रणभेरी थी “जय हिन्द” ! द्रमुक ने उसे अमान्य कर डाला !!

के .विक्रम रावशब्द “जय हिंद” न असंगत है, न बेढब है, बल्कि एक देशभक्त अभिव्यक्ति है। यह सरल सत्य मदुराई हाईकोर्ट (याचिका नं. : 433/2017) को गत सोमवार (6 नवंबर 2023) को बताना पड़ा। वर्ना सनातन धर्म की अवधारणा की भांति, नारा “जय हिंद” को भी एमके स्टालिन की द्रमुक सरकार ने अनुचित और प्रसंगहीन करार दिया था। मामले की शुरुआत बड़ी सरल रही। तमिलनाडु राज्य लोक सेवा आयोग ने डिप्टी कलेक्टर की परीक्षा आयोजित की। एक युवती सुश्री एम. कल्पना के परीक्षापत्र में “भारत के प्राकृतिक संसाधनों के महत्व और संरक्षण” पर एक आलेख लिखना था। विस्तृत लेख के अंत में परीक्षार्थी ने यह भी लिखा : “हम प्रकृति से सामंजस्य बना कर रखें, जय हिंद।” इसे लोक सेवा आयोग के परीक्षक ने असंगत और अप्रासांगिक कह कर उसके नंबर काट लिए। फेल कर दिया। कल्पना को सूचना के अधिकार के तहत मांगे गए जवाब पर ज्ञात हुआ कि उसे 160 नंबर दिए गए, जबकि 190 नंबर मिलना था। चेन्नई-स्थित लोक सेवा आयोग के सचिव के विरुद्ध कल्पना ने मद्रास हाईकोर्ट के मदुराई खंडपीठ के समक्ष याचिका दायर की। कोर्ट से प्रार्थना की थी कि “जय हिंद शब्द” अमान्य नहीं हो सकता। यह राष्ट्रवादी उच्चारण है। कल्पना के वकील जी. कार्तिक ने न्यायमूर्ति बट्टू देवानंद से आग्रह किया कि जय हिंद और प्रकृति से सामंजस्य बनाने की बात न बेढब है, न प्रसंगहीन। उसने सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय (5878/2014) का संदर्भ भी दिया। उसमें न्यायमूर्ति-द्वय दीपक मिश्रा और अनिल दुबे ने (27 अगस्त 2014 को) एक फैसले में निर्दिष्ट किया था कि यदि परीक्षार्थी की पहचान उसकी उत्तर पुस्तिका से पता चले तो परिणाम निरस्त हो सकता है। अपनी याचिका में कल्पना की मांग थी कि उसने राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों के परिक्षण के समर्थन में लिखा था। अंत में अनुरोध भी किया था : हम सब प्रकृति के साथ रहे “जय हिंद”। तो इसमें अवैध बात कहां है ? न्यायमूर्ति बट्टू देवानंद ने इस तर्क को स्वीकारा और लोक सेवा आयोग को आदेश किया कि परीक्षार्थी कल्पना का पीसीएस में चयन कर लें। इस पूरे प्रकरण से जनित विवाद से तमिलनाडु में आमचर्चा शुरू हो गई कि क्या पवित्र राष्ट्रवादी सूत्र “जय हिंद” भी अब द्रमुक सरकार को खटक रहीं है ? न्यायालय ने उम्मीदवार के उत्तरपत्र को अमान्य करने के अपने फैसले को वापस लेने और उसके निबंध का मूल्यांकन करने का निर्देश दिया आयोग को।
     
