विद्यालय में बैठ जाएगा तो इससे 100 विद्यार्थी तैया होंगे। यही एंड्रयूज के भाषण का सार है और यही उनकी वीणा का सुर है।
आप यह मानें कि यही भाषण मेरा भी है। आप अपने मन में विद्यालय के बारे में अभिमान की भावना रखें। विद्यापीठ को संभालें और अपने जीवन को समुज्जवल बनाएं। जहां भी रहें विद्यापीठ को सदा याद रखें। भविष्य में यह क्या रूप लेगा, सो आप कुछ दिनों में जान लेंगे। किंतु धीरज रखना चाहिए। मैं आपसे इतना तो कह ही देना चाहता हूं कि तब तक हम में से कुछ लोग भी जीवित रहेंगे, तब तक विद्यापीठ बंद नहीं होगा। इस विद्यापीठ की खातिर यदि मुझे अपनी हस्ती को मिटा देना पड़े, मरना-खपाना पड़े तो मैं उसके लिए तैयार हूं। आप यह विश्वास रखें कि अगर आप विद्यापीठ के तेज को सहन कर सकेंगे तो वह सदा आपका सहारा बना रहेगा। यदि आप उसके तेज को सहन न कर सकें तो मुझे दोष न दें, अध्यापकों को दोष न दें; विधाता को दोष दें। हालांकि हम अहिंसावादी हैं, फिर भी मैं आपसे कहता हूं कि यदि हम लोग अपने वचन का पालन न कर सकें तो आपको हमें कत्ल करने का अधिकार है।
(गुजराती से) नवजीवन, 22.1.1928 (गुजरात विद्यापीठ के दीक्षांत समारोह में 15 जनवरी, 1928 का भाषण)