भाषाएं परिनिष्ठित तथा लिखित साहित्य का माध्यम बनती हैं’, यह साहित्य की परिभाषा है लेकिन भाषाएँ अलगाववाद एवं राष्ट्रीय वितंडा पैदा करने का माध्यम भी बनती है, यह राजनीति की परिभाषा है. डीएमके के सिनेमाई युवराज एवं तमिलनाडु के उपमुख्यमंत्री उदयनिधि स्टालिन ने उक्त उक्ति को चरितार्थ किया है. सनातन धर्म के विरुद्ध विषवमन के पश्चात् उन्होंने अब हिन्दी विरोध में बयानबाजी शुरू की है. पिछले दिनों उन्होंने ये आरोप लगाया कि राज्य में हिन्दी थोपने की कोशिश की जा रही है. उनका यह भी आक्षेप था कि दूरदर्शन के तमिल कार्यक्रम के दौरान तमिलगान (राज्य गान) से जानबूझकर कुछ शब्द हटाये गये. वे नई शिक्षा नीति को भी हिन्दी थोपने की मुहिम बताकर उसका विरोध कर रहे हैं.
वैसे तमिल बनाम हिन्दी का वितन्डा नया नहीं है. ध्यात्वय है कि संविधान सभा ने 1949 में हिन्दी को राष्ट्रीय राजभाषा का दर्जा प्रदान किया था. 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के बाद इसे 15 साल का ग्रेस पीरियड मिला. यह मियाद 1965 को समाप्त होने वाली थी. उसी वर्ष यानि 1965 में ‘एकेडमी ऑफ़ तमिल कल्चर’ ने एक प्रस्ताव के माध्यम से यह मांग की कि केन्द्र एवं राज्य तथा एक राज्य से अन्य राज्यों के बीच होने वाले प्रशासनिक पत्राचार के लिए अंग्रेजी का इस्तेमाल पूर्ववत् बना रहे. इसके प्रस्तावकों में रामास्वामी पेरियार, राजगोपालाचारी, सी.एन.अन्नादुरई जैसी शख्सियतें शामिल थीं. तब डीएमके ने इसे द्रविड़ अभियान के रूप में शुरू किया और इसको दक्षिण के राज्यों पर हिन्दी थोपने की मुहिम के रूप प्रचारित किया. डीएमके के सर्वोच्च नेता सी. अन्नादुरई तो हिन्दी विरोध में इतने उग्र हो गए कि हिन्दी को एक विशेषताहीन, पिछड़ी क्षेत्रीय भाषा बताने लगे जो विज्ञान और तकनीक के इस युग में फिट होने लायक नही थी.
इसी परिपेक्ष्य में बताते चलें कि द्रविड़ आंदोलन की व्यवस्थित शुरुआत 1916 में जस्टिस पार्टी की स्थापना के साथ हो गई थी. हालांकि द्रविड़नाड़ु आंदोलन रामास्वामी पेरियार द्वारा 1938 में पूरे भारत में शिक्षा हेतु हिन्दी की अनिवार्यता की योजना के प्रतिक्रियास्वरुप प्रारम्भ किया गया. जिसे बाद में उनके सहयोगियों अन्नादुरई एवं करुणानिधि आदि द्वारा पोषित किया गया. इसी विचारधारा की प्रतिनिधि डीएमके ने अलगाववादी रुख अपनाकर तमिल अस्मिता के नाम पृथ्क द्रविड़नाड़ु की मांग प्रारम्भ की थी जिसमें बाद में द्रविड़ आबादी के रूप में दक्षिण के बाकी राज्यों आंध्र, केरल, कर्नाटक में प्रसारित करते हुए ‘डेक्कन फ़ेडरेशन’ का नाम दिया गया. हालांकि1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान इस अलगाववादी द्रविड़नाड़ु विचार का परित्याग कर दिया गया. लेकिन हिन्दी विरोध की राजनीति चलती रही.
पुनश्च, हालांकि पं. नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार पहले ही यानि सन् 1963 में संसद में ‘ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट’ पास करवाया था जो 1965 के बाद भी हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी के प्रयोग की स्वीकोरोक्ति थी. लेकिन राजनीतिक कुटिलता में डीएमके ने पूरे तमिलनाडु को उपद्रव की आग में झोंक दिया. राज्य के सैकड़ो गाँवों में हिन्दी के पुतले और हिन्दी की किताबें, यहाँ तक कि हिन्दी में लिखी संविधान की प्रतियाँ तक जलाई गईं. सरकारी संस्थानों रेलवे स्टेशनों, डाकघरों आदि से हिन्दी के चिन्हों पर कालिख पोती गई. दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से गणतंत्र दिवस के दिन मद्रास में दो व्यक्तियों ने आत्मदाह कर लिया और तिरुची में एक व्यक्ति ने जहर खाकर आत्महत्या कर ली. इसके बाद आंदोलन ने और भयंकर रूप धारण कर लिया. राज्यभर में आंदोलनकारियों और पुलिस में भीषण झड़प हुई.
