दांत अब केवल मानव अंग ही नहीं हैं। वरन भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Indian Evidence Act 1872) के तहत एक सबूत भी मान्य है। मुंबई हाईकोर्ट की राय में। आयु का प्रमाण भी है कि पीड़िता वयस्क है अथवा नाबालिग। हालांकि महाराष्ट्र शासन के अभियोजन पक्ष के तर्क के अनुसार भी इस तथ्य की स्वीकृति नहीं दी गई कि पीड़िता एक शिशु की मां बन गई थी। इसको भी ध्यान नहीं दिया गया कि अभियुक्त मेहरबान हसन बाबूखान ने अपनी हवस की शिकार हुये किशोरी को कोई भी राहत नहीं पहुंचाई। न्याय-विवेचन केवल इसी प्रक्रिया तक सीमित रहा कि पीड़िता वयस्क है अथवा नाबालिग जिसके कारण उसके मुकदमे (POCSO) पर कानून के तहत निर्णय हो। बॉम्बे हाईकोर्ट की न्यायमूर्ति अनुजा प्रभूदेसाई ने रायगढ़ सत्र न्यायालय द्वारा जेल की सजा के फैसले को निरस्त कर दिया। न्यायमूर्ति ने बलात्कारी को रिहा भी कर दिया। निर्णय का आधार यह था कि अभियोजन पक्ष यह प्रमाणित नहीं कर पाया कि पीड़िता वयस्क नहीं थी अतः Pocso कानून के तहत उसे मदद दी जा सके। महाराष्ट्र शासन के अभियोजन पक्ष के वकील थे श्री एन. बी. पाटिल। वकील रिबेक्का गोंसाल्वज पीड़िता की अधिवक्ता रहीं।
इस न्यायिक आदेश की रपट दैनिक “नवभारत टाइम्स” (लखनऊ) में 9 मई 2023 को छपी। इसके अंश यूं थे : “बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने एक आदेश में स्पष्ट किया है कि सिर्फ तीसरी “अक्ल दाढ़” (दांत) का न होना दुष्कर्म के मामले में पीड़िता के नाबालिग होने का निर्णायक सबूत नहीं हो सकता है। कोर्ट ने इस मामले में 10 साल की सजा पाए आरोपित को बरी कर दिया है।” जस्टिस अनुजा प्रभूदेसाई ने कहा कि रायगढ़ की विशेष अदालत ने आरोपित को दोषी ठहराने के लिए मुख्य रूप से उस दांत के डॉक्टर की गवाही पर ज्यादा भरोसा जताया, जिसने मेडिकल जांच के बाद पीड़िता को नाबालिग बताया था। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा है कि पीड़िता नाबालिग थी, इसीलिए आरोपित को आरोप-मुक्त किया जाता है।
दंत चिकित्सक ने रिपोर्ट में कहा था कि पीड़िता के मुंह में तीसरी “अक्ल दाढ़” नजर नहीं आयी। इस आधार पर डॉक्टर ने पीड़िता की उम्र 15 से 17 साल के बीच होने का अनुमान जताया था। लेकिन डॉक्टर से जिरह की गई तो उसने बताया कि कई बार 18 साल के बाद भी तीसरी “अक्ल दाढ़” आती है। प्रतिष्ठित लीगल बुक मोदी जुरिसप्रूडेंस के मुताबिक, पहली “अक्ल दाढ़” 12 से 14 साल की उम्र में आती है, जबकि तीसरी 17 से 25 साल के बीच आती है। इस तथ्य के मद्देनजर जस्टिस प्रभुदेसाई ने कहा कि इस मामले में पीड़िता को तीसरी “अक्ल दाढ़” न आने की बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। न्यायमूर्ति ने कहा कि “आसिफिकेशन टेस्ट” सटीक जानकारी के लिए निर्णायक सबूत नहीं हो सकता है। इस मामले में अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा है कि पीड़ित नाबालिग थी।
इस संदर्भ में बलात्कार के प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय 2005 का निर्णय गौरतलब है। (“पायनियर”, लखनऊ, 11 फरवरी 2005, पीटीआई की रपट)। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक निर्णय को रद्द कर डाला था जिसमें बलात्कारी सतीश को (16 मई 2003) के बलत्कार तथा हत्या के आरोप से बरी कर दिया था। सर्वोदय पब्लिक स्कूल की छात्रा का सतीश नामक व्यक्ति ने गन्ने के खेत में बलात्कार कर मार डाला था। सत्र न्यायालय ने सतीश को फांसी की सजा दी थी। पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उसे मुक्त कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अरिजीत पसायत तथा सरोश होमी कपाड़िया (बाद में भारत के 38वें प्रधान न्यायाधीश) ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय को निरस्त कर दिया। न्यायमूर्ति पसायत के निर्णय में लिखा था : कि “सत्र न्यायालय का निर्णय सही था। यह बलात्कार तथा हत्या “Rarest of Rare” श्रेणी की है। मृत्युदंड ही देना चाहिए।”
अतः उच्चतम न्यायालय की इस राय के आधार पर उपरोक्त निर्णय पर पुनर्विचार हो। रायगढ़ का मुकदमा अब सर्वोच्च न्यायालय में विचारार्थ जाये। अबोध पीड़िता को न्याय दिया जाए।