मूल्यों के संकट से जूझता चौथा स्तंभ

शिवेंद्र सिंह1879 के आर्म्स एक्ट का विरोध करते हुए मद्रास कांग्रेस अधिवेशन के समय बिपिन चंद्र पाल ने कटाक्ष किया था, “मैं आश्वस्त हूं कि मुझे अपनी फौलादी कलम और मेरी तेज जिह्वा को छोड़कर अपने जीवन में अपने हथियारों के इस्तेमाल की अप्रिय जरूरत कभी नहीं होगी” (29 दिसम्बर, 1887). श्री पाल का यह वक्तव्य पत्रकारिता के उस ओज की अभिव्यक्ति है जो हथियारों से अधिक मारक एवं प्रभावशाली है.
श्रेष्ठता स्वयं में अभिजात्य होती है. वह अपने स्तर से नीचे नहीं उतरती. अतः उस तक पहुंचने के लिए व्यक्ति को स्वयं ऊपर उठना होता है. क्षुद्रता इसके ठीक विपरीत है. उसमें उत्कर्ष की संभावना नहीं होती. वह व्यक्ति को स्वयं ही अपने स्तर तक खींच लाती है.
एक श्रेष्ठ पेशे के रूप में पत्रकारिता की यही स्थिति रही है. किंतु वर्तमान स्थिति ऐसी नहीं है. क्षुद्र प्रकृति के लोगों ने जुड़कर इसे निकृष्टता की ओर धकेलना शुरू कर दिया है. लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, जिसके ऊपर लोकतंत्र के मार्गदर्शन और उसे सही दिशा दिखाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है, आज दिशाहीन एवं अपने आत्मसम्मान की रक्षा हेतु संघर्षरत है. 
 
आज राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक, अग़ारकर, महात्मा गाँधी, माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रताप नारायण मिश्र की कोटि के पत्रकार दुर्लभ हैं क्योंकि इसके लिए अध्ययनशीलता, धैर्य, उच्च कोटि की बौद्धिकता, पूर्वाग्रह रहित दृष्टिकोण, धन-दौलत, पद एवं प्रसिद्धि के लोभ से मुक्त व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है. पंडित दीनदयाल उपाध्याय, जिन्होंने 40 के दशक में संपादक के रूप में अपने नाम का इस्तेमाल किये बिना ‘पांचजन्य’ एवं ‘राष्ट्रधर्म’ का संपादन किया. उपरोक्त विभूतियों ने पत्रकारिता में जिस चारित्रिक प्रतिमान की स्थापना की आज उस परंपरा के उत्तराधिकार का दावा करने की स्थिति में अति अल्प लोग हैं.
अरस्तु कहते हैं कि ‘प्रकृति को खाली जगह पसंद नहीं है.’ अतः चरित्रवान व्यक्तियों की रिक्तता निम्न स्तरीय लोगों से भर गई. जिन्हें ना पत्रकारिता मूल्यों की समझ है और ना ही उसमें रूचि. मेराज फैजाबादी का यह शेर,
“शायरी में मीर-ओ-गालिब के जमाने अब कहाँ,
 शोहरतें जब इतनी सस्ती हों, अदब देखेगा कौन”,
 वर्तमान पत्रकारिता जगत की वास्तविकता को उचित प्रकार से व्यक्त करता है. प्रश्न है कि ऐसा क्यूँ हुआ? 
 दृढ़ विश्वास की न्यूनता मूल्यों का संकट उत्पन्न करती है. किसी पेशे में ज़ब लोभ एवं सिद्धांतहीनता जुड़ जाए तो उसकी नैतिकता समझौतावादी (कॉम्प्रोमाइज) हो जाती है. पत्रकारिता-मूल्यों में गिरावट का मुख्य कारण उस पर पूँजीवाद-बाजारवाद का हावी होना है जिसमें नैतिकता एवं चरित्र उपहास के विषय समझें जाते हैं. कम समय में प्रसिद्धि एवं धन लाभ प्राप्त करने की भावना प्रेरित वर्ग ने पत्रकारिता के पतन का मार्ग सुनिश्चित् किया है. ज़ब भी कोई समाज भौतिकता की तरफ झुकता है तो वहां निश्चित रूप से मूल्य के प्रति संवेदना कम होती चली जाती है.
