मानवाधिकार वे मौलिक एवं अन्यसंक्राम्य (Inalienable) अधिकार हैं जो मानव जीवन के लिए आवश्यक हैं. ये वह अधिकार हैं जो प्रत्येक मनुष्य के लिए हैं, केवल इसलिए कि वह मनुष्य है चाहे वजह किसी भी नस्ल या प्रजाति, धर्म या पंथ, राष्ट्र या महाद्वीप, लिंग का हो. ये वे अधिकार हैं जो प्राकृतिक मनुष्यता में निहित हैं. 10 दिसंबर, मानवाधिकार की ऐतिहासिक यथार्थता की परिणीति दिवस के रूप में भारत समेत पूरे विश्व में मनाया गया. द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् कराहती मानवता को नियमावली का संबल देते हुए सयुंक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर, 1948 को मानवीय अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को स्वीकार किया गया.
भारतीय संविधान में इस सार्वभौमिक घोषणा के स्पष्ट प्रभाव को सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया है. केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद (1973) में तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति अधिकारी ने कहा था, ‘मैं यह धारित करने में असमर्थ हूं कि यह अधिकार नैसर्गिक या असंक्रमणीय नहीं है. वास्तव में भारत मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का पक्षकार था तथा उक्त घोषणा कुछ मौलिक अधिकारों को और असंक्रमणीय वर्णित करती है. पुनः चेयरमैन रेलवे बोर्ड तथा अन्य बनाम श्रीमती चंद्रिका दास वाद (2000) में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंगीकृत प्रसंविदा है तथा घोषणाओं का हस्ताक्षर करने वाले देशों द्वारा आदर किया जाना चाहिए तथा इन घोषणाओं तथा प्रसंविधान में शब्दों को दिए गए अर्थ का ऐसा लगाया जाना चाहिए जिससे इन अधिकारों का प्रभावशाली ढंग से कार्यान्वयन किया जा सके.भारतीय संविधान का भाग के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक छः प्रकार के मौलिक अधिकारों का विवरण है. जिनमें समता का अधिकार (अनु.14-18), स्वतंत्रता का अधिकार (अनु.19-22), शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनु.23-24), धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनु.25-28), संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनु.29-30), सांविधानिक उपचारों का अधिकार (अनु.32). इस भाग को ‘भारत के मैग्नाकार्टा’ के रूप में सम्बोधित किया जाता है.मानवाधिकार की सार्वभौम घोषणा के पश्चात् भारतीय संविधान में मूल अधिकारों का समावेश किया जाना, विश्व के अन्य देशों की समकालीन लोकतंत्रात्मक तथा मानवीय वृत्ति और संवैधानिक प्रथा के अनुरूप ही था. भारतीय संविधान सभा मानवाधिकार की सार्वभौम घोषणा द्वारा प्रतिपादित मानवीय गरिमा को समर्थित बुनियादी सिद्धांतों को प्रतिष्ठित, आत्मार्पित एवं क्रियान्वित करने के लिए कटिबद्ध थे. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही भारतीय नेतृत्व वर्ग मानवाधिकारों को एक आकार देने का प्रयास कर रहा था. जैसे 1918 में कांग्रेस के बंबई अधिवेशन सर्वप्रथम मूल अधिकारों की माँग की गई थी. तत्पश्चात् भारत के राज्य-संघ विधेयक (1925) में विधि के समक्ष समता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, इच्छानुरूप धार्मिक पालन जैसे अधिकारों की घोषणा की गई. वही 1927 के मद्रास अधिवेशन में पुनः मूल अधिकारों की माँग करते हुए प्रस्ताव पारित किया गया. 1928 के नेहरू कमेटी की रिपोर्ट में मूल मानवाधिकारों की प्राप्ति को भारतीय जनता का सर्वोपरि लक्ष्य घोषित किया गया था. ध्यातव्य है कि नेहरू रिपोर्ट में शामिल उन्नीस मूल अधिकारों में दस को भारतीय संविधान में यथावत सम्मिलित कर लिया गया. पुनः 1930 में घोषित प्रस्ताव में जिन सामाजिक-आर्थिक अधिकारों पर चर्चा हुई उनमें अनेकों को संविधान के नीति निदेशक तत्वों में शामिल किया गया. 