घोषित इमरजेंसी का राजफास

रामबहादुर राय

भारत का हर सजग नागरिक यह तो भलीभांति जानता है कि राजनीतिक नेताओं और पत्रकारों की गिरफ्तारियां पहले ही शुरू हो गई। इमरजेंसी की घोषणा अगले दिन हुई। ऐसा क्यों हुआ? यह एक पहेली है। वह अब हल हो गई है। उसका राजफास हो गया है। लोग यह नहीं जानते थे कि संविधान की हत्या करने के बाद इमरजेंसी घोषित की गई। इसे ही निशान लगाकर बताने के लिए भारत सरकार ने ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने का फैसला किया है। गृहमंत्री अमित शाह ने 12 जुलाई, 2024 को इसकी घोषणा की। उन्होंने कहा कि ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने से प्रत्येक भारतीय में व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतंत्र की अमर ज्वाला को प्रज्वलित रखने में मदद मिलेगी।गृह मंत्रालय ने एक राजपत्र की सूचना में यह कहा कि ‘भारत सरकार 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में घोषित करती है, ताकि आपातकाल के दौरान सत्ता के घोर दुरूपयोग के खिलाफ लड़ने वाले सभी लोगों को श्रद्धांजलि दी जा सके और भारत के लोगों को भविष्य में किसी भी तरह से सत्ता के ऐसे घोर दुरूपयोग का समर्थन न करने के लिए पुनः प्रतिबद्ध किया जा सके।’ जो पहेली थी, वह क्या थी? प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने के लिए अपने मंत्रिमंडल से कोई बातचीत नहीं की। मंत्रिमंडल की मंजूरी नहीं ली, जबकि संविधान में यह व्यवस्था है कि इमरजेंसी चाहे जिस तरह की हो उस पर मंत्रिमंडल में विचार होना चाहिए। उसकी मंजूरी से इमरजेंसी लगाने की सलाह राष्ट्रपति को दी जानी चाहिए। इंदिरा गांधी ने उलट तरीका अपनाया। 25 जून की सुबह वे राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से मिली। देर शाम साढ़े दस बजे उनका पत्र राष्ट्रपति भवन पहुंचा। उस पर अत्यंत गोपनीय लिखा हुआ था |

राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद के सचिव के. बालाचंद्रन ने शाह आयोग में गवाही दी कि ‘मैंने राष्ट्रपति को  सलाह दी थी कि इस पत्र पर हस्ताक्षर करना संवैधानिक दृष्टि से अनुचित होगा।’ उन्होंने यह सलाह दो कारणों से दी। पहला, वह पत्र इस तरह लिखा गया था कि इमरजेंसी की घोषणा का निर्णय राष्ट्रपति का है। दूसरा, मंत्रिमंडल की सहमति का कोई उसमें उल्लेख नहीं था। वह पत्र लेकर आर.के. धवन गए थे। राष्ट्रपति ने उस पर रात के 11 बजकर 45 मिनट पर हस्ताक्षर किया। आम धारणा है कि राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने बिना ना-नुकर किए आर.के. धवन के लाए कागज पर हस्ताक्षर कर दिया। इसके अनेक कारण गिनाए जाते हैं। इस धारणा के विपरीत एक तथ्य है। अगर राष्ट्रपति तुरंत हस्ताक्षर करते तो उसका समय वह नहीं होता जो हम जानते हैं। उन्होंने सोच-विचार के लिए समय लिया। अपने डाक्टर को उन्होंने बुला लिया। वे हृदय रोगी थे। उनके डाक्टर थे, आर.के. करौली। वे उस समय के साक्षी हैं। यह भी सच है कि आखिरकार राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर कर ही दिए। पर उतना ही सच यह भी है कि वे मजबूर थे।

