संविधान सभा ने हमारे दो राष्ट्रीय लक्ष्यों की उपेक्षा कर दी- जीवन दर्शन और राष्ट्रीयता। इसका कारण यह है कि वीएन राव जो संविधान सभा के सलाहकार थे, साल 1935 के कानून की परिधि में ही काम कर रहे थे। 1935 का कानून 1858 से शुरू हुए क्रमिक संवैधानिक सुधारो का नतीजा था।
इस देश की मनीषा ने अपने जीवन दर्शन के लिए जो साधना की थी, उससे इनका कोई नाता नहीं था। उस साधना को समझने के लिए हमें हिंद स्वराज, श्री अरविंद का उत्तर पाड़ा का भाषण और तिलक का गीता रहस्य समझना होगा। इनके स्वर एक हैं, दिशा एक हैं और दर्शन भी एक है कि कैसे भारत को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में बांधा जाए।
जबकि अंग्रेजों ने तो भारतीय समाज का वर्गीकरण किया, क्योंकि वो बांटो और राज करो की नीति पर चल रहे थे। उसी वर्गीकरण की शब्दावली 1935 के कानून में है। उस शब्दावली से हिन्दू समाज को बांटा गया। जैसे, बैकवर्ड क्लासेस, ट्राइबल्स, शेड्यूल्ड क्लास आदि।
ब्रिटिश सरकार हमेशा से यह भूमिका अपनाती थी कि महात्मा गांधी केवल सवर्ण हिन्दुओं के नेता है। उस दौर के सरकारी दस्तावेज हैं, जिनसे यह बात पता चलती है। जब प्रधानमंत्री रेम्से मैगडोनाल्ड ने 17 अगस्त 1932 को कम्युनल अवार्ड घोषित किया तो महात्मा गांधी जेल में थे। उसके विरूद्ध आमरण अनसन पर जाने की उन्होंने घोषणा कर दी। तब वायसराय विलिंग्टन घबरा गया। वायसराय के पत्र व्यवहार में है कि महात्मा गांधी के पीछे सवर्ण हिंदू खड़ें हैं। वे गोपनीय पत्र आज भी उपलब्ध हैं।
संविधान की रक्षा करते समय हमारी एक मात्र आकांक्षा थी कि भारत अखंड रहे। सन 1945 के चुनाव में कांग्रेस का यह मुख्य नारा था। उसके पीछे सारा देश खड़ा था। उस चुनाव में हिंदू महासभा भी थी। उसे सिर्फ दो सीटें मिली थी। सारा देश कांग्रेस के साथ खड़ा था। लेकिन हम उसकी रक्षा नहीं कर पाए। हम भारतीय समाज को एक राष्ट्रीय समाज के रूप में विकसित नहीं कर पाए।