एक साथ चुनाव का निर्णय भारत में अब तक का सबसे बड़ा चुनाव सुधार का महासंकल्प है। इसकी आवश्यकता और धीरे-धीरे अनिवार्यता हर सजग नागरिक वर्षों से अनुभव कर रहा था। 18 सितंबर को भारत सरकार ने रामनाथ कोविंद कमेटी की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया। ऐसा करना असाधारण कार्य है। इसका अनुमान इस पर आई प्रतिक्रियाओं से लगाया जा सकता है। दो तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं, समर्थन और विरोध की। पहले इस पर विचार करना चाहिए कि विरोध आखिर किन बातों पर है। विरोध में जो खड़े हैं और अपने विरोध को विभिन्न मंचों से अभिव्यक्त कर रहे हैं वे विपक्षी राजनीतिक नेता हैं और कुछ राजनीतिक पत्रकार हैं।
इनके स्वर सुने तो समझ सकेंगे कि वे विरोध के लिए विरोध कर रहे हैं। वे भी मन ही मन एक साथ चुनाव की जरूरत अनुभव करते हैं। विरोध की अपनी आदत के सामने वे बेचारे लाचार हैं। इनके विचित्र तर्कों का स्वर है, एक साथ चुनाव कराना संभव नहीं है। रिपोर्ट अव्यवहारिक है। एक साथ चुनाव से संघीय ढांचे को बड़ी हानि होगी। इस तरह के चुनाव से चुनाव खर्च में कोई कमी नहीं आएगी। इन तर्कों में गहरे उतरें तो जो पहली बात दिमाग में कौंधती है, वह बड़ी रोचक है। एक मजाक भी है। क्या कोई राजनीतिक दल अपने पुरखे का इस कदर अपमान कर सकता है जैसा ये तर्क वीर कर रहे हैं? राहुल गांधी को अगर खारिज भी कर दें तो योगेंद्र यादव पर सौ सवाल खड़े होते हैं। पुरखे का अपमान क्या एक मुद्दा नहीं है? अवश्य ही है। राहुल गांधी पंडित जवाहरलाल नेहरू का अपमान कर रहे हैं और योगेंद्र यादव लोकनायक जयप्रकाश नारायण का।
कैसे? यह प्रश्न है और इसका उत्तर खोजना बहुत सरल है। नरेंद्र मोदी सरकार के निर्णय से अगर संघीय ढांचे को गंभीर क्षति पहुंचती है तो यही आरोप पंडित जवाहरलाल नेहरू पर चिपकता है या नहीं? इसका जवाब कौन देगा? जवाब तो चाहिए। क्योंकि 1952 से 1967 तक यानी पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा आम चुनाव एक साथ होते रहे। क्या उन चुनावों से संघीय ढांचे में दरार आई? अगर नहीं आई तो इस समय चिल्लपों क्यों? चुनाव का यह एक उलझा हुआ इतिहास है। इसे किसने उलझाया? किसने एक साथ चुनाव की चलती ट्रेन को रेल की पटरी से उतारा? पंडित नेहरू के उत्तराधिकारी विरोध करते समय इसे समझ लेते तो संभव था कि चुप रहते।
बात अधूरी रहेगी, अगर उलझे इतिहास के पन्नों पर इस समय निशान न लगाए। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ही चुनाव को पटरी से उतारा। यह बात 1959 की है। केरल की सरकार को बर्खास्त कराया। राष्ट्रपति शासन लगाया। यह पहली घटना है। दूसरी घटना प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्णय से हुई। 1971 का वर्ष था। लोकसभा के लिए चुनाव अलग कराया गया। उस चुनाव में पहली बार चिंतित कर देने वाले धन–बल का भोंडा प्रदर्शन सत्तारूढ़ कांग्रेस ने किया। उससे जो व्यक्ति सचमुच चिंतित हो उठा वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण थे। उन्होंने अपने राजनीतिक मित्रों से बात की। उनसे अपना दर्द बांटा। तय हुआ कि कुछ लोग इस पर विचार करने के लिए कहीं मिले। वे मिले।