राष्ट्रपति के हस्ताक्षर को इंदिरा गांधी ने अपने लिए सनद माना। मनमानी शुरू करा दी। पुलिस राज कायम हो गया। 26 जून की सुबह 5 बजे इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल के मंत्रियों को सोते से जगाया गया। मंत्रिमंडल की बैठक में ही उन्हें पता चला कि क्यों बुलाया गया है। सुबह 6 बजे के बाद एक अकबर रोड पर मंत्रिमंडल की बैठक हुई। वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का आवासीय कार्यालय था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मंत्रियों को सूचित किया कि इमरजेंसी इसलिए जरूरी है क्योंकि देश  में कानून-व्यवस्था तेजी से बिगड़ रही है। गृह सचिव एस.एल. खुराना ने राष्ट्रपति की हस्ताक्षरित घोषणा को पढ़कर सुनाया। गृह राज्य मंत्री ओम मेहता ने मनगढ़ंत ब्यौरा सुनाया। गृह मंत्री के. ब्रह्मानंद रेड्डी इन बातों से अनभिज्ञ थे। यह विडंबना नहीं थी तो और क्या था! रक्षा मंत्री स्वर्ण सिंह हालांकि अत्यंत विनम्र व्यक्ति थे फिर भी वे सहन नहीं कर सके और पूछ ही लिया कि इमरजेंसी की जरूरत क्या थी। उन्हें प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का कोपभाजन बनना पड़ा। उनसे रक्षा मंत्रालय ले लिया गया। उसी दिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी पर राष्ट्र के नाम अपने संदेश  में यह कहा, ‘उस गहरी व व्यापक साजिश  की आप सब को जानकारी होगी जो अपने देश में तभी से रची जा रही है जब से मैंने अपने देश  की सामान्य जनता की तरक्की के लिए कुछ प्रगतिशील पग उठाने शुरू किए। जनतंत्र के नाम पर जनतंत्र का चलना ही असंभव बना दिया गया। जनता द्वारा निर्वाचित सरकारों को काम नहीं करने दिया गया। यही नहीं, कुछ मामलों में तो विधिवत् निर्वाचित विधान-सभाओं को भंग कराने के लिए विधायकों को त्यागपत्र देने के लिए विवश किया गया। सारा वातावरण आंदोलनमय बना दिया गया। जिसके परिणामस्वरूप हिंसक घटनाएं होने लगीं। मेरे मंत्रिमंडल के साथी ललित नारायण मिश्र की हत्या कर दी गयी। मुझे खेद है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश तक पर हमला किया गया।’ ‘कुछ लोगों ने तो सभी सीमाएं पार कर हमारी सेना को विद्रोह करने तथा पुलिस को भी बगावत करने के लिए उभाड़ना भी शुरू कर दिया।…विघटवादी ताकतें खुलकर खेल रही थीं और सांप्रदायिक भावनाओं को उभाड़कर देश की एकता के लिए खतरा पैदा किया जा रहा था।’ ‘मेरे ऊपर सब प्रकार के बेबुनियाद आरोप लगाए जाने लगे। भारत की जनता मुझे मेरे बचपन से ही जानती है।

जीवनभर मैंने जनता की सेवा की है। मेरे ऊपर हमला कोई व्यक्तिगत मामला नहीं हैं। मैं प्रधानमंत्री रहूं या न रहूं, यह महत्व की बात नहीं है। महत्वपूर्ण है प्रधानमंत्री का पद, जिसकी गरिमा व प्रतिष्ठा को योजनापूर्वक गिराने का प्रयास लोकतंत्र के हित में नहीं है।’‘हमने यह सब पूरे धैर्य के साथ अब तक सहा। पर अब हमें पता चला कि शांति-व्यवस्था को भंग करने वाले कार्यक्रम देशभर में चलाने की घोषणा की गयी है। कोई भी सरकार देश  की स्थिरता को खतरे में डालने वाली ऐसी हरकतों की अनुमति कैसे दे सकती है? कुछ लोगों के कार्य देश की अधिसंख्य जनता के अधिकारों को खतरे में डाल रहे हैं। राष्ट्रीय सरकार को अंदर से कमजोर करने वाली कोई भी स्थिति बाहरी खतरों को निमंत्रण देगी। यह हमारा सर्चोच्च कर्तव्य है कि हम देश की एकता और स्थिरता की रक्षा करें। राष्ट्र की अखंडता इस समय कठोर पग की मांग करती है।’

‘इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर राष्ट्रपति ने आपात स्थिति की घोषणा की है, परंतु मैं विश्वास दिलाना चाहती हूं कि कानून को मानने वालों के अधिकार आपात स्थिति की घोषणा से कतई प्रभावित नहीं होंगे। मुझे विश्वास है कि हालात शीघ्र सुधरेंगे और आपात स्थिति समाप्त करना संभव हो सकेगा।’ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के इस संदेश में दो आरोप हैं। पहला आरोप लोक नायक जयप्रकाश नारायण पर है, हालांकि उनका नाम प्रधानमंत्री ने नहीं लिया। दूसरा आरोप लोक संघर्ष समिति के संयोजक नाना जी देशमुख पर है। सबसे पहले जेपी पर जो आरोप परोक्ष रूप से इंदिरा गांधी ने लगाया उसकी छानबीन करना जरूरी है। इसे समझने के लिए प्रखर पत्रकार प्रभाष जोशी के एक लेख का यह अंश पढ़िए, ‘पच्चीस जून की रात रामलीला मैदान में जेपी का भाषण खत्म हुआ तो हम उन्हें गांधी शांति प्रतिश्ठान में उनके कमरे में छोड़कर अपने घर गांधी निधि की राजघाट कॉलोनी में आ गए। रात में ही पता चला कि जेपी को गिरफ्तार कर लिया गया है। छब्बीस जून की सुबह इंदिरा गांधी को आकाशवाणी से इमरजेंसी लगाते सुना। जेपी की गिरफ्तारी और इमरजेंसी का एक कारण यह बताया गया कि उन्होंने रामलीला मैदान से सेना और पुलिस को बगावत करने के लिए भड़काया।’ ‘जेपी का पूरा भाषण मैंने खुद हूबहू नोट किया था। क्या कहा था उन्होंने-‘जब ये लोग देशभक्ति के नाम पर, लोकतंत्र के नाम पर, कानून के नाम पर जो भी हुक्म दें और उसका आप पालन करें तो यह पालन है या उसका अपमान है? यह सोचने के लिए मैं बराबर चेतावनी देता रहा हूं। सेना को यह सोचना है कि जो आदेश मिलते हैं उनका पालन करना चाहिए कि नहीं? देश की सेना के लिए आर्मी एक्ट में लिखा हुआ है कि भारत के लोकतंत्र की रक्षा करना उसका कर्तव्य है।

