कल्कि 2898 एडी की बड़ी सफलता कोई अपवाद नहीं है. पिछले एक दशक में दक्षिण के सिनेमा ने विकास और सफलता की एक लंबी उड़ान भरी है. इसकी वजह उनका अपनी संस्कृतिक जड़ों से जुड़ाव है, कथानक में शोध और संवादों की मौलिकता एवं भद्रता है. मलयाली फ़िल्में अपने बेहतरीन कंटेंट के लिए जानी जाती हैं. ऐसे ही तमिल, तेलुगु कन्नड़ फ़िल्म इंडस्ट्री आज भी इसलिए सशक्त है क्योंकि वे अपने स्थानीय मूल्यों कों मुख्यता में ज़ी रहें है.
नितिन रेड्डी की फ़िल्म श्रीनिवास कल्याणम जो विवाह परंपरा कों इतने सम्मानित रूप से प्रदर्शित करता है कि जिसकी जितनी प्रशंसा की जाये, कम है. ऋषभ शेट्टी की बहुचर्चित फ़िल्म कांतारा वनवासी धार्मिक मान्यताओं को बड़ी ही रोचकता से प्रस्तुत करती है. ऐसे ही आरआरआर में स्वतंत्रता संघर्ष की जीवटता का बेहतरीन चित्रण है और ऐसे तमाम उदाहरण जैसे रुद्रमादेवी, नई रिलीज फैमिली स्टार जिसमे एक उच्च शिक्षित महत्त्वकांक्षी युवक का संयुक्त परिवार के लिए समर्पण दिखता है. इसी प्रकार कल्कि और कांतारा जैसी फिल्मों की बड़ी सफलता इस बात का प्रमाण है कि हिंदू इतिहास एवं दर्शन एवं भारतीय ऐतिहासिक तथ्यों को यदि सम्मानित तरीके से प्रस्तुत किया जाए तो सर्वराष्ट्रीय समाज उसे स्वीकृति ही नहीं करती बल्कि सराहती भी है.
दूसरी ओर हिन्दी सिनेमा कथानक से लेकर गीत-संगीत की रिमेक में ही अपनी प्रासंगिकता तलाश रहा है. आप पिछली कुछ बड़ी हिट फिल्मों के उदाहरण पर नजर डालिये. सलमान खान की फ़िल्म वांटेड, जिसने उनके करियर को नया जीवन दिया, महेश बाबू की फ़िल्म पोकिरी की रिमेक थी. खुद को परफेक्शनिस्ट कहने वाले आमिर खान की गजनी सूर्या की इसी नाम की फ़िल्म गजनी की रिमेक थीं. जॉन अब्राहम की फ़िल्म फ़ोर्स सूर्या की फ़िल्म काखा-काखा की रिमेक थीं. यहाँ तक रोहित शेट्टी, अजय देवगन की फिल्म सिंघम भी सूर्य की फिल्म सिंघम की ही रिमेक थीं. ऐसे ही अक्षय कुमार की फ़िल्म राउडी राठौर एस. राजामौली, रवि तेजा की फ़िल्म विक्रमारकुडु की रिमेक थी. शाहिद कपूर की फ़िल्म कबीर सिंह विजय देवरकोंडा की फ़िल्म अर्जुन रेड्डी की रिमेक थी. और ऐसा उदाहरणों की एक लंबी सूची है. तो यह है इन हिंदी सिनेमा के तथाकथित सुपरस्टारों के हजार करोड़ी सफल फिल्मों की असलियत.
लेकिन रिमेक यानि नकल में भी कई बार इन प्रतिभाहीन हिन्दी सिने कर्मियों से निराशा ही हाथ लग रही. तेलुगु स्टार नानी की दो सुपर हिट फिल्मों एमसीए और जर्सी की हिन्दी रिमेक इतनी फूहड़ थीं कि दर्शकों द्वारा नकार दी गई. अमेरिकी उपन्यासकार लिखते हैं, ‘नकल में सफल होने की तुलना में मौलिकता में असफल होना बेहतर है.’ तो इस बॉलीवुडिया भांडमंडली में ना नक़ल करके सीखने की योग्यता है और मौलिकता की इनसे उम्मीद ही स्वयं में मूर्खता है.