व्यवसायिक पूंजी के प्रवेश ने हमेशा ही नैतिकता का ध्वंस किया है. इसका ज्वलंत उदाहरण सिनेमा है. संपादन और निष्पादन कलाओं के सम्मिलन से निर्मित सिनेमा को ‘सेवेंथ आर्ट’ कहा जाता है. अपने अस्तित्वमान होने के बाद से ही यह कलापूजकों के विभिन्न वर्ग यथा लेखकों, शायरों-कवियों, रंगमंचिय कलाकारों का आश्रय स्थल बना. परंतु 70 के दशक में जब क्षेत्र में व्यवसायिक वर्ग ने प्रवेश किया तबसे सिनेमा कला के बजाय ‘इंडस्ट्री’ बन गई और उसकी नैतिकता के विषय में आज चर्चा करना ही व्यर्थ है. ऐसा ही पत्रकारिता के साथ हुआ.
 वर्तमान पत्रकारिता के गिरते स्तर के लिए सर्वाधिक  जिम्मेदारी इलेक्ट्रॉनिक मिडिया है. किसी भी व्यवसाय के अपने आतंरिक द्वन्द होते हैं किंतु एक व्यवसाय के रूप में इलेक्ट्रॉनिक मिडिया ने नैतिकता के सारे प्रतिमान ध्वस्त कर दिये हैं. एक समय मीडिया मुगल कहलाने वाले रूपर्ट मर्डोक ने कहा था “इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से ही नई परिभाषाएं बनेंगी.” नई परिभाषा बनी, किंतु यह भ्रष्टाचार की थी. वर्ष 2002 में इन्हीं मर्डोक की कंपनी न्यूज कॉरपोरेशन पर पांच बड़ी टीवी कंपनियों ने मुकदमे दर्ज कराएं. उनकी शिकायत थी कि उन्हें नुकसान पहुंचाने के लिए गलत तरीकों जैसे वेब हैकर, जासूस पुलिस वालों का इस्तेमाल किया गया. बीबीसी के पूर्व पत्रकार  नील शेनोवेथ की किताब ‘मर्डोकस् पाइरेट्स’ (2012) इसी विवाद पर आधारित है.
भारतीय मिडिया में भी ऐसे भ्रष्ट आचरणों के   उदाहरण भरे पड़े हैं. वर्ष 2012 में जेएसपीएल ने दिल्ली पुलिस में जी न्‍यूज के संपादकों सुधीर चौधरी एवं समीर आहलूवालिया पर भयादोहन (ब्लैकमेल) करने की रिपोर्ट दर्ज कराई थीं. आरोप था कि इन्होंने कोयला घोटाले मामले में कंपनी के विरुद्ध ख़बरें प्रसारित ना करने के एवज में 100 करोड़ रुपए की रिश्वत माँगी थीं. स्टिंग के बाद जारी एक वीडियो में यह दोनों पत्रकार पैसों के संबंध में बातचीत करते हुए देखे जा सकते हैं. बाद में इन दोनों संपादकों की गिरफ्तारी भी हुई.
समाचार चैनल NDTV के प्रोत्साहकों (प्रमोटर्स) प्रणय रॉय और उनकी पत्नी राधिका रॉय फेरा, धन-शोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) और जालसाजी के आरोपों का सामना कर रहे हैं. इनके कुछ बड़े व्यवसायिक घरानों के साथ अनुबंधों में शामिल होने की बात भी कही जाती है. भ्रष्टाचार के विरुद्ध अपनी निर्भीक छवि बनाने वाले तरुण तेजपाल एक महिला सहकर्मी के विरुद्ध यौन अपराधों के लिए गिरफ्तार हुए. ऐसे ही यौन शोषण के आरोप पत्रकार एवं पूर्व मंत्री एम.ज़े. अकबर पर भी लगे.
