अंग्रेजों से मुक्ति के लिए साझा प्रयास का बड़ा उदाहरण वाराणसी में मिलता है। वजीर अली को जगत नारायण सिंह की मदद मिली। जिसमें अंग्रेजों से बड़ी लड़ाई हुई। यह बात अलग है कि कंपनी की फौज को सफलता मिली। यह बात 1797 की है। इसका उल्लेख इतिहासकार पी.एन. चोपड़ा ने भी अपनी किताब में किया है। उन्होंने लार्ड वेल्सले के कथन से इसकी पुष्टि की है कि विद्रोह में मुसलमान बढ़—चढ़कर शामिल थे। 1816 में बरेली में एक विद्रोह हुआ, जिसका नेतृत्व मुफ्ती मुहम्मद ऐवाज कर रहे थे। वे रूहेल खंड के सम्मानित नेता थे।
उसी दौर में वहाबी और फरायजी विद्रोहों की घटनाएं हुई। इनसे स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में एक नया आयाम जुड़ा। उन घटनाओं में मुसलमानों का जो लोग नेतृत्व कर रहे थे, वे जेहाद (धर्मयुद्ध) का रास्ता दिखाते हैं। इसमें अपने खोए हुए प्रभुत्व को प्राप्त करने की भावना थी। इसके पहले उदाहरण शाह वलीउल्लाह हैं। एक तरफ मुगल सत्ता का पतन हो रहा था और उससे मुसलमानों में बेचैनी थी। ऐसे समय में वलीउल्लाह सामने आते हैं। 1732 में वे मक्का-मदीना पहुंचे। वहां दो वर्ष रहकर वे दिल्ली लौटे। इस्लाम की गिरती हुई दशा से वे भली-भांति परिचित थे। उन्होंने इसके लिए दो कारण बताए। पहला, कुरान और हदीस का अध्ययन न करना। दूसरा, मुसलमानों में फूट। अपने सिन्धंतों के प्रचार के लिए 1743 में उन्होंने एक मदरसा स्थापित किया।
इस ‘पतन’ से मुसलमानों को निकालने के लिए शाह वलीउल्लाह ने एक आंदोलन चलाया। ‘वे मुसलमानों की खोई हुई प्रधानता को पुनः प्राप्त करना चाहते थे। साथ ही वे मुसलमानों को कुरान का अनुयायी बनाना चाहते थे। अरब की परंपराओं को ही वे भारतीय मुसलमानों के लिए लक्ष्य मानते थे और मरते समय उनके लिए यह वसीयत छोड़ गए थे कि वे हिन्दुओं के रीति-रिवाजों को न अपनाएं। इस प्रकार वह परंपरा आरंभ हुई जो राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में हिन्दू और मुसलमान को एक-दूसरे से अलग करती चली गई। ऐसा ही मत इतिहासकार मुबारक अली का भी है। वे लिखते हैं, शाह वलीउल्लाह का मानना था कि हिन्दुओं के विरूद्ध जेहाद छेड़कर मुस्लिम संप्रदाय भारत में बचा रह सकता है।‘इस नई भूमिका को निभाने वाले पहले धार्मिक नेता शाह वलीउल्लाह थे। धर्म के राजनीतिकरण और भारतीय उलेमा के लिए नई भूमिका के निर्धारण का श्रेय इन्हें ही देना चाहिए। उनकी मृत्यु 1763 में हो गई। शाह वलीउल्लाह के बाद मुसलमानों के उत्थान एवं प्रगति का जिम्मा उनके बेटे अब्दुल अजीज पर आया।
प्रो. एम.एस. जैन का मत है, ‘वलीउल्लाह के समय में दिल्ली के इस्लामी राज्य में कुछ थोड़ी जान बची थी, लेकिन अब्दुल अजीज के समय वह नाम मात्र की ही रह गयी थी।’शाह वलीउल्लाह के आंदोलन का दूसरा पक्ष मुसलमानों की राजनीतिक शक्ति को पुनः स्थापित करना था। यह तब ही संभव था जब उनमें संघर्ष और जेहाद की भावना जागृत की जाए। इसके लिए अब्दुल अजीज को ऐसे शिष्यों की आवष्यकता थी जो इस जेहाद का संचालन कर सकें। उन्होंने अपने शिष्यों के एक मंडल का गठन किया, जिसमें सैयद अहमद बरेलवी, शाह मोहम्मद इस्माइल, मौलना अब्दुल हैई शाह इसहाक थे। इस मंडल का नेतृत्व शाह इसहाक करते थे और जेहाद के संचालन का कार्य सैयद अहमद बरेलवी को दिया गया। इस मंडल ने एक फौज बनाई। उसके लिए प्रचार किए। उस प्रचार में मुसलमानों को हिन्दुओं के रीति-रिवाजों से मुक्ति दिलाने का विचार होता था। स्वाधीनता आंदोलन में भटकाव और मजहबी रंग वहाबी आंदोलन की उपज है। आज यह नतीजा निकाला जा सकता है कि वहाबियों ने बुद्धि का इस्तेमाल तो किया, लेकिन वे एक आयाम तक सिमट कर रह गए। स्वाधीनता आंदोलन की मांग बहुआयामी बुद्धि की थी।
