स्वतंत्रता संग्राम के नेता तो नेताजी थे

 

बनवारी

आजाद हिंद फौज की स्थापना की 75वीं वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसी लाल किले पर झंडा फहराकर सुभाष चंद्र बोस और देश के स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को याद किया, जहां ब्रिटिश सरकार ने आजाद हिंद फौज के सेनानियों पर मुकदमे चलाए थे। आजाद-हिंदफौज से जुड़े हुए लोगों और उनके प्रशंसकों के लिए लाल किले पर झंडा फहराना एक भावनात्मक मुद्दा था। इसकी योजना कलकत्ता में उनके द्वारा ही बनाई गई थी। पश्चिम बंगाल प्रदेश बीजेपी के उपाध्यक्ष चंद्र कुमार बोस सुभाष बाबू के कुटुम्ब से ही हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था कि वे इस अवसर पर स्वयं उपस्थित हों और सुभाष चंद्र बोस के सहयोगी और प्रशंसकों की इस इच्छा का सम्मान करते हुए झंडा फहराएं। नौकरशाही को फैसले लेने में समय लगता है। जब उन्हें समय पर उत्तर नहीं मिला, तो उन्होंने घोषणा की कि वे स्वयं ऐसा करेंगे। लेकिन अंतत: सरकार ने निर्णय लिया और प्रधानमंत्री ने लाल किले पर झंडा फहराकर आजाद हिंद फौज को याद किया।

कांग्रेस ने हमेशा देश की आजादी और देश के विकास के लिए नेहरू और उनके वंश को ही श्रेय दिया है। स्वाधीनता संग्राम के शेष सभी योद्धाओं के योगदान को भुला दिया गया। सुभाष चंद्र बोस और सरदार पटेल जैसे सेनानी भी उपेक्षा के शिकार होकर रह गए। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके योगदान को सम्मान दिया है।

अपने भाषण में उन्होंने दो महत्वपूर्ण बातें कही। एक यह कि जवाहरलाल नेहरू के समय से स्वाधीनता संग्राम के अन्य सब महत्वपूर्ण नेताओं के योगदान को भुला दिया गया। कांग्रेस ने केवल जवाहरलाल नेहरू और उनके वंश को ही पहले आजादी की लड़ाई और फिर देश के विकास का श्रेय दिया, बाकी सब नेपथ्य में डाल दिए गए। उन्होंने दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कही कि नेहरू वंश ने देश को हमेशा अंग्रेजों की दृष्टि से देखा है। अगर देश का शासन नेहरू के अलावा किसी और नेता को मिला होता, तो ऐसा नहीं होता। इनमें उनकी पहली बात तो पूरी तरह सही है। लेकिन दूसरी बात आंशिक तौर पर ही सही है। गांधी जी को छोड़कर अधिकांश नेता अंग्रेजी शिक्षा के कारण अंग्रेजों की दृष्टि से ही प्रभावित रहे हैं।

सुभाष चंद्र बोस का देश की आजादी की लड़ाई में योगदान नि:संदेह जवाहरलाल नेहरू से कहीं अधिक था। आजादी की लड़ाई का नेतृत्व 1919 के बाद महात्मा गांधी के हाथों में चला गया था। तब से वही आंदोलन के सेनापति थे और सब उनके पीछे-पीछे चलने वाले सिपाही। जवाहरलाल नेहरू का योगदान तो सरदार पटेल और आचार्य कृपलानी से भी कम था। पटेल ने अपने दम पर किसान आंदोलन का नेतृत्व किया और कृपलानी ने खादी आंदोलन का। नेहरू केवल राजनैतिक आंदोलन के समय देश में दिखाई देते थे और अपने परिवार के संपर्कों के बल पर अपना प्रचार करवा लेते थे। उन्होंने स्वतंत्र रूप से कोई आंदोलन खड़ा नहीं किया और अक्सर यूरोप में ही दिखाई दिए।

जवाहरलाल नेहरू का योगदान तो सरदार पटेल और आचार्य कृपलानी से भी कम था। पटेल ने अपने दम पर किसानआंदोलन का नेतृत्व किया और कृपलानी ने खादी आंदोलन का। नेहरू केवल राजनैतिक आंदोलन के समय देश में दिखाई देते थे और अपने परिवार के संपर्कों के बल पर अपना प्रचार करवा लेते थे।

