वरिष्ठ समाजवादी चिंतक सच्चिदानंद सिन्हा महात्मा गाँधी की नैतिक-आध्यात्मिक विचारधारा पर आधारित अपनी चर्चित किताब ‘निहत्था पैगम्बर’ में लिखते हैं, पैगंबर नये मूल्यों की सूक्ष्म प्रेरणा देते हैं, लेकिन उनके जीवनकाल में जनसाधारण उनके उपदेशों के लिए शायद ही उन्हें गौरवान्वित करता है या उनका अनुसरण करता है. जनसाधारण जब उनकी प्रशंसा करता है तो हमेशा यह प्रशंसा उनके वास्तविक या काल्पनिक असाधारण कार्यों के लिए होती है.’ हालांकि महात्मा गाँधी ऐसे पैगंबर थे जो अपने जीवनकाल में ही गौरवान्वित भी थे और अपने असाधारण कार्यों के लिए जनता में प्रशंसित भी.
20वीं सदी में गाँधी और गाँधीवाद ने भारतीय राजनीतिक-सामाजिक जीवन को जितना प्रभावित किया, उतना संभवतः किसी और विचारक ने नहीं किया. उनका प्रभाव इतना व्यापक रहा कि यदि मतवाद और अनुयायियों की दृष्टि से देखें तो गाँधी की तुलना शामी पंथों के हजरतों से की जा सकती है. गाँधी जी की मृत्यु के पश्चात् गाँधीवाद बाकायदा एक संप्रदाय में बदल गया. भारत क़े लिए महात्मा गाँधी राष्ट्रपिता थे परन्तु गाँधीवादियों के लिए वे पैगंबर सरिखे हो गये.
हालांकि स्वतंत्रता आंदोलन की पूर्णाहुति एवं भारतीय गणतंत्र की शुरुआत क़े साथ बीते सात दशकों में गाँधीवाद अपनी आभा खोने लगा. गाँधी की विरासत निस्तेज होने लगी.आज देश भर में गाँधी संस्थानों की स्थिति बदतर है. गाँधी एवं सर्वोदय साहित्य के पुस्तकालय सुने पड़े है. नई पीढ़ी की स्थिति ऐसी है कि एक तो उनमें गाँधी दर्शन को जानने-पढ़ने की उत्कंठा नहीं बची है. दूसरे जो पढ़ या शोध कर रहें हैं उनकी रूचि डिग्री एवं नौकरी पाने में है, गाँधीवाद को आत्मसात करने में नहीं. ऐसा क्यूँ हैं?
कहावत है, ‘जिसके हाथ में हथोड़ा हो उसे दुनिया की हर समस्या कील नज़र आती है.’ गाँधीजनों के साथ भी ऐसा ही है. उपरोक्त हर सवाल के जवाब में उनका तर्क है कि सब संघ-भाजपा की फासीवादी सरकार के कारण हुआ. चलिए थोड़ी देर के लिए इसे मान लेते हैं. तब भी प्रश्नों की सूची अनुत्तरित ही रह जाती है. क्या मात्र 9 सालों की भाजपा सरकार ने गाँधीवाद को इस तरह पतन की ओर धकेल दिया? क्या संघ क़े कहने पर गांधीवादियों ने संस्थानों में भ्रष्टाचार किया? क्या गाँधीवाद इतना कमजोर है कि दक्षिणपंथ क़े समक्ष खड़ा नहीं हो पा रहा? क्यों भारतीय युवा वर्ग गाँधीवाद से ऊब रहा है? आम लोगों में गाँधीवाद क़े प्रति आकर्षण क्यों कम होता जा रहा?