1931 के कराची अधिवेशन में पारित प्रस्ताव में मूल अधिकारों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया. अतः भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के प्रति कटिबद्धता इतिहास की एक स्वभाविक यात्रा जो निर्बाध गतिशील रहीं है.16 दिसंबर,1966 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय संधि स्वीकृत की गई जिसे 10 अप्रैल, 1979 को भारत सरकार ने सहमति प्रदान की. पुन: अक्टूबर, 1991 में मानवाधिकारों के संरक्षण और उनके लिए जागरूकता प्रसार हेतु आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान ‘पेरिस सिद्धांत’ अंगीकृत किये गये जिनकी पुष्टि संयुक्त महासभा द्वारा 20 दिसंबर 1993 को की गई. तब इसी अनुरूप भारत ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन एक सांविधिक निकाय के रूप में मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के अंतर्गत किया. यह देश में मानवाधिकारों का प्रहरी है. यह उन सभी मूलभूत अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है जो अंतर्राष्ट्रीय संधियों द्वारा घोषित अथवा भारतीय संविधान द्वारा सुनिश्चित एवं न्यायपालिका द्वारा अधिरोपित किये गये हैं. आयोग का चरित्र न्यायिक प्रकार है और इसे सिविल न्यायालय जैसे अधिकार तथा शक्तियां प्राप्त हैं.उपरोक्त अधिनियम के आलोक में ऐसे ही आयोग की स्थापना सभी राज्यों में भी की गई है.भारत में मानवाधिकारों का उन्नयन उनके विकास की यात्रा न्यायिक सक्रियता के बिना संभव नहीं थी. न्यायपालिका ने समय-समय पर अपने निर्णयों द्वारा मानवाधिकार के क्षेत्र प्रसारित और सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से प्रतिष्ठित किया. जैसे- एकांत कारावास के विरुद्ध अधिकार( सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन 1978), गुप्तता का अधिकार( खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1964), बेड़ियों के विरुद्ध अधिकार ( चार्ल्स शोभराज बनाम दिल्ली प्रशासन ने 1978), फांसी के दंड विलंबन के विरुद्ध अधिकार(टी. वशीश्वरन बनाम तमिलनाडु राज्य,1983), शीघ्र परीक्षण का अधिकार ( हुसैन आरा खातून बनाम गृह सचिव बिहार राज्य 1980), हिरासत में होने वाली हिंसा के विरुद्ध अधिकार (शीला बार्से बना महाराष्ट्र राज्य,1983), इत्यादिभारत में मानवाधिकारों की प्रतिष्ठा स्थापित करने में न्यायपालिका ने विशेष सक्रियता दिखाई है. इस समय पाकिस्तान का ट्रांसजेंडर समुदाय अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सड़कों पर है. पाकिस्तानी संसद ने ट्रांसजेंडर्स को उनका क़ानूनी हक़ दिलाने के लिए साल 2018 में एक विधेयक पारित किया था. लेकिन वहां का रूढ़िवादी राजनीतिक-धार्मिक वर्ग इस आधार पर इसका विरोध है कि इससे पश्चिमी तौर-तरीकों और समलैंगिकता को बढ़ावा मिलता है.इस क़ानून पर संकट देख ट्रांसजेंडर्स समुदाय आंदोलित है. जबकि भारतीय राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नालसा) बनाम भारत सरकार (2014) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रांसजेंडर समुदाय को तृतीय लिंग घोषित किया एवं नवतेज सिंह बनाम भारत संघ मामले में (2018) समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को आंशिक रूप से निरस्त कर दिया. रणजीत सिंह ब्रह्मजीत सिंह बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले (2005) में सर्वोच्च न्यायालय ने मानवाधिकारों को एक बड़ा आयाम दिया. अपने निर्णय में उसने दलितों के सामाजिक बहिष्कार, महिलाओं के साथ अन्याय, पर्यावरणीय अपकर्ष, प्रदूषण, कुपोषण को मानवाधिकारों के उल्लंघन के विविध स्वरुप माना है.