तीसरा मोर्चा के प्रयास के मायने हैं कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी तीसरी बार भी प्रधानमंत्री चुन लिए जाएंगे। निश्चित तौर पर, यकीनन। यह ध्रुव सत्य है, अटल कथन भी। अब बंगालन शेरनी और सैफाई के यदुवंशी योद्धा को नए बनते बिगड़ते सियासी समीकारणों को सम्यक तौर पर समझना होगा। गैर-भाजपायी मोर्चा और सत्तासीन पार्टी के मुक़ाबले के बजाय यदि सोनिया-कांग्रेस गांधारी-टाइप मोहमाया के कारण राहुल गांधी को पितावाले राज सिंहासन पर आसीन देखना चाहती हैं तो मुंगेरीलाल टाइप सपना हो जाएगा। मोदी की विजय के सूत्रधार राहुल गांधी की बड़ी योग्यता से बन जाएंगे। मोदी बनाम राहुल वाले युद्ध में भाजपा को वाकओवर मिल जाएगा। संग्राम दो असमान लड़वैयाओं के दरम्यान होगा। परिणाम की प्रतीक्षा करने की नौबत ही नहीं आएगी।
समस्त प्रतिपक्ष एकजुट हो गया था गत वर्ष राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन के वक्त। नतीजा सामने है। अर्थात अठारहवीं लोकसभा के अगले साल होने वाला निर्वाचन घुड़दौड़ है जिसमें टट्टू और खच्चर नहीं शामिल हो सकते। रेस भी उग्र और कठिन है। कभी नेहरू-इंदिरा को हराना जटिल और दुष्कर था। आज नरेंद्र मोदी पर्वताकार हो गए हैं। पराजित हो जाना संभव नहीं है। तो अपरिहार्यता है कि गठबंधन नहीं महागठबंधन करना होगा। इससे गैर-भाजपाई दलों को जोड़-घटाना मिलकर कुल योग में मोदी के कंधों कि उचाई तक तो पहुंच ही जाएगा। लाभ यही होगा कि तब मजबूत, संपूर्ण प्रतिपक्ष होगा। आज की भांति लंगड़ा, अधूरा विपक्ष तो नहीं। तब आम सहमति से तय हो सकता है कि नेता विपक्ष कौन होगा ?
राजनीतिक गणित पर गौर करें तो साफ झलकता है कि यह बीजकेंद्र का अभाव है। कभी सरदार हरकिशन सिंह सुरजीत होते थे। सभी घटकों को समेट लिया था। पूर्व में लोकनायक जयप्रकाश नारायण थे। अब कोई ऐसा नहीं है। कारण यही कि इस सत्ता के उद्यान मे हर शाख पर लोग बैठे हैं कि प्रधानमंत्री बन जायें। इसकी नजीर भी है। एचडी देवगौड़ा और इंदर गुजराल बिना समर्थक-सांसदों की संख्या के प्रधानमंत्री बन बैठे थे। ज्योति बसु की पार्टी ने लंगड़ी लगा दी थी वर्ना वही प्रथम पसंद थे। आज विपक्षी दलों और घटकों में ऐसा सामंजस्य है ही नहीं। उससे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि तब की पर्याप्त संख्या बल के अभाव में सोनिया-कांग्रेस दावा ठोकने में सक्षम नहीं थी। आज भाजपा अपार बहुमत जीतकर दौड़ में भी काफी आगे चल रही है। अर्थात बौने एक दूसरे के कंधे पर सवार होकर भी मोदी के समकक्ष नहीं हो सकते।
फिर बुनियादी मसला यही है कि अन्य दल बत्तीस में से केवल तीन प्रदेशों तक सीमित हैं। कांग्रेस पार्टी का लोकसभा में वर्चस्व कितना हो सकता है ? फिर विंध्य के दक्षिण वाले दल आत्मगौरव से बंधे हैं। कांग्रेस से बेहतर चुनावी स्थिति में हैं। उदाहरणार्थ तमिलनाडु के समस्त द्रविड़ दल देख लें। एमके स्तालिन क्यों राहुल को अपना नेता मानें ? हां अलबत्ता ममता को स्वीकार कर सकते हैं। तो अखिलेश यादव भी स्वीकार्य होंगे। कांग्रेस के घोर विरोधी दलों में आम आदमी पार्टी, तेलंगाना की भारतीय राष्ट्रीय पार्टी, नीतीश कुमार का जनता दल (यूनाइटेड), आंध्र