अंग्रेजों ने अंग्रेजी शिक्षित वर्ग की सोच बदलने के लिए आर्य जाति के सिद्धांत का खूब उपयोग किया। सर हेनरी मेन का एक भाषण इसका उदाहरण है। वे कानून मंत्री होने के साथ-साथ कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे। उन्होंने अपने भाषण में एक सिद्धांत प्रस्तुत किया। उस सिद्धांत के मुताबिक भारत में जो सवर्ण हैं, उनका मूल आर्य जाति में है। भारतीय पिछड़ गए और अंग्रेज आगे निकल गए। अंग्रेजों को ईश्वर ने भारत भेजा ही इसीलिए है कि हम आपको सभ्यता के रास्ते पर आगे बढ़ाए।
इसी से हमें समझना होगा कि अंग्रेजों ने हमारे लिए एक दर्पण तैयार किया। हम अपने को कैसे देखें, इसके लिए उन्होंने बहुत जानकारी इकट्ठी की। गजेटियर बनाए, जनगणना रिपोर्ट बनाई। पूरे भारत को क्षेत्रों में बांटकर सर्वे किया। लिग्विस्टिक सर्वे किया। आज भी यही सामाग्री शोध का संदर्भ है। इस पूरे साहित्य निर्माण के पीछे उनकी साम्राज्यवादी दृष्टि थी। उसके दो सूत्र थे। एक यह कि भारत एक बिखरा हुआ समाज है। दो, कि हम इनको इंडिया दे रहे हैं। उस समय भारत के पूरे समाज को व्यक्त करने का जो शब्द प्रचलित था, वह हिन्दू शब्द था।
भारत के बाहर यहां के मुसलमानों को हिन्दू कहा जाता था। जो हिन्दू है उनका तब उपासना पद्धति से कोई संबंध नही था। सर सय्यद अहमद खां ने भी गुरूदासपुर के भाषण में कहाकि मै हिन्दू नहीं तो क्या हूं। लेकिन अंग्रेजों की जनगणना नीति ने हिन्दू शब्द को भू सांस्कृतिक अर्थ से एक धार्मिक अर्थ में रूपांतरित कर दिया। उन्होंने जनगणना के लिए जो खाने बनाए उसमें इस्लाम, ईसाइयत के समकक्ष हिन्दू को रखा। तब यह तर्क दिया गया कि यह जनगणना के सीमित उद्देश्य के लिए किया गया है। फिर धीरे-धीरे हिन्दू की सीमाओं को छोटा करना शुरू किया गया।
जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग श्रेणी बनाई गई। फिर सिखों को अलग किया गया। उसके बाद जैनियों को अलग करने की कोशिश शूरू हुई। इसी प्रकार बौद्धों को अलग किया गया। 1891 में जनगणना आयुक्त जे.ए.बैंस से पूछा गया कि हिन्दू कौन है तो उन्होंने कहाकि सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, आदिवासी और छोटी जातियों को निकालने के बाद जो बचता है वह हिन्दू है। आज जो दिखता है यह उसी का परिणाण है।