भारत के स्वाधीनता संघर्ष का इतिहास साक्षी है कि “जय हिंद” आम हिंदुस्तानी के लिए एक गहरी भावनात्मक अभिव्यक्ति है। इसके सामान्य अर्थ हैं “भारत की विजय।” नेताजी सुभाष बोस के आजाद हिंद फौज का यह युद्धघोष था। मशहूर मलयालमभाषी चंपकरामण पिल्लई ने 1907 में इसे रचा था। वियना (आस्ट्रिया) में पिल्लई की नेताजी से भेंट हुई थी। तब “जय हिन्द” से उनका अभिवादन किया। पहली बार सुने ये शब्द नेताजी को प्रभावित कर गए। इधर नेताजी आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना करना चाहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने जिन ब्रिटिश सैनिको को कैद किया था, उनमें भारतीय सैनिक भी थे। जर्मन की क़ैदियों की 1941 में छावणी में नेताजी ने इन्हे सम्बोधित किया तथा अंग्रेजो का पक्ष छोड़ आजाद हिन्द फौज में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। यह समाचार अखबारों में छपा तो जर्मन में रह रहे भारतीय विद्यार्थी जैनुल आबिद हुसैन ने अपनी पढ़ाई छोड़ नेताजी के सचिव का पद सम्भाल लिया। आजाद हिन्द फौज के सैनिक आपस में अभिवादन किस भारतीय शब्द से करे यह प्रश्न सामने आया। तब हुसैन ने”जय हिन्द” का सुझाव दिया।
 उसके बाद 2 नवम्बर 1941 को “जय-हिन्द” आजाद हिंद फ़ौज का युद्धघोष बन गया। फिर 15 अगस्त 1947 को नेहरूजी ने आजादी के बाद, लाल किले से अपने पहले भाषण का समापन, “जय हिन्द” से किया। डाकघरों को सूचना भेजी गई कि नए डाक टिकट आने तक, डाक टिकट चाहे अंग्रेज राजा जार्ज की ही मुखाकृति की उपयोग में आये लेकिन उस पर मुहर “जय हिन्द” की लगाई जाये। यह 31 दिसम्बर 1947 तक यही मुहर चलती रही। केवल जोधपुर के गिर्दीकोट डाकघर ने इसका उपयोग नवम्बर 1955 तक जारी रखा। आज़ाद भारत की पहली डाक टिकट पर भी “जय हिन्द” लिखा हुआ था।
 भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान, “जय हिंद” का नारा क्षेत्रीय, भाषाई और सांस्कृतिक मतभेदों से परे एक एकीकृत शक्ति के रूप में उभरा। “जय हिंद” केवल एक नारा नहीं था; यह दमनकारी ब्रिटिश शासन के खिलाफ अवज्ञा का प्रतीक था। इन दो शब्दों के उच्चारण से ही ब्रिटिश अधिकारियों को एक शक्तिशाली संदेश गया कि भारतीय लोग अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए दृढ़ और तैयार हैं।
लेजेंड्स ऑफ हैदराबाद’ नाम की अपनी किताब में पूर्व प्रशासनिक अधिकारी नरेन्द्र लूथर ने कई दिलचस्प किस्से और लेख लिखे हैं जो अपने रूमानी मूल और मिश्रित संस्कृति के लिए प्रसिद्ध इस शहर से जुड़े दस्तावेजी साक्ष्यों, साक्षात्कारों और निजी अनुभवों पर आधारित हैं। इनमें से एक कहानी जय हिंद नारे की उत्पत्ति से जुड़ी है जो बहुत दिलचस्प है। लेखक के अनुसार यह नारा हैदराबाद के एक कलेक्टर के बेटे जैनुल अबिदीन हसन ने दिया था। वह इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए जर्मनी गए थे। लूथर के अनुसार दूसरे विश्वयुद्ध के समय नेताजी भारत को आजाद कराने को लेकर सशस्त्र संघर्ष के लिए समर्थन जुटाने जर्मनी चले गए थे।
 स्वाधीनता संग्राम के लंबे इतिहास में कुछ वाक्यांश अमर नारों के आकार में गूंजते रहे। खासकर जंगे आजादी के दौरान। हसरत मोहानी का था “इंकलाब जिंदाबाद।” उसके पूर्व बंकिम चंद चटर्जी ने आनंद मठ में “वंदे मातरम” गुनगुनाया था। भारत राष्ट्र की जयकारा हुई थी। नेताजी बोस का “जय हिंद” था, तो महात्मा गांधी ने 1942 में अंग्रेजों को “भारत छोड़ो” का नारा दिया था। “करो या मरो” साथ में था। फिर 1911 में ब्रिटिश सम्राट के राज्यावरोहण पर रवींद्रनाथ टैगोर ने “जन गण मन” लिखा था। उस अधिनायक के नाम। मगर गूंजता रहा आज भी “जय हिन्द”।

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