हालांकि मानवाधिकारों का विशेष पक्ष है जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं किया गया है, वह है सुरक्षा बलों अर्थात् सेना, अर्द्धसेना और पुलिस के जवानों का. यह एक गंभीर प्रश्न है कि क्या एक लोकततांत्रिक देश में मानवीय गरिमा क़ो संरक्षित करते मूल अधिकार भी चयनित तरीके से प्रभाव में होने चाहिए? क्या आम जनता क़ो मिलने वाले मानवाधिकार का कवच सुरक्षा बलों एवं पुलिस तक विस्तारित नहीं होना चाहिए? अथवा क्या इन्हें राष्ट्र हाड़-मांस के इंसान नहीं समझता, जिन्हें तकलीफ होती हो या जिनकी भावनाएं आहत होती हो? यह प्रश्न भारत ही नहीं दुनिया भर के देशों के लिए विचारणीय होना चाहिए, बल्कि लोकततांत्रिक देशों के लिए यह मुद्दा अति आवश्यक हो कि क्या अपने आम नागरिकों के गरिमामय जीवन की अधिकारिता के नाम पर सुरक्षा बलों और पुलिसवालों के साथ ही उनके परिवारों की पीड़ा और कष्टों को अनदेखा किया जा रहा है?इसे विमर्श को कुछ प्रतिमानों से समझा जा सकता है. उदाहरणस्वरूप, मानवाधिकारवादियों के विशेष निशाने पर रहने वाला अफस्पा (AFSPA), जिसे 1947 में चार अध्यादेशों के माध्यम से जारी किया गया था तथा 1948 में एक अधिनियम द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था. प्रारंभ में इसे सशस्त्र बल (असम और मणिपुर) विशेष अधिकार अधिनियम, 1958 के रूप में जाना जाता था. नगा विद्रोह से निपटने के लिये यह कानून पहली बार वर्ष 1958 में लागू हुआ था. यह सशस्त्र बलों को बिना वारंट के परिसर में प्रवेश करने, तलाशी लेने और गिरफ्तारी करने की कार्यकारी शक्तियाँ जैसे कई विशेष अधिकार देता है. इन असाधारण शक्तियों के प्रयोग से प्रायः अशांत इलाकों में सुरक्षा बलों पर फर्जी मुठभेड़ों और अन्य मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगते रहे हैं. जीवन रेड्डी समिति (2004) एवं दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग (2005) ने इसे निरस्त करने की सिफारिश भी की. हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय (नगा पीपुल्स मूवमेंट ऑफ ह्यूमन राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 1998) में AFSPA की संवैधानिकता को बरकरार रखते हुए कुछ बिंदुओं पर सुधार के लिए निर्देशित किया. यह कही ना कही उन अंतर्निहित मुद्दों पर गंभीर विमर्श की आवश्यकता को प्रदर्शित करता है जो सतही तौर पर नहीं दिखते.अफस्पा का अस्तित्व पूर्वोत्तर के राष्ट्र के लिए विघटनकारी विद्रोह पर ही आधारित है. जहाँ विद्रोही पक्ष की हिंसा नैतिकता के सारे प्रतिमान ध्वस्त कर दे वहां सैन्य बलों की दृढ़ कार्यवाही एक सामान्य प्रतिक्रिया बन जाती है और इस दौरान मानवाधिकारों की अवहेलना से इंकार नहीं किया जा सकता. और आत्मरक्षा का अधिकार किसी भी मानव का प्रकृति प्रदत्त सबसे प्रमुख नैसर्गिक अधिकार है. किंतु यह परिस्थिति विशेष पर निर्भर करता है. साथ ही एकपक्षीय भी नहीं होता. संसद में नगा विद्रोह पर हुई बहस के दौरान अगस्त 1956 में लोकसभा में नगा विद्रोह पर हुईं बहस के दौरान पूर्वोत्तर के समाजवादी सांसद रिसांग किसींग जो कि स्वयं थांगकुल नागा समुदाय से आते थे, ने कहा था, “जबसे दोनों पक्षों द्वारा क्रूर तौर-तरीकों का अपनाया जाना शुरू हुआ है तबसे बेदाग रिकॉर्ड का दावा कौन कर सकता है? पहला पत्थर वही फेंक सकता है जिसने कभी भी पाप न किया हो. मैं ये सवाल नागा विद्रोहियों और सरकार दोनों ही से पूछता हूँ.” स्वयं प्रधानमंत्री नेहरू ने सेना की तरफ से की गई कठोर कार्यवाहियों को स्वीकार किया परंतु विद्रोही द्वारा की गई सेना के जवानों की क्रूर हत्याओं की भर्त्सना भी की थी. अतः अधिकार जो गरिमामय मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यकता हैं, सर्वसुलभ होने चाहिए.