महात्मा गांधी से उनके विचार कभी नहीं मिले। महात्मा गांधी को यह तक कहना पड़ा कि अगर वे उनसे इतने असहमत हैं, तो अपना अलग रास्ता चुन लें। लेकिन जवाहरलाल नेहरू की कभी इतनी हिम्मत नहीं हुई। सुभाष बाबू दूसरी बार महात्मा गांधी की अनिच्छा के बावजूद कांग्रेस के अध्यक्ष बने। जब उन्हें अन्य नेताओं का सहयोग नहीं मिला, तो वे इस्तीफा देकर चले गए और उन्होंने अपनी सोच के अनुरूप रास्ता चुन लिया। देश के सामान्य लोग गांधीजी के बाद आज भी सबसे अधिक सुभाष बाबू को ही याद रखते हैं। लेकिन कांग्रेस के शासन में उनके योगदान को निरंतर नकारा गया। 1977 तक संसद भवन में सुभाष बाबू की तस्वीर तक नहीं लगाई गई थी। इसलिए नरेंद्र मोदी का यह आरोप अक्षरश: सही है कि नेहरू-इंदिरा गांधी परिवारने अपने वंश से बाहर कभी नहीं देखा। सरदार पटेल उनकी उपेक्षा का दूसरा उदाहरण हैं, जिन्हें कभी उनका प्राप्य नहीं दिया गया। जबकि आजादी के बाद के कठिन दौर में भी उनकी दृष्टि और योगदान नेहरू से अधिक महत्वपूर्ण था।
प्रधानमंत्री का दूसरा कथन उतना सही नहीं है। उसका एक उदाहरण तो स्वयं लाल किला है। उसे जवाहरलाल नेहरू ने जो प्रतीकात्मकता दी थी, उसे बीजेपी शासन में भी बदला नहीं गया। आजाद हिंद फौज के सहयोगियों और समर्थकों के लिए यह भावनात्मक मुद्दा हो सकता है कि उनके सेनानियों पर जिस लाल किले में मुकदमा चलाया गया था,वहां झंडा फहराया जाए। लेकिन लाल किला ब्रिटिश सत्ता का प्रतीक नहीं है। वह मुगल सत्ता का प्रतीक है। लगभग दो सौ वर्ष लाल किले से मुगल वंश के शासकों ने अपना राज्य चलाया। लाल किला 1648 में बनकर तैयार हुआ था। उसे शाहजहां ने तैमूरी और फारसी स्थापत्य के हिसाब से बनवाया था। मुगल अपने आपको तैमूरी ही कहते थे, जबकि इतिहास में तैमूरलंग एक क्रूर और नृशंस व्यक्ति के रूप में ही देखा जाता है।

मुगल नाम इतिहासकारों का दिया हुआ है। क्योंकि मुगल वंश का मूल मंगोल कबीलों से ही था। लाल किले को लूटने का काम भी एक वैसे ही नृशंस मुस्लिम हमलावर नादिर शाह ने किया था। असल में 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल शासन नाममात्र का बचा था। 18वीं शताब्दी मराठों के साम्राज्य की शताब्दी थी। उनका शासन मुगलों के शासन से भी विस्तृत क्षेत्र में था। अंग्रेजों ने भारत को मुगलों से नहीं, मराठों से ही जीता था। मराठों की शक्ति तबतक बिखर कर क्षीण हो गई थी। लेकिन ब्रिटिश लोगों ने अपने राज्य को स्थायित्व देने के लिए यह भ्रम पैदा किया कि भारत सदा दूसरों के अधीन रहा है। उनसे पहले भी भारत विदेशियों के नियंत्रण में था। उन्होंने सत्ता मुगलों से प्राप्त की।         