लोकतंत्र की संविधान की रक्षा करने का। हमारा संविधान लोकतांत्रिक है और इसलिए कह रहा हूं कि लोकतंत्र की रक्षा उसका कर्तव्य है…और यह प्रधानमंत्री उसको आदेश दे तो उसके पीछे कौन-सी ताकत होगी? जिस प्रधानमंत्री के हाथ-पैर इतने बंधे हो जो पार्लियामेंट में बैठ तो सकती हों, पर वोट नहीं दे सकती हों उनके आदेश?’ ‘डेढ़ घंटे के उस भाषण में सेना को ‘भड़काने’ की यही बात थी और यह भी उन्होंने कोई पहली बार नहीं कही थी। वे तीन-चार महीने से कह रहे थे कि सेना और पुलिस को गैरकानूनी आदेश नहीं मानने चाहिए। अपने अखबार एवरीमेंस में दिए एक-एक इंटरव्यू में उन्होंने अप्रैल, 75 में ही कहा था-‘पुलिस को यह बताना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं कि मैं उन्हें बगावत करने को नहीं कह रहा हूं। उन्हें अपना कर्तव्य करना चाहिए। लेकिन उन्हें ऐसे आदेशों का पालन नहीं करना चाहिए जो गैरकानूनी हों और जिन्हें उनकी आत्मा न मानती हो।’

सेना को उनकी सलाह थी-‘सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च सेनापति के नाते भारत के राष्ट्रपति संविधान की रक्षा के लिए वचनबद्ध हैं। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना तार्किक है कि तानाशाही खतरों से देश के संविधान की रक्षा करना हमारी सेना का कर्तव्य है। अगर कोई पार्टी या पार्टी का नेता अपनी पार्टी के हितों या नेता की सत्ता की रक्षा के लिए सेना का इस्तेमाल करना चाहे तो मेरी समझ में सेना का यह स्पष्ट कर्तव्य है कि वह इस तरह इस्तेमाल किए जाने से इनकार करे।’‘उनके ऐसा कहते रहने पर कांग्रेस और सरकार के नेताओं ने कहा था कि जेपी के खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाएगा। रामलीला मैदान के उस भाषण में भी जेपी ने कहा था-‘और मेरे ऊपर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जाएगा तो मैंने कहा ठीक है, चलाइए मुकदमा हमारे पर देशद्रोह का। जयप्रकाश नारायण जिस दिन देशद्रोही हो जाएगा इस देश में कोई देशभक्त नहीं रह जाएगा।’

‘जेपी संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए पुलिस और सेना करे बार-बार क्यों चेता रहे थे? क्या वे सेना को साथ लेकर उसकी बगावत से इंदिरा गांधी की सत्ता पलट करना चाहते थे? क्या ऐसी सैनिक तानाशाही के लिए वे इंदिरा गांधी को तानाशाह कहते और अपने लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देते थे? उन्हें चेतावनी इसलिए देनी पड़ रही थी कि इंदिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी पसंद के मुख्य न्यायाधीश बैठाने के बाद जनरल रैना को सेनापति बनाया था जो कश्मीरी थे और उनके नजदीक माने जाते थे। उन्होंने खुफियागिरी की जिम्मेदारी काक को सौंपी थी जो कश्मीरी  तो थे ही इंदिरा गांधी के वफादार थे। बीएसएफ उन्होंने अश्विनी कुमार को सौंपी थी जिन पर उनका भरोसा था।’

‘इन नियुक्तियों के साथ ही दिल्ली के सरकारी और राजनीतिक हलकों में उन उपायों की बात भी होती रहती थी जिन्हें बिहार आंदोलन से निपटने के लिए इंदिरा गांधी अपना सकती थी। इनमें एक उपाय जिस पर सरकारी मशीनरी में काम हो रहा था-सेना के इस्तेमाल का भी था। जेपी को यह वाहियात लगता था कि एक लोकतांत्रिक जन आंदोलन को कुचलने के लिए एक निर्वाचित सरकार की प्रधानमंत्री सेना के इस्तेमाल के विकल्प को भी ध्यान में रखे हुए हैं। इस संभावना का सामना करने के लिए जेपी खुले तौर पर सार्वजनिक सभाओं में ऐसा कहते थे। वे कोई षडयंत्र नहीं रच रहे थे, न पुलिस और सेना को बगावत के भड़का रहे थे। वे एक संभावना से लोगों को खबरदार कर रहे थे।’ प्रभाष जोशी का यह अंतिम लेख है जो उनकी अभी-अभी प्रकाशित पुस्तक-‘घंटी तो बजनी है’ में छपी है। समय साक्षी है। जेपी पर इंदिरा गांधी का आरोप निराधार था।

 

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