गांधीवादियों एवं गाँधी संस्थानों की दुर्गति को समझना बहुत कठिन नहीं है. गाँधीवाद की मुख्य समस्या उसकी रूढ़िबद्धता है. गाँधीवादी समाज अपने विचारों में इतना रूढ़ हो चुका है कि वह किसी भी नववाद या समालोचना को सुनने या बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है. स्वतंत्रता क़े बाद गाँधी जी को दैवीय छवि और गाँधीवाद को ऐसा पंथीय रूप प्रदान किया गया जहाँ तर्क की गुंजाईश ख़त्म होती चली गई. जहाँ किसी प्रश्न की इजाजत नहीं रही. किसी बहस को अशिष्टता माना जाने लगा. बस गाँधीवाद की स्तुति एवं गाँधी जी का गुणगान, इन्हीं दोनों गुणों की स्वीकृति एवं आवश्यकता गाँधीवादी होने के लिए स्वीकार्य हैं. यही वो बिंदू है जहाँ 21वीं सदी का युवा समाज गांधीवादियों से विकर्षित हो रहा है. उसे तर्कविहीन मध्ययुगीन मानसिकता स्वीकार नहीं है. जीवन में भटकाव एवं रूढ़िवाद सें बचाव क़े लिए जरूरी है तर्क करने एवं प्रश्न पूछने की उत्कंठा पैदा करना.तार्किकता से रहित समाज बर्बरता एवं मूढ़ता की ओर अग्रसर होता है.
संविधान सें सभा में संयुक्त प्रांत क़े प्रतिनिधि आर. वी. धुलेकर ने कहा था, ‘कुछ लोग कहते हैं इस संविधान में समाजवाद या साम्यवाद के पक्ष में कोई बात नहीं है. मैं कहता हूँ कि कोई भी वाद चाहे वह कितना ही अच्छा क्यों ना हो, कट्टरता पैदा करता है.’ इस परिपेक्ष्य में देखें तो गाँधी जी ने सम्पूर्ण जीवन विचार एवं व्यवहार में बड़ा लचीला रुख बनाये रखा. किंतु उनके बाद उनके अनुयायियों का समूह एक रूढ़िवादी मत में बदल गया. गाँधी जी का व्यक्तित्व चाहे जितना सरल-सहज रहा हो, किंतु गांधीवादियों का रुख शामीपंथीयों सरिखा रहा. गाँधीवादियों के चाल-चरित्र देखकर सहज़ ही समझ आता है कि उनकी शामीपंथियों के साथ इतनी निकटता क्यों है? क्योंकि उन्हें भी अपने पंथीय सिद्धांतों एवं पैगम्बरों पर कोई प्रश्नवाचक भाव पसंद नहीं है. अंतर सिर्फ इतना था कि इन्होंने शरीर पर बम बांधकर लोगों को नहीं उड़ाया. लोगों के गले नहीं काटे. अदालतें लगाकर ईशनिंदा के आरोप में सड़कों पर पत्थरों से नहीं मारा, लेकिन चरित्र हनन, मानसिक प्रताड़ना, अपमानित-बहिष्कृत करना, अपने वैचारिक आधिपत्य वाले सरकारी एवं निजी संस्थानों में नियुक्ति से रोकने जैसे तमाम दूसरे तरीकों का प्रयोग किया
वैसे जिस प्रकार मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा ‘इस्लाम खतरे में हैं’ की तकरीर द्वारा उन्माद पैदा किया जाता है. उसी प्रकार पिछले एक दशक से संघ, गोडसे-सावरकरवाद क़े विरुद्ध गाँधीवाद की रक्षा का नारा जोरशोर से लग रहा है.लेकिन इसकी मुख्य वजह संघी विचारधारा का प्रसार नहीं बल्कि गाँधी क़े इन स्वयंभू उत्तराधिकारियों एवं तथाकथित चेलों क़े मन में अपने पैगम्बर की वैचारिक हत्या का अपराधबोध है. इन नारों द्वारा ये उस अपराधबोध से उभरने का प्रयास कर रहें है जो इन्हें अंदर से दुत्कार रहा है.
दूसरी, लोकतंत्र में कोई वाद तभी तक प्रभावी होता है ज़ब तक वह जनचेतना से जुड़ा हो. यहाँ गाँधीवादियों ने अपने को खोल में समेट लिया. 1947 से वर्तमान तक यदि आपातकाल क़े छोटे से कालखंड को छोड़ दिया तो गाँधीजन किसी भी सामाजिक या राजनीतिक विषय पर किसी सार्थक आंदोलन से नहीं जुड़े. और आपातकाल का संघर्ष भी मुख्यतः जनसंघियों एवं समाजवादियों ने किया. वाद एवं विचारधाराएं, चाहे धार्मिक हो या राजनीतिक-सामाजिक, सर्वकालिक नहीं होतीं. वे तभी जीवित एवं पल्लवित होतीं हैं जब वे समाज के लिए उपयोगी हों.