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के ताने-बाने का उत्तर से दक्षिण तक विस्तार 19वीं सदी में हुआ। उस समय जनमानस अंग्रेजी राज के विरोध में था। उससे असंतोष की लहरें भीतर ही भीतर आकार ले रहीं थीं। लेकिन एक संगठित प्रतिरोध भारतीय वहाबियों की ओर से शुरू किया गया। इसने स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में एक नया अध्याय लिखा। ‘यह सबसे शुरूआती, सबसे सुसंगत और दीर्घकालिक प्रतिरोधों में से था और सबसे अधिक उल्लेखनीय ब्रिटिश-विरोधी आंदोलन था, जो 19वीं सदी के भारतीय इतिहास में प्रभावी रहा। वह समय मुगल काल के पतन का है। जिसके कारण मुसलमानों में अराजकता, निराशा और अंधकार की भावना थी। वही दौर है जब मजहब पर राजनीति का मुलंमा चढ़ाने के कार्य में उलेमा आगे आए।
कुछ इतिहासकार चाहते हैं कि सैयद अहमद बरलेवी को स्वाधीनता आंदोलन शुरू करने वाला पहला नायक माना जाए। लेकिन यह खोटे सिक्के को चलाने जैसा है। मौलाना सैयद अहमद बरेलवी रायबरेली के थे। पत्रकार एम. जे. अकबर ने लिखा है-‘सैयद अहमद बरेलवी ने 1825 में एक जेहाद शुरू किया। बरेलवी का आंदोलन पूर्वी हिन्दुस्तान में शुरू हुआ, लेकिन उन्होंने उत्तर-पष्चिम सरहदी सूबे के मालाकंद मंडल में बालाकोट नामक स्थान को अपना युद्ध का मुख्यालय बनाया।…बरेलवी की ताकत निचले दर्जे और दबे-कुचले तबके की शक्तियों को लामबंद करने में छिपी हुई थी। …इस लंबी जंग ने अंग्रेजों के दिमाग में इस नजरिये की ताईद कर दी कि जब मुसलमान आस्था से प्रेरित होते थे तो वे ऐसे विचारों के लिए लड़ते थे जो इलाके या सल्तनत से कहीं परे तक जाते थे, और उन्हें कायल कर दिया कि इस्लाम ऐसा मजहब था, जो स्थाई युद्ध की प्रेरणा देता था।
जेहादियों की नजर में इस्लाम का भाग्य मुसलमानों की राजनीतिक शक्ति से जुड़ा था। यह एक नई भूमिका थी। जिसके मजहबी नायक शाह वलीउल्लाह हुए। डा. अतहर अब्बास रिजवी ने लिखा है, ‘दिल्ली में सुन्नी मुसलमानों की राजनीतिक सत्ता कायम करना उनका एक मात्र लक्ष्य था।’ हालांकि उन्हें तब सफलता नहीं मिली। लेकिन उन्होंने सर्वइस्लामवाद का बीजारोपण तो कर ही दिया। जिससे भविष्य में अनेक शाखाएं फूटीं। इस जेहाद का उद्देष्य क्या था? क्या भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के लिए वे लोग आगे आए थे? इतिहास के विद्वान प्रो. एम.एस. जैन ने इसे प्रष्नांकित करते लिखा है कि तौफीक निजामी यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि सैयद अहमद बरेलवी भारतीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले प्रथम व्यक्ति थे और अंग्रेजों को बाहर निकालकर राष्ट्रीय सरकार की स्थापना करना चाहते थे जिसमें शासक के धर्म औ रआदर्श से कोई झगड़ा न हो। सच इसके विपरीत है।
इसीलिए प्रो. एम.एस. जैन लिखते हैं, ‘ऐतिहासिक संदर्भ को छोड़कर तथ्यों को गलत नीतियों के समर्थन के लिए प्रस्तुत करना ठीक नहीं है।’12 इसका विस्तार उन्होंने इन षब्दों में किया है,…‘सैयद अहमद बरेलवी के आंदोलन का प्रमुख उद्देष्य मुसलमानों को हिन्दुओं के रीति-रिवाजों से मुक्ति दिलाना था। अधिकांष मुसलमान कुछ पीढ़ियांे पूर्व हिन्दू थे। वे हिन्दू तीर्थों को जाते थे तथा उनके विभिन्न रीति-रिवाजों को मानते थे। सैयद अहमद बरेलवी चाहते थे कि मुसलमान इन रीति-रिवाजों को छोड़ दें।’13 अनेक इतिहासकारों को यह तथ्य असहज कर देता है। तथ्य तो तथ्य है। जिन इतिहासकारों ने वहाबी आंदोलन और नवजागरण को विपरीत दिखने पर भी स्वाधीनता आंदोलन से जोड़ा है, वे इतिहास के साथ धोखा-धड़ी के गुनहगार हैं। स्वाधीनता आंदोलन की कसौटी सिर्फ एक ही है। वह उसकी मंजिल है।…….क्रमशः