 भारत में पत्रकारिता राजनीतिक खांचो में बुरी तरह से विभाजित है. जहां मूल्यों की प्रतिबद्धता पैसे से अधिक समान हितधारी राजनीतिक तबके के साथ अधिक है. उदाहरणस्वरुप, भारत में 2014 के आम चुनावों से अब तक मीडिया के एक वर्ग ने जैसे विपक्षी दल की भूमिका अदा की हैं तो दूसरा वर्ग सरकार का प्रवक्ता ही बन गया है. समान स्थिति अमेरिका में वर्ष 2016 के राष्ट्रपति चुनाव के समय उत्पन्न हुई. उस समय अमेरिका के प्रमुख मीडिया संगठनों ने रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध अभियान छेड़ रखा था. यह स्थिति ट्रंप के पूरे कार्यकाल के दौरान बनी रही. उस समय पत्रकारिता की निष्पक्षता रसातल में चली गई थी. यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के वजूद पर कुठाराघात था.
  आज अधिकांश बड़े मीडिया संस्थान शेयर बाजार में सूचीबद्ध हैं. अतः इसे जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि लाभ कमाना उनका मुख्य ध्येय है. साथ ही उनके मालिकान की अपनी राजनीतिक महत्त्वकांक्षा भी है. जी समाचार समूह के मालिक सुभाष चंद्रा भाजपा के समर्थन से हरियाणा से राज्यसभा सांसद हैं . ऐसे में उनके संस्थान से निष्पक्ष होकर पत्रकारिता की उम्मीद कैसे लगाई जा सकती है?
राजदीप सरदेसाई और रवीश कुमार जैसे लोग पत्रकारिता के अतिवादी रुख के साक्षात्  प्रतिमान बन गए हैं. ये देश में दिन-रात असहिष्णुता और आपातकाल लागू होने की घोषणा करने का रोना ही रोते रहते हैं. संभवत इन्होंने आपातकाल के काले अध्याय को ठीक से देखा-समझा नहीं है. इनकी रूचि पत्रकारिता से अधिक नकारात्मकता के प्रसार में है. इन्हें देश में कुछ भी अच्छा दिखता ही नहीं है. जब भी सार्वजनिक हित के पेशे से जुड़ा कोई व्यक्ति प्रतिशोध एवं पूर्वाग्रह की भावना से प्रेरित होकर कार्य करता है तो वह संपूर्ण राष्ट्र एवं समाज के लिए घातक सिद्ध होता है.
अभी इधर राहुल गांधी के खिलाफ गलत भ्रामक खबर प्रसारित करने के कारण जी न्यूज के पत्रकार रोहित रंजन गिरफ्तार हुए. उन्होंने पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष के बयान को इस तरह तोड़-मरोड़ कर पेश किया जैसे वह उदयपुर के मृतक कन्हैयालाल के हत्यारों की तरफदारी कर रहे हों. यह पत्रकारिता मूल्यों का अपमान है. इसे सनसनी फैलाने एवं निजी प्रतिशोध की कुंठा का उद्वेग ही समझा जाएगा. इलेक्ट्रॉनिक मिडिया को पत्रकारिता के मानद मूल्यों के प्रति अधिक जागरूक होना चाहिए क्योंकि जनमत क़ो तीव्र एवं सर्वाधिक गति से प्रभावित करने की क्षमता उनके पास है.