तीसरा, स्वतंत्रता क़े पश्चात् राजनीतिक रूप से इनका झुकाव दिनोदिन वामपंथ की ओर होता चला गया, जहाँ दक्षिणपंथ क़े विरोध में सनातन समाज विरोधी धारा से एकाकार हो गये. वो गाँधी जो जीवन भर सनातन धर्म-संस्कारों यहाँ तक कि वर्ण व्यवस्था का सम्मान करते रहे, उनके चेलों ने उसका अपमान करने में यूरोपियों से भी अधिक व्यग्र है. जो सनातन धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति इस देश की प्राणतत्व है, उससे घृणा करने में इन्होंने शामीपंथियों को भी पीछे छोड़ दिया है. जिन गाँधी के जीवन में गीता महत्वपूर्ण थीं, जो जीवनभर गीता क़े उद्धरण क़े उद्घोषक रहे, उन्हीं क़े चेले आज गीता की प्रकाशक और प्रसारक गीताप्रेस को गाँधी शांति पुरस्कार मिलने पर आपत्ति जता रहें हैं. पश्चिम से प्रारम्भ होकर भारत समेत एशिया में व्याप्त ‘एक्स-मुस्लिम’ आंदोलन क़े नेताओं का कहना है कि दिक्क़त आम मुसलमान में नहीं बल्कि इस्लाम क़े मूलभूत सिद्धांतों में हैं. यहाँ परिस्थितियां विपरीत हैं. समस्या गाँधीवाद में नहीं गाँधीवादियों में है.अपनी मानसिकता में ये इतने दयनीय हो चुके है इन्होंने संघ-भाजपा-दक्षिणपंथ के विरोध के मार्ग में राष्ट्रविरोध का मार्ग पकड़ लिया है.नैतिकता-आध्यात्म की बड़ी-बड़ी बातें एवं सनातन समाज-संस्कृति क़े कमियों पर गहन विवेचना को आतुर रहने वाले इन गांधीवादियों जैसे ही आप मुस्लिम कट्टरपंथ, ईसाई षड़यंत्र पर बात कीजिये ये तुरंत भाग खड़े होंगे या आपको संघी और फासीवादी कहना शुरू कर देंगे. अगर सच में चीज़े फासिवाद के रास्ते ही समझनी हैं तो असली फासीवादी आजकल गाँधीवाद की खाल ओढ़ कर बैठे हैं. वर्तमान की वैश्विक स्तर की प्रबल राष्ट्रवादी धारा में देश का बहुसंख्यक समाज इस वैचारिक धूर्तता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है.
चौथा, गांधीवादियों ने जिस तरह आर्थिक अनियमितताओं को बढ़ावा दिया उससे समाज में गलत संदेश गया तथा गाँधीवाद क़े प्रति सम्मान में गिरावट आयी है. सर्वविदित है कि नैतिकता के आवरण में गाँधी संस्थानों की लूट खसोट में सबसे अधिक सक्रियता तथाकथित गाँधीवादियों की ही रही है.अदम गोंडवी ने कभी लिखा था,
‘इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का उधर लाखों में गाँधी जी क़े चेलों की कमाई है.’
आज पूरे देश के गाँधी संस्थानों में समानांतर कमेटीयां बनी हैं. सैकड़ों मुक़दमे लंबित हैं और निरंतर दर्ज भी हो रहे हैं. कभी पद की लड़ाई है तो कही फंड और जमीनों क़े बटवारे का विवाद. एक उदाहरण देखिये, 1954 में भूदान आंदोलन में सिर्फ बिहार सरकार को 6 लाख 48 हजार 553 एकड़ जमीन दान में मिली, किंतु आज 70 सालों बाद भी राज्य सरकार 3.2 लाख एकड़ जमीन नहीं ढूंढ पाई और उसमें 89 हजार 830 एकड़ जमीन आज तक भूमिहीन गरीबों में नहीं बाँटी जा सकी. यह स्थिति पूरे देश में है. इन जमीनों को बाद में सत्ता संरक्षण में व्यावसायिक घरानों को आवंटित किया गया जिसमें गाँधीवादियों ने बड़ी भूमिका निभाई. यूपी भूदान यज्ञ समिति, यूपी बनाम ब्रज किशोर एवं अन्य, 1988, जगन्नाथ एवं अन्य बनाम अपर. आयुक्त, इलाहाबाद एवं अन्य, 2004, इंडियन परफॉर्मिंग राइट्स सोसाइटी लिमिटेड बनाम संजय दलिया और अन्य,2014 जैसे न्यायपालिका क़े कई निर्णय ऐसे विवादों से सम्बंधित रहें हैं.