हालांकि प्रबल रूप से हिन्दी के समर्थक प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री इस बात के लिए प्रतिबद्ध थे कि संघ की राष्ट्रभाषा हिन्दी ही होनी चाहिए. उधर मोरारजी देसाई तो यह घोषणा कर रहे थे कि हिन्दी को राजभाषा का दर्जा देने का कार्य पचास के दशक में ही हो जाना चाहिए था लेकिन आंदोलन की बढ़ती उग्रता और सरकार पर अतिदबाव के कारण प्रधानमंत्री शास्त्री जी ने भाषा सम्बन्धी पांच आश्वासन जारी किये जिनमें हरेक प्रान्त को अपनी क्षेत्रीय भाषा या अंग्रेजी में कामकाज का अधिकार, राज्यों के मध्य आपस में होने वाले पत्राचार को अंग्रेजी या किसी भी क्षेत्रीय भाषा के साथ उसका प्रमाणिक अनुवाद दिया जाएगा, गैर-हिन्दी भाषी राज्यों को केन्द्र के साथ अंग्रेजी में पत्राचार एवं इस नियम में कोई भी परिवर्तन उनकी सहमति से ही होगी, केन्द्रीय स्तर पर प्रशासनिक कार्यों में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा एवं पाँचवा, अखिल भारतीय सिविल सेवा परीक्षाएँ अंग्रेजी में होती रहेंगी.
इस सारे क़ानूनी तथ्यों के बावजूद डीएमके की ओर से आये दिन औचित्यहीन भाषा सम्बन्धी विवाद पैदा करने का तुक समझना फिर भी कठिन नहीं है. असल में जयललिता की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात् एआईएडीएमके तेजहीन और तमिलनाडु की राजनीति मानो विपक्षहीन हो गईं है. इस कारण डीएमके सरकार लगामहीन और पथभ्रष्ट हो चुकी है. तमिलनाडु की जनता में शासन को लेकर एंटी-इन्कबेसी और तीव्र असंतोष व्याप्त है. जमात और मिशनरियों के दबाव में सरकार जिस तरह हिन्दू विरोधी कृत्यों में लिप्त है, उससे धार्मिक गोलबंदी की संभावना बढ़ रही है जिससे भाजपा के लिए एक मुफिद राजनीतिक समर्थन की जमीन तैयार होती जा रही है, जिसे डीएमके भी महसूस कर रही है. ऐसे में भाषा और क्षेत्रवाद के संकीर्ण मुद्दों के माध्यम से पार्टी नेतृत्व स्थानीय मामलों से तमिल जनता को भटकाने के साथ ही उनकी गोलबंदी में जुटी है. यह अनायास नहीं है कि डीएमके के सिनेमाई युवराज उदयानिधि स्टालिन आये दिन संकुचित मुद्दों के आधार पर विवादित बयानबाजी में लगे रहतें हैं.
हालांकि परिवार की लम्बी राजनीतिक विरासत को देखकर भी उन्हें इस मूलभूत मुद्दे की समझ नहीं हो पाई है कि सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे ‘काठ की हांडी’ होते हैं जो बार-बार राजनीति के चूल्हे पर नहीं चढ़ाये जा सकते है. आज करूणानिधि के पोते उदयानिधि अतीत की जिस सफल राजनीतिक मुहिम के द्वारा स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं, वैसी कोशिशें पहले भी असफल रूप से की जा चुकी हैं और जिन्हें अभी भी दोहराने का प्रयास हो रहा है.
उदाहरणस्वरुप लालू यादव की सामाजिक गोलबंदी की सफल रणनीति को उनके बेटे तेजस्वी यादव द्वारा पुनः अगड़ा-पिछड़ा की जातीय गुटबाजी का पुनः प्रयोग का प्रयास पिछले लोकसभा एवं विधानसभा के चुनावों में औधे मुँह गिर चुका है. बाल ठाकरे के दक्षिण विरोध के नाम पर खड़ा मराठी मानुष और शिवसेना आंदोलन के तर्ज पर मनसे की बिहारी भगाओ मुहिम असफल रही और अगले बाला साहेब बनने का राज ठाकरे का ख्वाब आज भी अधूरा ही है. स्वयं राममंदिर आंदोलन की भांति भाजपा की काशी की ज्ञानवापी मस्जिद विरोध एवं मथुरा की ईदगाह विरोध अब तक हिन्दू समाज को आंदोलित एवं गोलबंद करने में अक्षम रही है.