हिन्दी सिनेमा में मौलिकता के नाम पर कथानक एवं संवाद ही नहीं बल्कि संगीत के स्तर पर भी बड़ी गिरावट देखी जा सकती है. रिपब्लिक में प्लेटो लिखते हैं, ‘संगीत की शैली का परिवर्तन संस्कृति में मूल परिवर्तन का आभास देता है.’ कभी अपने कर्णप्रिय सुमधुर संगीत के कारण वैश्विक सिनेमा जगत में विशिष्ट माने जाने वाले हिन्दी सिनेमा के वर्तमान परिदृश्य में पूर्णतः भोंडे कानफोड़ू संगीत और अश्लील, भद्दे, द्विअर्थी गीत उसकी रचनाधार्मिता का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं. गीत-संगीत में के.एल.सहगल, लता मंगेशकर, पंडित भीमसेन जोशी, आशा भोसले, रविशंकर, पंचम दा, किशोर कुमार, मन्ना डे, मुकेश और महेन्द्र कपूर की परंपरा अब इतिहास बन चुकी है.
वैसे भाषा के औचित्य पर तो बात करना फिजूल ही है. क्योंकि हिंदी सिनेमा ने तो ज़बानी अश्लीलता-अशिष्टता की सारी मर्यादाएं ही ध्वस्त कर दी हैं. असल में भाषा सांस्कृतिक तत्त्वों से प्रभावित होती है. संस्कृति की परिवर्तनशीलता की दिशा के अनुरूप भाषा में भी बदलाव आते हैं. ज़ब संस्कृति शामी पंथों एवं पश्चिमी जगत से प्रभावित होगी तो भाषा में भारतीयता की शिष्ट अवधारणा कहा कायम रहेगी, उसे तो पतित होना ही है. कभी हिन्दी सिनेमा को दुनिया में भारतीय संस्कृति का प्रसारक माना जाता था. आज वो स्थिति नहीं रही क्योंकि इसके आधार पर अश्लीलता ही भारतीयता का प्रतीक बन जायेगी.
इस पतन के दूसरे पहलू कों देखें तो वामपंथी-इस्लामिक कट्टरपंथ का गठजोड़ सिनेमा के कलात्मक स्वरुप को अपनी वैचारिक षड़यंत्र से दूषित कर रहा है. पीके जैसी सनातन विरोधी एवं हैदर जैसी कश्मीरी आतंकवाद को भावुकता के आवरण में जायज ठहराने वाली फिल्मों के लिए समर्थन और उसके प्रशंसा में कूदने वाले ये धर्मद्रोही भेड़िये सिनेमा में भी जिहाद और राष्ट्रवादी भावनाओं का घालमेल बनाये रखना चाहते हैं. उदाहरणस्वरुप 2007 में सत्य घटना पर आधारित फ़िल्म आई चक दे इंडिया, जिसमे नायक मुस्लिम होने के कारण प्रताड़ित हैं. लेकिन असल में यह हॉकी खिलाडी मीर रंजन नेगी के जीवन पर आधारित थी जो कि हिन्दू हैं. दूसरा उदाहरण 2020 में प्रदर्शित छपाक का है जिसमें एसिड फेंकने वाला खल पात्र एक हिंदू राजेश है जबकि असलियत में यह अपराधी नईम खान नाम का मुसलमान था. इन उदाहरणों से इस वैचारिक षड़यंत्र की त्वरा को सरलता से समझा जा सकता है.