 
लेकिन स्थिति इससे भी विकट हैं. अभी लगभग एक माह पूर्व उत्तर प्रदेश के अमरोहा में एक मान्यता प्राप्त पत्रकार डकैती के आरोप में पकड़ा गया. वही कासगंज में एक टीवी पत्रकार स्थानीय पुलिस की मदद से रात को सड़क किनारे के यूकेलिप्टस के पेड़ कटवा कर बेचते पकड़े गए. असल में यह पत्रकारिता  के नाम पर उग आये वसूली अभिकर्ताओं का नया वर्ग हैं.
 वर्ष 2003 से पत्रकारिता में पेड न्यूज की नई व्याधि शुरू हो गई, जिसने इस सम्मानित पेशे को  षड्यंत्रकारी बना दिया. परिणामस्वरूप भ्रामक खबरें और पीत पत्रकारिता अब व्यापक चलन में है. तकनीकी का सहयोग इन्हें नित नये विध्वंसक रूप दे रहा है, जैसे कि ‘डिप फेक’. यह कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) की मदद से तैयार किया गया ऑडियो या वीडियो रिकॉर्डिंग होता है. ‘बज फीड’ (BUZZ FEED) पहली ऐसी जनसंचार इकाई (मीडिया कंपनी) थी जिसने इस विषय पर विमर्श प्रारम्भ किया. मामला था कि एक जाली (Fake) चलचित्र अंश (वीडियो क्लिप) के जरिए पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को डोनाल्ड ट्रंप की आलोचना करते हुए दिखाया गया था. जबकि यह पूरी तरह मनगढ़ंत था. इस समय ऐसी तकनीकों का दायरा बढ़ रहा है. अब राजनीतिक और धार्मिक हिंसा को बढ़ावा देने के लिए इनका सहारा लिया जा रहा है.
 
आश्चर्यजनक रूप से ऐसे कृत्यों के पार्श्व में जनसंचार संस्थानों की व्यापक भूमिका है. भारत में निरंतर बढ़ रही धार्मिक हिंसा में संचार माध्यमों (मिडिया) की बड़ी भूमिका है. भारत में मध्यकाल से अब तक धार्मिक तनाव एवं टकराव हमेशा से रहा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जनसंचार ने इसे विशेष रूप से प्रसारित किया है. स्पष्ट कहें तो वर्तमान पत्रकारिता उस दौर में है, जहां वह धार्मिक विवादों के परे कुछ देख ही नहीं पा रही है. इस समय न्यूज़ चैनलों पर लोकतंत्र के मूलभूत मुद्दों से जुड़ी खबरों के बजाय मनोरंजक कार्यक्रम चलने लगे हैं जैसे भूत-प्रेत की कहानियां, यौनिकता के आवरण में लपेटकर अपराध कथाएं, सिनेमाई कलाकारों के महत्वहीन साक्षात्कार. थोड़े कठोर शब्दों में कहें तो मीडिया चैनल्स पत्रकारिता नहीं बल्कि भांडगिरी के नमूने बनते जा रहे हैं.
वस्तुस्थिति यह है कि इस दौर की पत्रकारिता घोषित कर्त्तव्य पालन, अघोषित व्यावसायिकता, गला-काट प्रतिस्पर्धा, तीव्रगामी सुलभता, सर्वव्यापकता, अनैतिक कार्यशैली, दुराग्रही रवैया, सत्तानुकूलता एवं सरकार के अंधविरोध, पीत पत्रकारिता, गया गैरनिरपेक्ष तथा वैचारिक प्रतिबद्धता और अभिजनवाद की अजीब सी भूलभुलैया में फंस गई है. यूँ कहें कि पत्रकारिता आज एक अंधी गली बन चुकी है.