संविधान सें सभा में उड़ीसा क़े प्रतिनिधि नंदकिशोर दास ने कहा था, ‘हम सब राष्ट्रपिता का नाम लेते हैं, किंतु हममें कितनों ने अपने दैनिक जीवन में उनके उपदेशों को अपनाया है?’ इस देश ने गाँधी का सम्मान मात्र उनके विचारों की वज़ह से नहीं किया बल्कि इस आस्था क़े पीछे गाँधी जी की व्यक्तिगत छवि भी थीं. जिस गाँधी ने अपना पूरा जीवन लंगोट में काट दिया, आज उनके तथाकथित चेलों क़े पास महंगी लग्जरी गाड़ियां हैं, दिल्ली से लेकर गोवा तक भौतिक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण बँगले हैं. विदेशों में छुट्टियां मनाने की सुविधा उपलब्ध है. शराब और शबाब में पूर्ण आसक्ति है. असल में ‘निहत्थे पैगम्बर’ की आत्मा को रौंदता यही नवगाँधीवाद है.
वास्तव में गाँधी की हत्या तब नहीं हुई थीं ज़ब दुराग्रह एवं विकृत मानसिकता से उन्हें गोली मारी गई. बल्कि उनकी हत्या एवं क्रमिक प्रक्रिया है जो तब प्रारम्भ हुई ज़ब उनके चेलों ने उन्हें अपमानित किया, उनकी विचारधारा को धोखा दिया. उनकी हत्या रोज हो रही है ज़ब उनकी विरासत की लूट-खसोट में उनके चेले लिप्त रहते हैं. गाँधी क़े नाम पर इस राष्ट्र को ठगते है.गाँधी क़े असलीं हत्यारे तो उनके अवसरवादी अनुयायियों और गाँधीवाद की खाल में छिपे राष्ट्रविरोधी वे बौद्धिक भेड़ियें थे और हैं जिन्होंने शास्त्रीय नारों की आड़ में इस देश में विघटनकारी शक्तियों को अवलंबन दिया.ये सभी गाँधी की हत्या में बराबर के सहभागी हैं और उस अपराध बोध से ग्रसित यह वर्ग आज दक्षिणपंथियों पर दोषारोपण में लगा है.उसी अनुरूप ये गाँधी को प्रतीकों को अपनाकर अपनी आत्माश्लाघा प्रकट करते हैं तथा संघ-भाजपा को गालियां देकर अपनी आत्मग्लानि मिटाना चाहते हैं.
मुद्दे और भी हैं जिन्हें समीक्षा की जरुरत है. किंतु उसके लिए गांधीवादियों को अपनी एकांगी मानसिक अवस्था से बाहर आने की जरुरत है. ये टूटे भवन पुनः खड़े हो जाएंगे. मृत पड़ी समितियां फिर सक्रिय हो सकती हैं. गाँधीवाद की सूखती धारा फिर जागृत हो जाएगी. लेकिन मूल प्रश्न नैतिक अवसान का है. स्वतंत्रता आंदोलन क़े मूल्यों क़े नई पीढ़ियों को सिखाने की तारतम्यता टूटी है उसका जवाबदेही तो तय करनी ही पड़ेगी.आज जो गाँधीजन जमात भावी पीढ़ी को गाँधीवाद की विरासत सौंपने क़े प्रयत्न का दावा कर रही है, उसे अभी कई सवालों क़े जवाब खोजने हैं. अभी उसे आत्मसाक्षात्कार एवं आत्ममूल्यांकन की महती आवश्यकता है. शायद तब उन्हें ‘निहत्थे पैगम्बर’ की हत्या क़े प्रायश्चित का कोई मार्ग सूझे.