बेंगलुरू के पास हरदन हल्ली पहाड़ियों में बने एक गेस्ट हाउस पर जेपी ने बात की। प्रश्न था कि बढ़े चुनाव खर्च से लोकतंत्र क्या दिखावा भर नहीं रह जाएगा? इसके उत्तर में चुनाव सुधार अभियान छेड़ने का वहां निर्णय हुआ। वह अभियान जेपी के नेतृत्व में था। उसके विवरण में जाने का यह समय नहीं है। लेकिन यह हर किसी को जानना चाहिए कि इमरजेंसी लगने से पहले पूरा विपक्ष चुनाव सुधार की मांग के लिए पूरे जोर-शोर से आवाज उठाता रहा। इसमें कम्युनिस्ट भी थे। किसे याद नहीं होगा कि लालकृष्ण आडवाणी और इंद्रजीत गुप्त चुनाव सुधार के मुद्दों के लिए उस समय मशहूर थे।
चुनाव सुधार जितना सातवें दशक में जरूरी था उससे कई गुना ज्यादा जरूरी आज है। इसलिए नरेंद्र मोदी सरकार के निर्णय की सर्वत्र सराहना हो रही है। इसे दूसरे तरह से भी देखने की जरूरत है। जिसे विपक्ष ने भुला दिया उसे सत्तापक्ष ने याद रखा। एक तथ्य और है। राजनीतिक दलों ने चुनाव सुधार को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया। अपवाद भाजपा है। वह इसे गंभीर मुद्दा इसलिए भी मानती है कि इसका संबंध लोकतंत्र और संविधान के व्यापक संरक्षण से है। एक तरह का यह मजाक भी है कि जो मुद्दा राजनीतिक दलों को उठाना चाहिए उसे 1983 से चुनाव आयोग उठाता है। पहली बार उसी समय चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराने की आवाज दी। जिसे अनसुनी कर दिया गया। 1999 और 2018 में विधि आयोग ने पुनः एक साथ चुनाव को जरूरी बताया। विधि आयोग की रिपोर्टें इसकी गवाही देती हैं।
इसे संविधान समीक्षा आयोग ने भी महत्वपूर्ण माना। तभी तो अपनी 2002 की रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने की आवश्यकता प्रतिपादित की। संसद की स्थाई समिति ने भी इसे जरूरी माना और अनुकूल संस्तुति दी। नीति आयोग एक कदम आगे बढ़ा। इसी कड़ी में उच्च स्तरीय रामनाथ कोविंद कमेटी को देखना चाहिए। इस कमेटी का गठन राष्ट्रीय आकांक्षा को पूरा करने के लिए किया गया। विपक्ष यह क्यों नहीं समझता! यह तो सच से विमुख होना है। होना तो यह चाहिए था कि विपक्ष इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति आभार जताए। क्योंकि जिसे जन-जन चाहता है और जो लोकतंत्र और संविधान के संवर्धन के लिए जरूरी है वह ही इस निर्णय से प्रकट होता है। यह सच है कि एक साथ चुनाव आसान नहीं है। इस सच से क्या कोई इंकार कर सकता है कि जो आसान नहीं है, वही करने का माद्दा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में है।
एक साथ चुनाव से लोकतंत्र सहभागी होगा। चुनाव का खर्च कम होगा। सामाजिक उन्नति के नए अवसर उत्पन्न होंगे। एक आशंका यह व्यक्त की गई है कि इससे राष्ट्रीय दल फायदे में होंगे और क्षेत्रीय दल नुकसान में होंगे। यह दिमागी फितूर है। सबसे बड़ी बात यह है कि एक साथ चुनाव नया प्रयोग नहीं है। पुरानी परंपरा की पुनः प्रतीक्षा है। इसे संभव बनाने के लिए हर संवैधानिक संस्थाओं का सरकार ने सहयोग लिया है। इसके विपरीत पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी ने जब एक साथ चुनाव को पटरी से उतारा था तब संविधान के साथ खिलवाड़ किया गया