मुनव्वर राना हो या फिर नसीरूद्दीन शाह या फिर आमिर खान, आखिर इनकी सोच कठमुल्लों से क्यों मिलती है। कई मौलानाओं से लेकर मुनव्वर राना जैसे शायर तालिबानी कैसे हो जाते हैं। इसे समझने की जरूरत है।
हर प्रवाह का एक स्रोत होता है। उसके बारे में एक खुली दृष्टि होनी चाहिए, तभी उसका युगानुकूल आकलन किया जा सकता है। इसलाम के दो स्रोत हैं – पहला, कुरान और दूसरा पैगंबर का जीवन यानि हदीस। ये सातवीं शताब्दी की रचनाएं हैं। उनके बारे में कोई भी पुनर्विचार संभव नहीं है। यह हाल की घटनाओं पर मुसलमानों की प्रतिक्रिया से समझा जा सकता है। मुसलमान की प्रतिक्रिया होती है कि यह गैर इसलामी है। यानि कुरान से समर्थित नही है और पैगंबर के आदर्शों के अनुरूप नहीं है। यह जो सोचने की पद्धति है, वह बढ़ती जा रही है। अगर मसलिम समाज की सोचने की पद्धति को जानना चाहते हैं, तो हमें इसलामी विचारधारा को वास्तविक रूप से समझना चाहिए। व्यक्ति जब इसलाम को ग्रहण करता है तो उसका विशेष प्रकार से मानसिक परिवर्तन हो जाता है। पहली बात यह है कि वह हजरत मोहम्मद के पहले के इतिहास को जाहिलिया घोषित कर देता है। उसको अस्वीकार कर देता है। उसके पैगंबर से पहले इतिहास का अस्तित्व ही नहीं है। पैगंबर के बाद ही इतिहास शुरू होता है।
रही बात भारत की तो भारतीय समाज ने मुसलमानों को जोड़ने जो प्रयास किए उसमें सफलता नहीं मिली। क्योंकि उनकी सोच शुरू से अलग थी। अंग्रेजों को उस सोच की जानकारी थी। अंग्रेजों की मुस्लिम समस्या के बारे में जानकारी थी, उसकी प्रयोगशाला थी कलकत्ता का मदरसा। इसे 1780 में वारेन हेस्टिंग्स ने बनवाया था। इसमें ऊंचे घराने के लोग पढ़ने आते थे। वहां अंग्रेजों ने मुस्लिम मानस को समझने का प्रयास किया। इसका पूरा रिकार्ड अभिलेखागार में मौजूद है। उन्हीं प्रयोगों में से प्रेसिडेंसी कालेज निकला। वह प्रयोग भी जब विफल हो गया तब 1854 में इंग्लैंड से कैप्टन डब्ल्यू एन लीज भेजे गए। वह वहां प्रिंसिपल थे। उन्हें यह कहा गया कि वह मुस्लिम अभिभावन का मन समझें। उन्होंने चार साल लगाए, और वायसराय को एक रिपोर्ट भेजी। रिपोर्ट में उन्होंने पाया कि जो भारतीय मुसलमान हैं, वे अपने को इस मिट्टी की संतान नहीं समझते। यही मूल समस्या है। इसी समस्या के तहत मुनव्वर जैसे लोग तालिबान के साथ खड़े दिखाई देते हैं।
यही नही 1857 के विफल हो जाने के बात सर सैय्यद अहमद खां ने एक नई रणनीति बनाई थी। यह रणनीति थी कि अंग्रेजों के साथ मिलकर अपना भविष्य बनाना। उनके भाषण का स्वर यह रहता था कि हम शासक वर्ग से आते हैं। इस तरह के स्वर आज भी सुने जा सकते हैं। बहरहाल, उस समय समय बंगाल के दो नेता थे। मौलाना अब्दुल लतीफ और जस्टिस अमीर अली। इनका स्वर भी वही था। उस समय कांग्रेस ने बहुत कोशिश की कि मुसलिम प्रतिनिधि अधिवेशनों में आएं। जब इसमें सफलता नहीं मिली तो कांग्रेस ने बदरूद्दीन तैयबजी को अपना अध्यक्ष चुना। उस समय सर सैयद अहमद खा और उनके बीच जो पत्राचार हुआ, वह प्रकाशित है। उनका तर्क था कि जो आंदोलन चलाया जा रहा है, वह लोकतंत्र के लक्ष्य से प्रेरित है। लोकतंत्र में बहुमत का शासन होता है। इसका मतलब यह है कि वह हिन्दू शासन होगा, जो हमें स्वीकार नहीं है। यही तर्क भारत के बंटवारे के लिए जिन्ना ने भी दिया।
इसमें मूल समस्या क्या है? मुसलिम नेता अखिल इसलामावाद में विश्वास करते हैं। वे उम्मा की संकल्पना से संचालित होते हैं। आजादी की लड़ाई में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। उम्मा की अवधारणा आज पूरी दुनिया में फैल गई है। यह एक मानस है, जो अपनी विचारधार के बारे में बहुत स्पष्ट है। वे अपनी भावी योजना के बारे में स्पष्ट हैं। आज की स्थिति क्य है। मुनव्वर राना तालिबान का समर्थन करते हैं। मुनव्वर राना, नसीरूद्दीन शाह जैसे लोगों को डर लगता है। हावर्ड और एमआईटी में पढ़ा उमर खालिद भारत पांच मुस्लिम अंचलों का विचार प्रस्तुत करता है। 1933 में पाकिस्तान का सबसे पहले नारा जिस रहमतुल्ला ने दिया वह कैंब्रिज युनिवर्सिटी में पढ़ता था। सारे जहां से अच्छा हिनुदोस्तां हमारा जिस मोहम्मद इकबाल ने लिखा वह बाद में लिखता है कि मुसलिम हैं हम वतन हैं सारा जहां हमारा, हिन्दोस्तां हमारा, चीनों अरब हमारा। जबकि इकबाल का धर्मांतरण तीन पीढ़ी पहले ही हुआ था। उसका कश्मीरी ब्राम्हण परिवार से संबंध था। उसी इकबाल ने मुस्लिम लीग की अध्यक्षता करते हुए भाषण दिया कि इसलाम के प्राण शरियत में है, जहां शरियत नहीं वहां इस्लाम जिंदा नहीं रह सकता। यह एक सोच है।