इनकी सैद्धांतिक निकृष्टता इतनी निर्लज्ज है कि बुद्धा इन ट्रैफ़िक जाम, सावरकर, रजाकर और कश्मीर फाइल्स जैसी राजनीतिक-सामाजिक वैचारिकी का यथार्थ उकेरती फिल्मों को देखते ही सेक्युलरवाद के नाम पर छाती पीटकर रुदाली शुरू कर देते हैं. तब ना इन्हें कला की स्वतंत्रता याद आती हैं और ना तो अभिव्यक्ति की आजादी. लेकिन ये सारा विस्मृत ज्ञान इन्हें हिन्दू विरोधी सिनेमा को देखते ही याद आ जाता है. लक्ष्मी, आदिपुरुष, महाराज जैसी फिल्मों के बहुसंख्यक भावनाओं को आहत करते पटकथा, संवाद के विरोध एवं बॉयकाट पर इनकी धूर्ततापूर्ण तर्कशीलता देखिए. निकट ही रिलीज हुईं फ़िल्म महाराज जिसमें एक प्राचीन धार्मिक कुप्रथा को विकृत करके प्रदर्शित किया गया. ठीक है हिंदू समाज अपने अंदर कुरीतियाँ रहीं हैं जिसे वह स्वीकारता रहा है और उनमें बदलाव का प्रयास भी करता रहा है. डॉ. आंबेडकर ने लिखा है, ‘हिंदुओं में अनेक सामाजिक बुराइयां है. परंतु संतोषजनक बात यह है कि उनमें से अनेक इसकी विद्यमानता के प्रति सजग है और उनमें से कुछ उन बुराइयों के उन्मूलन हेतु सक्रिय तौर पर आंदोलन भी चला रहे हैं.’ हिन्दू समाज अपनी तर्कहीन धार्मिक सामाजिक परंपराओं एवं रूढ़िवाद को झटक कर ही विकास और प्रगति के नए प्रतिमान गढ़ रहा है. लेकिन इन भूली-बिसरी कुरीतियों को उभारकर हिन्दी सिनेमा का हिन्दूद्रोही वर्ग क्या प्रदर्शित करना चाहता है और कला के माध्यम से सुधार के इन आग्रहियों को हलाला, मजारों के हाकिमों के सेक्स स्कैडल के सिनेमाई चित्रण में रूचि क्यों नहीं है? होनी चाहिए क्योंकि सनातन समाज की अप्रासंगिक एवं समय के गर्भ में गुम होगा चुकी रूढ़ियों पर ज्ञान बघारने से अधिक जरूरी है मध्ययुगीन मान्यताओं में ज़ी रहे इस्लामिक समाज में विद्यमानता कुसंस्कारों में सुधार. लेकिन वहां इनके कला और बौद्धिकता दोनों को लकवा मार जायेगा क्योंकि दूसरी तरफ सर तन से जुदा करने वाले तलवार और बन्दुक लिये खड़े हैं इसलिए अपने मूल चरित्र में अहिंसक एवं निरीह गाय हिन्दुओं की भावनाओं को अपमानित करके खुद को ‘वोग’ दिखाना ज्यादा सुविधाजनक है.
आज वर्तमान में हिन्दी और दक्षिण के सिनेमा को देखकर आपको भारत का वैचारिक विभाजन बिलकुल स्पष्ट नजर आएगा. एक तरफ दक्षिण की फ़िल्में भारतीय संस्कृति, मान्यताओं-प्रथाओं-मर्यादाओं एवं सामाजिकता को जी रहीं हैं, उन्हें सहेज और प्रचारित कर रहीं हैं. दूसरी ओर हिन्दी सिनेमा पिछले दो दशकों में भारतीय समाज के ऐसे चित्रण में लगा है, मानों हर परिवार में आतंरिक आत्मीयता एवं रिश्तों की अहमियत ख़त्म है. परिवार एवं विवाह जैसी संस्थाएं पिछड़ेपन का प्रतीक और प्रगति में बाधक हैं. सारी भारतीय लड़कियां सिगरेट, शराब पीती, गाली-गलौज करती और उन्मुक्त सेक्स का जीवन जी रहीं हैं. चलती का नाम गाड़ी वाली साड़ी में सिमटी भारतीय कन्या अर्द्धनग्न ‘बुम्बाट’ लड़की बन चुकी है. विवाहेत्तर सम्बन्ध एवं तलाक आधुनिक मूल्य हैं.वगैरह-वगैरह. ये हैं इन्हें वामी-कामियों के जीवन-मूल्य जिससे ये सारे राष्ट्रीय समाज को दूषित करने पर आमादा हैं. असल में सिनेमा कला का प्रतिरुप है, ये दक्षिण की परंपरा से ही पता लगता है. वरना हिन्दी सिनेमाई तो नंगई के रास्ते सॉफ्ट पोर्न हो चला है. भोजपुरी इंडस्ट्री तो बेकार ही बदनाम है. कह सकते हैं कि कला के प्रतिरुपों में जितना पतन हिन्दी सिनेमा का हुआ है, उतना और किसी का नहीं हुआ.