था। कुछ दिन पहले लोकसभा के चुनाव प्रचार में राहुल गांधी ने संविधान हाथ में लेकर संविधान से खिलवाड़ किया। लोगों को धोखे में रखा। झूठ बोला कि संविधान खतरे में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस समय उसका सटीक जवाब भी दिया था। अब जब संविधान अपनी पूरी खिलावट पर है और उसी का एक परिणाम है कि एक साथ चुनाव कराने का साहसपूर्ण निर्णय हो चुका है तब विपक्ष आडे़–तिरछे निराधार बातें उछाल रहा है।
विधि आयोग की रिपोर्ट में भी एक साथ चुनाव के लिए सिफारिश है। यह 22वें विधि आयोग की रिपोर्ट है। हालांकि उसकी अंतिम रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई है, लेकिन इसी वर्ष मार्च में वह सरकार को मिल गई थी। इस विधि आयोग ने नवंबर, 2022 में कार्य प्रारंभ किया था। इस संदर्भ में रामनाथ कोविंद कमेटी की रिपोर्ट को देखें तो विपक्ष के आरोपों पर हंसी आएगी। यह रिपोर्ट 281 पेज की है। जिसका परिशिष्ट 18 हजार 345 पृष्ठों का है। इससे एक बात अपने आप सिद्ध होती है कि इस कमेटी ने गंभीर मंथन किया है। दस्तावेज दिए हैं। एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य इस रिपोर्ट से निकला है। हर समय चुनाव के कारण हर वर्ष 3 सौ दिन का नुकसान होता है। यह वास्तव में राष्ट्रीय क्षति है। आश्चर्य यह है कि विपक्ष इसे क्यों नहीं देख पा रहा है। अगर यह सिलसिला चलता रहा तो गरीब और ग्रामीण ही नहीं पूरा देश इसकी क्षति को झेलेगा। शासन को जन-कल्याण के कार्य संपन्न करने के लिए सिर्फ वर्ष में 65 दिन मिलेंगे। यह क्या प्रलय से कम भयानक है।
यह भी जानना चाहिए कि रामनाथ कोविंद कमेटी को 21 हजार 558 सुझाव मिले थे। जिसमें 80 फीसद सुझाव एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में थे। यह एक स्पष्ट जनादेश जैसा है। कमेटी के समक्ष 47 राजनीतिक दलों ने अपने विचार रखे। जिनमें 32 राजनीतिक दलों ने एक साथ चुनाव का समर्थन किया। क्या इसके बाद भी कोई प्रश्न एक साथ चुनाव के संदर्भ में बना रहता है? इसका उत्तर सीधा है, सरल है और समझने में सुगम है। जिन्होंने न समझने की ठान रखी है वे संविधान निर्माताओं का भी अपमान कर रहे हैं। संविधान सभा में एक साथ चुनाव पर प्रश्न नहीं थे। एक मत से संविधान निर्माताओं ने देश की जनता पर भरोसा जताया था। इसीलिए पहले आम चुनाव में एक साथ चुनाव बड़ी तैयारियों से हुआ। जिसे पहले चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने संपन्न कराया। जवाहरलाल नेहरू तो संविधान के लागू होने के फौरन बाद ही चुनाव करवाना चाहते थे।
सुकुमार सेन ने अपना समय लिया। चुनाव की जरूरी तैयारियां करवाई। उस समय एक साथ चुनाव चमत्कार ही था। 21 वर्ष या उससे अधिक उम्र के करीब 18 करोड़ मतदाता थे। जिनमें 85 फीसद अपढ़ थे। आज मतदाता बहुत ज्यादा हैं। चुनाव कराने का लंबा अनुभव चुनाव आयोग को है। इस चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव को संभव बताया है। भारत सरकार का राजनीतिक नेतृत्व बड़े लक्ष्य से प्रेरित है। उसमें आत्मविश्वास है। चुनाव आयोग तैयार है। फिर अड़चन क्या है! एक साथ चुनाव को साधारण नागरिक ‘जिन खोजा तिन पाइयां’ मानता है।