हिन्दू को एक पंथ तक सीमित करना और हिन्दुओं को बांटने की अंग्रेजों की चाल को हमारे महापुरूषों ने न समझा हो ऐसा नही है। अनेक राष्ट्रीय नेताओं ने इसे भांप लिया था। अंग्रेजों की चाल को विफल करने के लिए हमारे महापुरूषों ने राष्ट्रीयता की बड़ी लकीर खींची। उससे जागरण की लहर उठी। वह राष्ट्रीयता का उफान था।
दूसरी तरफ उसे विफल करने के लिए अंग्रेजों ने सन 1892 से यह सोचना प्रारंभ कर दिया था कि भारत में चुनाव क्षेत्रों का आधार क्या हो। भौगोलिक या हित समूह। अंग्रेजों ने भारत की वस्तुस्थिति को समझकर अपने हित में फैसला किया कि चुनाव क्षेत्रों को भौगोलिक आधार पर गठित किया जाए। उससे हमारी विविधताओं का वो राजनैतिक शोषण करने में सफल हुए।
किसी भी संवैधानिक सुधार की कसौटी यह है कि वह समाज को नैतिकता के पथ पर बढ़ाने में सहायक होती है या नहीं। अंग्रेजों ने भारत में जो संवैधानिक सुधार किए, वो अपनी सत्ता को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए थे, न कि समाज को नैतिकता के पथ पर ले जाने के लिए।
एक और बात जो समझ में आती है, वह यह है कि भारतीय समाज को विभाजित करके उसके अंदर जो विविधताएं हैं, उनको वे परस्पर प्रतिस्पर्धी और विरोधी बनाना चाहते हैं। इसमें वे सफल भी हुए।
जो सिलसिला अंग्रेजों ने 1892 में शुरू किया था, उसे ही 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम में बढ़ाया। इससे प्रांतीय और केन्द्रीय स्तर पर चुनाव की प्रक्रिया स्थापित हो गई। इसे मार्ले-मिंटों सुधार के नाम से जाना जाता है। तब भारत सचिव मार्ले थे, और वायसराय, लार्ड मिंटो। इस अधिनियम में मुसलमानों के लिए अलग मतदाता मंडल बनाया गया। पाकिस्तान की नींव इसी अधिनियम से पड़ी।