वास्तविकता में कला का यह सातवाँ प्रतिरूप (सेवेंथ आर्ट) सामाजिक अव्यवस्था, कामुकता एवं विघटनकारी नकारात्मक प्रसार का मुख्य औजार बन चुका है. जिसके विरुद्ध कठोर वैचारिक प्रतिरोध आवश्यक है. ये मानना कि सिनेमा समाज को प्रभावित नहीं करता हैं, अनुचित होगा. फिल्मों का सामाजिक व्यवस्था पर प्रभाव सूक्ष्म एवं अप्रत्यक्ष होता है. सिनेमा इंसान के अवचेतन पर धीमी गति से एक आवरण निर्मित करता है. यही वज़ह है कि आज आपको आम जीवन में ‘भूरे अंग्रेज’ भारतीय किशोर और युवा वर्ग सिनेमाई प्रभाव में वैसे ही बातें करता, कपड़े पहनता एवं उस संस्कारहीनता को स्वीकार करता मिलेगा. यथार्थ में दृश्य रूप में सिनेमा नये आयु वर्ग के युवाओं के अवचेतन मन को कुसंस्कारित कर रहा है.
हालांकि पिछले एक दशक से सांस्कृतिक नवजागरण के दौर से गुजरे रहे बहुसंख्यक राष्ट्रीय समाज ने ज़ब हिन्दी सिनेमा के इन कालनेमियों को दुत्कारना शुरू किया है तब से इन बॉलीवुडिया मक्कारों ने दक्षिण की इंडस्ट्री को अपनी ढाल बनाना शुरू किया. अचानक ही ये उनके निर्माता-निर्देशक से लेकर कलाकारों तक के बीच पैठ बनाने लगे. शाहरुख़ के जवान में विजय सेतुपति और नयनतारा में थे. सलमान खान चिरंजीवी की फ़िल्म गॉडफादर में हैं. ऐसे ही लाईगर में विजय देवरकोंडा एवं राम्या कृष्णन शामिल थे. कल्कि में इस्लामिक मक्कार लेखक-निर्देशकों के प्रिय पात्र अमिताभ बच्चन के अलावा दीपिका पादुकोण, दिशा पटानी है और ऐसे तमाम उदाहरण आपको मिल जायेंगे.
हालांकि इसमें दिक्क़त ये है कि हिंदी सिनेमा के कुकर्मियों के इस्लामी-वामपंथी संक्रमण का कर्क रोग अब दक्षिण के सिनेमा को भी लग रहा है पिछले दिनों नयनतारा की फिल्म अन्नपूर्णी में हिंदू पुजारी की लड़की को बिरयानी बनाने से पहले नमाज पढ़ते दिखाने और लव जिहाद के एंगल के साथ ही फरहान लड़की को मांस खिलाते हुए भगवान श्रीराम को मांसाहारी बताने को लेकर बड़ा विवाद पैदा हुआ. असल में सूअर का व्यवहार ऐसा होता कि उसे किसी भी परिवेश में रखो, अंततः वह कीचड़ में जरूर लोटेगा. कुछ पंथीय- सैद्धांतिक मानसिकताएँ भी ऐसी ही है.
राष्ट्रवादी ट्रेड यूनियन नेता दत्तोपन्त ठेंगड़ी लिखते हैं, ”मोक्ष की शाश्वत खोज में जुटी मानवता के लिए ललित कलाएँ दैवी वरदान हैं. ललित कलाएँ मानव को इस योग्य बनाती हैं कि वह सरस, सुंदर, उत्थानकारी तथा मनमोहक मनोरंजन के माध्यम से स्वयं को परिमार्जित तथा प्रबुद्ध कर सके. यह संस्कार का एक प्रमुख वाहन है.” वर्तमान परिस्थितियों में कला का यह सातवाँ रूप सिनेमा विशेषकर हिन्दी सिनेमा स्वयं पतित होकर समाज को भी पतनशीलता दुर्दमय रोग से संक्रमित कर रहा है. ऐसा में संस्कृतिक पुनर्जागरण के दौर से गुजर रहे राष्ट्रीय समाज द्वारा इसके बहिष्कार को अनैतिक या अनुचित नहीं माना जा सकता है. यह वास्तव में उसकी स्वाभाविक नियति है क्योंकि कला के आवरण में उसने जो सामाजिक-सांस्कृतिक नकारात्मक समाज में प्रसारित की है वही अब समाज उसे लौटा रहा है. अब वामपंथ एवं शामी पंथीय षड़यंत्र के गठजोड़ से प्रेरित सिनेमा जगत को स्वमूल्यांकन की महती आवश्यकता है ताकि वो अपना वजूद सुरक्षित रख सकें अन्यथा पतन और पराभव की सीमा उससे अधिक दूर नहीं है और यही संभवतः उसके पापवृत्ति का प्रारब्ध भी होगा.