अंग्रेजों की इस बात को हम आज तक अपने छात्रों को पढ़ाते चले आ रहे हैं। यह जवाहरलाल नेहरू की भ्रामक समझ थी कि देश की आजादी का उत्सव लाल किले पर झंडा फहराकर मनाया जाना चाहिए। क्योंकि वे मानते थे कि अंग्रेजों से आजादी का मतलब उससे पहले के मुगल शासन की निरंतरता में आना है। लाल किला हमारी स्वतंत्रता का किसी भी रूप में प्रतीक नहीं हो सकता था। वह मुगल सत्ता का भी मुश्किल से 60 वर्ष (1648 से 1707) प्रतीक रहा। क्योंकि औरंगजेब के बाद का मुगल शासन तो दिल्ली में ही सिमटा रहा। उसे जाटों ने ही नहीं, कई अन्य शक्तियों ने अनेक बार लूटा। अंग्रेजों ने हमारा इतिहास जिस तरह लिख दिया, उससे नेहरू वंश तो प्रभावित था ही, अन्य लोग भी उसके प्रभाव से मुक्त नहीं है।

बीजेपी के शासन में भी कभी इस पर विचार नहीं हुआ कि स्वतंत्रता दिवस को लाल किले से झंडा फहराकर क्यों मनाया जाना चाहिए। ऐसा सोचने वाले लोगों की आज भी कमी नहीं है कि भारत एक हजार वर्ष तक मुसलमानों की अधीनता में रहा। सच्चाई यह है कि मुसलमानों का देश के बड़े क्षेत्र पर राज खिलजी वंश से औरंगजेब के शासन तक कोई 350 वर्ष ही रहा। उससे पहले और उसके बाद मुस्लिम शासकों से बड़ी शक्तियां देश में थीं|

देश का अधिकांश भाग हिंदु राजाओं द्वारा शासित था। वैसे भी देश का 40 प्रतिशत भाग हमेशा देशज शक्तियों के हाथ में रहा है। ब्रिटिश शासन के दौरान भी यही स्थिति थी। विश्व में शायद ही कोई जाति अपने इतिहास की ऐसी भ्रामक समझ रखे हुए मिलेगी, जैसी अंग्रेजी शिक्षा के कारण हम रखे हुए हैं। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि शासन नेहरू परिवार के हाथ में न गया होता तो हम अपनी स्वतंत्र दृष्टि विकसित कर पाए होते। कम से कम अब तो हमें
ऐसा करने से रोकने वाला कोई नहीं है। लेकिन आज भी भारतीय सभ्यता की दृष्टि को विकसित करने की कोई पहल होती दिखाई नहीं देती। सुभाष बाबू के साथ नेहरू-इंदिरा गांधी वंश ने निश्चय ही अन्याय किया है। लेकिन सुभाष बाबू के भक्तों ने भी सुभाष चंद्र बोस को अधिक महान नेता दिखाने के लिए सुभाष बनाम गांधी बहस छेड़ रखी है। वे सब यह मानते हैं कि देश को आजादी महात्मा गांधी के कारण नहीं मिली, सुभाष चंद्र बोस के कारण मिली है।

असल में यह बहस ही गलत है। अंग्रेज देश को मुख्यत: अपने आंतरिक कारणों से छोड़कर गए थे। दूसरे महायुद्ध में यूरोप की सभी शक्तियां क्षीण हुई थीं और उनका भौतिक ताना-बाना ध्वस्त हो गया था। उन्हें उसे फिर से खड़ा करने के लिए अपनी सारी शक्ति उसी में लगानी थी। इसलिए उन्होंने अपने-अपने उपनिवेशों को छोड़कर वापस लौटने का फैसला किया। 1950 से 1970 तक विश्व के अधिकांश उपनिवेश स्वतंत्र कर दिए गए थे। महात्मा गांधी और सुभाष में कौन बड़ा है, यह बहस किसी भी तरह उचित नहीं है। क्योंकि स्वयं सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज को दिए एक भाषण में महात्मा गांधी को फादर आॅफ द नेशन कहकर उन्हें सम्मान दिया था। दोनों अलग-अलग तरह के नेता थे, उनकी दृष्टि अलग थी।  भारत जैसा देश अनेक दृष्टियों से ही चल सकता है।

सुभाष बाबू ने स्वयं कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए गांधी जी को दोष नहीं दिया। लोग यह भूल जाते हैं कि दूसरा महायुद्ध आरंभ होने वाला था और गांधी जी यह जोखिम नहीं ले सकते थे कि कांग्रेस का नेतृत्व उनसे भिन्न दृष्टि वाले किसी व्यक्ति के पास रहे। बहरहाल, देश ने सुभाष बाबू को पूरा सम्मान दिया है और वे हर चिंतनशील भारतीय के दिल में जगह बनाए हुए हैं।

 

 

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