यह आवश्यक नहीं कि जनता हर क्षेत्रवाद, भाषा, पंथ के संकीर्ण मुद्दे पर आंदोलित हो ही जाये. इससे पूर्व जम्मू-कश्मीर की भांति कर्नाटक में राष्ट्रीय ध्वज से अलग प्रदेश के लिए झंडे के नाम पर पृथ्कतावादी क्षेत्रवाद की राजनीति करके कांग्रेस 2018 के विधानसभा के चुनाव में पराजित हो चुकी है.
लेकिन डीएमके के युवराज इससे सीख नहीं ले पाये हैं. दिक्कत ये है कि वंशवाद से सत्तासीन अयोग्य लोगों को तो सत्ता प्राप्ति के आसान रास्ते आसान ही समझ आते हैं जैसे तेजस्वी यादव, राज ठाकरे और अब उदयानिधि स्टालिन के चाल-चरित्र से दिख रहा हैं. असल में ये नहीं समझ पाते कि तब से लेकर अब तक इतिहास और समय के दरिया में काफी पानी बह चुका है. मुहावरें की भाषा में कहें तो काठ की हांडी बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ती. और वैसे भी ऐसे वंशवादियों से सकारात्मक राजनीति की उम्मीद की भी नहीं जानी चाहिए क्योंकि ऐसे लोग स्वयं ही एक नकारात्मक परंपरा की उपज होते हैं.
वैसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति (2020) के त्रिभाषा सूत्र के बाद तो शिक्षा या आधिकारिक भाषा सम्बन्धी विवाद तो होना ही नहीं चाहिए लेकिन राजनीति की कुटिलता का क्या करें. डीएमके का हिन्दी विरोध तो फिर भी समझा जा सकता है, लेकिन अंग्रेजी समर्थन समझ से परे है. क्या ये सिर्फ हिन्दी को नीचा दिखाने का प्रयास है? उन्हें ये समझना होगा कि भाषा मानव समाज की चेतना में यथार्थ निर्मित करती है और राष्ट्रीयता की सरस्वती का निवास राष्ट्रीय भाषा में ही होता है.
उन्हें ये भी जानना होगा कि राष्ट्रीय एकता का मजबूत लोकतान्त्रिक ढांचा भाषा, क्षेत्रवाद, जाति, पंथ जैसे क्षुद्र मुद्दों के त्याग पर खड़ा होता है.. दूर क्यों, सर्वविदित है कि भोजपुरी-अवधी के उन्नयन की समाधि पर ही हिन्दी का भव्य महल खड़ा किया गया है. हिन्दी के अस्तित्व निरुपण में सर्वाधिक योगदान भोजपुरी-अवधी भाषाओं ने दिया है. हिन्दी के महानतम्, मूर्धन्य साहित्यकारों भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद से लेकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी तक की समृद्ध परंपरा इन्हीं भाषा द्वय तथा इन्हीं क्षेत्रों के भूमिपुत्र थे. लेकिन इन युगल भाषाओं के प्रतिनिधि क्षेत्रों की मूल सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना ने ही अपने सरस्वती के वरद पुत्रों को राष्ट्रीय एकता के सन्दर्भ में राष्ट्रभाषा हिन्दी की समृद्ध परंपरा के कर्मठ उन्नायक बनने के लिए प्रेरित किया. यह कहने का तात्पर्य है कि राष्ट्रीय एकता के लिए सभी को अपने निजी दृष्टिकोण को उदारता के सांचे में ढालने के लिए तत्पर होना चाहिए. साथ ही यह भी आवश्यक है कि देश के हर भाषा एवं स्थानीय संस्कृति का संरक्षण, परिवर्धन होता रहे, इसे राष्ट्रीय दायित्व के रूप में स्वीकारना होगा.
लेकिन इतिहास की विरासत को देखकर ऐसे क्षेत्रवादी, भाषाई अस्मिता के विघटनकारी स्वरों की अनदेखी भी नहीं की जानी चाहिए. हमें ये याद रखने की जरुरत है कि उर्दू के उन्माद एवं बांग्ला के अस्मिता के संघर्ष जैसे भाषाई विवाद ने पाकिस्तान का विभाजन करा दिया और बंगाली संस्कृति के सम्मान के नाम पर बांग्लादेश का निर्माण हुआ. अतः विगत समय में विभाजन से हताहत भारत की भारतीय को एकनिष्ठ एवं सुरक्षित रखने हेतु भाषा समेत जाति, पंथ जैसे किसी भी प्रकार के संकुचित दृष्टिकोण का दृढ विरोध के साथ ऐसी कुत्सित मानसिकता का पूर्णरुपेण शमन किया जाना चाहिए.