हालांकि उम्मीद समाप्त नहीं हुई है. एक तरफ ऐसी पत्रकारिता है, जहां धन-दौलत एवं उच्च पद की प्राप्ति के लिए राजनीति, नौकरशाही, पूँजीवाद-बाजारवाद के साथ दुरभी संधि में शामिल होने में संकोच नहीं किया जाता. वही दूसरी तरफ पत्रकारिता के ऐसे भी प्रतिमान हैं जो अपने मूल्यों पर अडिग हैं. रूसी संपादक दिमित्री मुरातोव ने अपने नोबेल पुरस्कार के तमगे को नीलामी में बेचकर प्राप्त राशि यूक्रेन के युद्ध पीड़ितों को दान दिया. यह जानकर प्रतीत होता है कि इस अंधी गली में भी कहीं-कहीं रोशनी की खिड़कियां खुली हुई है.
  आज जो नेशनल हेराल्ड फर्जीवाड़ा एवं धन शोधन के आरोप में चर्चा में है, कभी पत्रकारिता मूल्यों का मानद स्तंभ हुआ करता था. द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में जब यह आर्थिक संकट से गुजर रहा था. तब इसके पत्रकारों एवं कर्मचारियों ने स्वेच्छा से अपना वेतन आधा कर लिया एवं तीन महीने तो बिना वेतन के काम किया. कई अविवाहित कर्मचारी कार्यालय परिसर में रहने-सोने लगे तथा उनके लिए चंदे के पैसे से सामूहिक रसोईघर में खाना बनता था. किसी भी पेशे के नैतिकता के प्रतिमानों की परख इस आधार पर होती है, ज़ब वह विपरीत परिस्थितियों का सामना कर रहा हो.
 ऐसा नहीं है कि पत्रकारिता एक स्वच्छंद पेशा है. यह भी नियमन के दायरे से परे नहीं है. भारतीय प्रेस परिषद पत्रकारिता के नैतिक मानदंडों का संरक्षक है. किंतु उसकी अधिकारिता अख़बारों एवं पत्रिकाओं (प्रिंट मिडिया) तक सीमित है. इसके अतिरिक्त परिषद के पास दंडात्मक कार्यवाहियों का अधिकार नहीं है. वह केवल चेतावनी देना या निंदा कर सकती है. न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए मानक निर्धारित करता है. स्वयं सरकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के नियमन हेतु नित नये कानून बनाने में लगी है. परंतु यह सब पत्रकारिता की अधोगति को रोकने में सक्षम नहीं हो पा रहा. 
इस अधोपतन से उबारने के कई उपाय सुझाए जा सकते हैं, यथा प्रेस परिषद की निगरानी के दायरे को विस्तृत करना, कठोर एवं दंडात्मक कानूनों का नियमन, पत्रकारिता में छिपे व्यावसायिक वर्ग की पहचान और उन्हें चिन्हित करना इत्यादि. इन सबसे एक निश्चित सीमा तक ही सुधार हो सकता है परंतु उस कुत्सित मनोवृति में बदलाव नहीं हो सकता जो इस पतन के मूल में है. इसके लिए नैतिकता उन्नयन की आवश्यकता है. कानून बाह्य प्रेरणा होते हैं लेकिन मूल्य आंतरिक प्रेरणा श्रोत हैं. सर्वाधिक उचित यही होगा कि पत्रकारिता जैसे एक अभिजात (नोबेल) पेशे को खुद की कमियों से उबरने के लिए स्वयं की अंतःप्रेरण की क्षमता का प्रयोग करना होगा.
 प्रतिष्ठित पत्रकार पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर जी के शब्दों में कहें तो, “तथापि, यदि बहुत कुछ नकारात्मक है तो बहुत कुछ सकारात्मक भी है. राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति के संदर्भों के साथ-साथ संस्कारों-सरोकारों की भी एक दुनिया है. चुनौतियां हैं तो हौसले भी है” (कर्मवीर, 1अगस्त,1997). इस उम्मीद में कि भविष्य में पत्रकारिता अपने आधारभूत  मूल्यों की पुर्नप्रतिष्ठा में सक्षम सिद्ध होगी, हमें जम्हुरियत के चौथे स्तंभ पर अपना विश्वास बनाये रखना होगा.

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