इससे सम्बंधित एक प्रयास फरवरी, 2019 में हुओं ज़ब उच्चतम न्यायालय ड्यूटी के दौरान भीड़ के हमलों का शिकार होने वाले सुरक्षा बलों के जवानों के मानवाधिकारों के संरक्षण के लिये दायर याचिका पर सुनवाई के लिये सहमत हो गया एवं केन्द्र सरकार, रक्षा मंत्रालय, जम्मू कश्मीर और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को नोटिस जारी किया. यह पहल तब हुई जब दो सैन्य अधिकारियों की पुत्रियों ने इस संबंध में याचिका दायर कर माँग की कि ड्यूटी के दौरान उन्मादी भीड़ के हमलों का शिकार होने वाले सुरक्षा बलों के जवानों के मानवाधिकारों के संरक्षण के लिये एक नीति तैयार की जानी चाहिए. उनका कहना था कि वे जम्मू कश्मीर में सैनिकों और सेना के काफिलों पर उग्र और विघटनकारी भीड़ के हमलों की घटनाओं से काफी विचलित हैं.यह मुद्दा तार्किक एवं विचारणीय है. मानवाधिकार सिर्फ आम जनता के लिए ही क्यों हो? उन सशस्त्र बलों के जवानों के लिए क्यों नहीं जिन्हें बस्तर और दंतेवाड़ा में निर्ममता से मार डाला गया, जिनपर कश्मीर में जानवरों की तरह पत्थर और गोलियां बरसती हैं. उन सैनिकों के लिए क्यों नहीं जो घाटी एवं पूर्वोत्तर में राष्ट्रद्रोहियों के हाथों अपनी जान गवाँ रहे हैं, वे जिनके सीमा पर सिर काटे जा रहे हैं? क्या वर्दी पहने राष्ट्र की सुरक्षा एवं क़ानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी उठाने वाले लोगों की गणना इंसानी बिरादरी के बजाय यांत्रिक वस्तुओं में की जानी चाहिए, जिन्हें गरिमामय मानवीय जीवन हेतु आवश्यक मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा जाना चाहिए. वे जो अपने राष्ट्र की सुरक्षा और अपने परिवारों के भरण-पोषण के लिए जान हथेली पर लिए खड़े सुरक्षा बलों के लिए भी बहुत नहीं परन्तु थोड़े मानवाधिकार होने चाहिए. वैसे भी सेना और अर्द्धसैनिक बलों में सेवा देने वाले समाज के संभ्रांत और उच्च वर्गों के नहीं बल्कि ग्रामीण इलाके के गरीब किसान मजदूरों के बेटे-बेटियां ही होते हैं. जिनके प्रति इतना भावनात्मक लगाव देश रख ही सकता है.पुलिस विभाग को ही लें, जहाँ कर्तव्य भार (ड्यूटी) की कोई निर्धारित समय सीमा नहीं है. एक पुलिसकर्मी से अनवरत 24 घंटे ड्यूटी की अपेक्षा होती है. एक पुलिसकर्मी 15-16 घंटे की ड्यूटी के बाद भी अपने अधिकारी के आदेश की अवहेलना नही कर सकता, क्योंकि इसे अनुशासनहीनता माना जाता है. ऐसी अमानवीयता पूर्ण कर्तव्य पालन (ड्यूटी) के पश्चात् किसी व्यक्ति से मानवीय व्यवहार की उम्मीद कैसे की जा सकती है अर्थात् जो स्वयं अमानवीयता का शिकार हैं उनसे मानवीयता की अपेक्षा मानवाधिकार तो छोड़िये उनके सामान्य अधिकारों का भी देश में सम्मान नहीं हो रहा. पुलिस सुधार की प्रक्रिया सालों से ठंडे बस्ते में है. वही सस्ते की किस्म की लोकप्रियता के लिए एक वर्ग सेना को अपमानित करने तथा उसका मनोबल कमजोर करने में लगा है.आश्चर्यजनक है कि पशु अधिकारों के लिए तख्तीयां लहराता हुआ सड़कों पर आंदोलन करने वाला देश का प्रगतिशील वर्ग शहीद सुरक्षा बलों एवं पुलिसवालों के परिवारों के मानवाधिकारों पर चर्चा तक करने को तैयार नहीं है. आतंकियों-अपराधियों के हाथों शहीद होने वाले सुरक्षा बलों के जवानों की शव-यात्रा में इन मानवाधिकार के मसीहा वर्ग को पहुँच कर उनके लिए भी थोड़ी बहुत तक़रीरें करनी चाहिए. साथ ही वे जो सत्ता में बैठकर राष्ट्रवाद का ज्ञान दे रहें हैं उनके भी बयानबाजी से इतर सुधार का कोई गंभीर संगठित प्रयास नहीं दिखता. साथ ही इन्हें इसकी भी समझ होनी चाहिए कि उत्तेजक राष्ट्रवाद की उद्घोषणा अंततः समस्या ही पैदा करती है. बेहतर होता कि मानवाधिकार पर एक गंभीर नीति का प्रणयन हो ताकि भविष्य में राष्ट्र के राजनैतिक-सामाजिक वातावरण में अशांति का प्रसार रोका जा सके.