स्वामी वामदेव एक भोले-भाले विनम्र संत थे। छोटे कद वाले वामदेव के भीतर संतई के सारे गुण थे। उन्होंने अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने इन्हें विश्व हिंदू परिषद से अलग करने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन उसकी सारी कोशिश विफल हो गई।
इसी सिलसिले में नरसिंह राव सरकार के केंद्रीय मंत्री पीआर कुमार मंगलम उनसे मिलने वृंदावन आए तो उन्हें वापस कर दिया। स्वामी वामदेव की ही अध्यक्षता में साल 1984 में अखिल भारतीय संत-सम्मेलन का आयोजन जयपुर में हुआ था, जिसमें राम जन्मभूमि आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए 15 दिनों तक लगातार 400 साधु-संतों के साथ गहन विचार-विमर्श किया गया। 30 अक्तूबर, 1990 को विश्व हिंदू परिषद ने अयोध्या में कारसेवा का आह्वान किया था। स्वामी वामदेव अपनी वृद्धावस्था के बावजूद सभी बाधाओं को पार करते हुए अयोध्या पहुंचे थे।
2 नवंबर 1990 को जब कारसेवकों पर गोली चली तो इससे स्वामी वामदेव इतने क्रोधित हो गए कि उन्होंने 4 नवंबर को प्रशासन को रक्तपात की चेतावनी दे दी। उन्होंने कहा कि अगर कर्फ्यू हटाकर प्रशासन ने कारसेवकों को रामलला के दर्शन नहीं करने दिए तो बड़े पैमाने पर खून बहेगा। बहरहाल, 12 नवंबर 1992 को गृह मंत्रलय के विशेष दूत महेश पाठक मथुरा पहुंचे। उन्होंने स्वामी वामदेव से निवेदन किया कि वे प्रधानमंत्री से मिलें, लेकिन स्वामी वामदेव जी ने मना कर दिया। विहिप और उनके बीच दरार पैदा करने की बड़ी कोशिश हुई। इसके लिए महंत सेवादास को लगाया गया था।
इन कोशिशों के बावजूद स्वामी वामदेव अपनी बात पर टिके रहे। 6 दिसंबर, 1992 को जब विवादित ढांचा गिराया जा रहा था, स्वामी कारसेवकपुरम में मौजूद थे। मार्च 1993 को संत सम्मेलन में उन्होंने अयोध्या के बाद काशी और मथुरा का मुद्दा भी उठाया था। अप्रैल 1993 की रामनवमी को अयोध्या में 9 दिनों का अनुष्ठान भी किया। राममंदिर के लिए जीवनपर्यंत लड़ने वाले स्वामी वामदेव का 20 मार्च, 1997 को देहावसान हुआ।