की वाईएसआर कांग्रेस, विभाजित शिवसेना, ओडिसा का बीजू जनता दल, अकाली दल, अन्नाद्रमुक आदि तो राहुल गांधी के भारत जोड़ो यात्रा से दूर दूर ही रहे। भले ही उन सब में ममता बनर्जी के प्रति तनिक आकर्षण तो रहा ही है। फिलहाल राजनीति सदैव संभावनाओं का खेल रहा है। समीकरणों की ज्यामिति भी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हौव्वा दिखाकर कांग्रेस अन्य दलों के मुस्लिम वोटरों पर दबाव बनाए रखती थी। अब वह भी संभव नहीं है क्योंकि संघ के लचीलेपन का अनुमानित असर अन्य दलों पर काफी पड़ा है। प्रणव मुखर्जी का नागपुर में संघ की सभा में शामिल होना इसका प्रमाण है। फिर तेलंगाना और पश्चिम बंगाल छोड़कर अन्य राज्य में मुस्लिम वोटों पर आधारित नहीं है।
मगर दो खास मुद्दे हैं जिन पर ममता बनर्जी तथा अखिलेश यादव एक सशक्त और प्रभावी मोर्चा की नींव डाल सकते हैं। पहला है प्रत्येक राज्य की आंचलिक पार्टी का वर्चस्व कमजोर करने की भाजपाई वाली कोशिश। अर्थात संघीय ढांचे को सुरक्षित रखने की अन्य क्षेत्रीय दलों की मुहिम।
इसमें अग्रसर रहेंगी दक्षिण की पार्टियां। इसमें तेलगु देशम पार्टी सिरमौर रहेंगी। उसके संस्थापक एनटी रामा राव काफी ऊंचाई तक जा पहुंचे थे। पार्टी टूट गई दामाद-ससुर के कलह के कारण। वर्ना बजाय पीवी नरसिम्हा राव की एनटी रामा राव आंध्र से पहले प्रधान मंत्री बन जाते। खास वजह यहां यह भी है कि नए दौर में अब कोई भी दल किसी बलशाली प्रधानमंत्री को नहीं पसंद करेगी। गुजराल और देवगौड़ा कमजोर जड़ के नेता थे। अपने राज्य के ही विवादित रहे। जड़हीन रहें। नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, शरद पवार आदि दौड़ में शामिल हो सकते हैं पर जोड़ तोड़ के आधार पर ही कुछ पा सकेंगे, जो बहुत कठिन है।
कांग्रेस का पुराना नारा कि “सेक्युलरवाद बचाओ” अब बेसुरा हो गया है। सभी दल कभी न कभी भाजपा से मेलजोल कर चुके हैं। हमाम में सभी डुबकी लगा चुके हैं। परिणामत : समाजवादी पार्टी तथा तृणमूल कांग्रेस भी अब गंगाजमुनी नारे से सत्ता की डगर नहीं पकड़ पाएंगी। फिर नरेंद्र मोदी कोई पितामह भीष्म तो हैं नहीं (दाढ़ी के सिवाय) जो खुद को मारने का उपाय विरोधियों को बता दें ताकि वे लोग शिखंडी खोज लें।
मान भी ले यदि सभी राजनीतिक पार्टियां एकजुट होकर 1977-वाली कांग्रेस- विरोधी जनता पार्टी टाइप मोर्चा गठित कर लें तो सवाल वही होगा की मूलभूत आंतरिक विसंगतियों तथा विरोधाभास के फलस्वरुप एकता में दरार पड़ने में देर नहीं होगी। घृणा का फेवीकोल फिर फीका पड़ जाएगा। मोरारजी देसाई वाली सरकार का नमूना अधिक पुराना नहीं है। इन सारे तर्कों, तथ्यों, परिस्थितियों जोड़-घटाने का सारांश यही है कि भाजपा का मजबूत विकल्प बनने का मुहूर्त अभी सर्जा नहीं है। हो सकता है उन्नीसवीं लोकसभा के चुनाव तक कोई सामंजस्य उपजे।
इसी बीच एक आशंका और है कि चीन और पाकिस्तान सीमा पर ऐसी दुरूह हालत पैदा कर रहें हैं जिनका गहरा प्रभाव लोकसभा चुनाव पर पड़े। जैसे पुलवामा में पाकिस्तानी आतंकियों ने कर दिखाया था। मोदी को अपार लाभ हुआ। इस बार भी कहीं ऐसी ही दोबारा ना हो जाए। तब चुनाव का अंकगणित ही पलट जाए।
[उपरोक्त लेखक के निजी विचार हैं]