ये वास्तविक वंचित-शोषितों के प्रति अन्याय है!

शिवेंद्र सिंहपिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने अपने महत्त्वपूर्ण निर्णय में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के 22.5 फीसदी आरक्षण (SC 15% एवं ST 7.5%) में उप-वर्गीकरण का समर्थन करते हुए यह सिफारिश भी की कि इसमें क्रीमीलेयर का प्रावधान होना चाहिए. न्यायपालिका का ये मानना है कि SC/ST वर्ग में सभी जातियों की स्थिति समान नहीं है. कुछ जातियाँ बाकियों से ज्यादा पिछड़ी है.
न्यायपालिका के पास अपने निर्णयन के पक्ष में पुख्ता प्रमाण उपलब्ध थे. न्यायमूर्ति बी.आर.गवई ने जस्टिस उषा मेहरा की रिपोर्ट के आधार पर कहा कि आंध्र प्रदेश में 60 अनुसूचित जातियों में से केवल 4 या 5 को ही आरक्षण का लाभ मिल रहा है. वही मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इस निर्णय के समर्थन में कुछ अन्य तथ्य दिये, जैसे कि गुजरात में कुछ अनुसूचित जातियां आपस में छुआछूत का व्यवहार करती हैं और कई जनजातियों को दलितों के मंदिरों में प्रवेश की मनाही है. आंध्र प्रदेश की बुनाई का काम करने वाली माला जाति और चमड़े का काम करने वाली मढिगा जाति की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में बड़ा फर्क है. कुछ अनुसूचित जातियां जैसे गरोड़ा की स्थिति दलितों में पुजारी जैसी है और उनका सामाजिक-राजनीतिक स्तर अन्य अनुसूचित जातियों की अपेक्षा उच्च माना जाता है.
इसके बाद उक्त फैसले का तीव्र विरोध हुआ. इतना तीव्र कि केन्द्र सरकार से इसके विरोध में अध्यादेश लाने की मांग होने लगी. बल्कि 100 दलित सांसदों (जो खुद मलाईभोगी एलीट हैं) के प्रधानमंत्री से मुलाक़ात के पश्चात् सरकार ने क्रीमीलेयर लागू करने की किसी भी योजना से इंकार कर दिया.
न्यायालय के उक्त फैसले के आलोचकों का तर्क था कि इससे बहुजन समाज और बहुजन आंदोलन में राजनीतिक-सामाजिक फूट पैदा होगी.लेकिन ये अजीब बात है कि कोई भी इससे उपजने वाले आर्थिक समता और सामाजिक-राजनीतिक प्रतिनिधित्व के उचित वितरण कि बात क्यों नहीं कर रहा है? एक वर्ग इसके विरुद्ध सड़क पर आने पर उतारू था. लेकिन समझने की जरुरत है कि सड़कों पर तो वे थे जिनके पेट भरे थे और कुछ वो जिन्हें पता ही नहीं था कि वे जिस समूह के नेतृत्व में विरोध में शामिल हैं, वही उनके अधिकारों को लूट रहे हैं. लेकिन वो जिनका भविष्य दांव पर लगा है, उन्हें इसकी समझ है और ना ही कोई सरकार या दल उनको सुनने में रूचि रखती है, अन्यथा सुप्रीम कोर्ट के एक उचित निर्णय का ऐसा राजनीतिक विरोध नहीं होता.
 वास्तविकता में जाति की संरचना ही केवल भारतीय समाज में जटिल नहीं है, बल्कि वैसी ही जटिलता जातीय लाभ के स्वार्थ की भी है. लेकिन इस विवाद के बाद और कुछ हो ना हो SC/ST वर्ग की जाति जनगणना तो अब होनी ही चाहिए और उसके साथ सबसे जरुरी है, आरक्षण के पिछले सत्तर सालों के लाभ प्राप्त जातियों की स्थिति की पूर्ण सूचना इकठ्ठी कर सार्वजनिक रूप से प्रकाशित हो. क्योंकि अब मूल प्रश्न ये है कि कही देश का राष्ट्रीय समाज उन्हें पहचानने में भूल तो नहीं कर रहा जो SC/ST जातीय समूह के भीतर आरक्षण के उपवर्गीकरण एवं क्रीमी लेयर लागू करने के विरोध के नाम पर अपना पारिवारिक हित साध रहे हैं.
असल में SC/ST आरक्षण में उपवर्गीकरण को लेकर उपजे विवाद के दो भिन्न पहलू हैं. पहला यह कि पिछले 70 सालों से इसका लाभ मूलतः दलित वनवासी वर्ग में जाटव, मीणा जैसी कुछेक के बीच ही सिमटा रहा है. आसान शब्दों में कहें तो आरक्षण के संघर्ष की मलाई पर काबिज होकर उक्त कुछ चिन्हित जातियों ने केवल अपना विकास साधा और अपने हमराह दूसरी अन्य जातियों के हिस्से में सेंधमारी की. दूसरे, इस वर्ग के आरक्षण में क्रीमीलेयर का मानक निर्धारित ना होने से SC/ST वर्ग में एक एलीट क्लास निर्मित होता चला गया जिसने अपनी स्वजातीय समाज के विरुद्ध ही एक सामंती व्यवस्था स्थापित कर ली. इन्होंने पिछले तीन-चार पीढ़ियों से आरक्षण का लाभ लिया है और अब चाहते हैं कि ये संवैधानिक लूट उनके परिवार का विशेषाधिकार बना रहे, तथा उनके सजातीय और समान वर्गीय लोग उसी गरीबी-वंचना के नरक में जीने को अभिशप्त रहें.
इस तर्क की कसौटी पर विवाद को समझें तो जिस तथाकथित ब्राह्मणवाद, सवर्णों की जन्मना श्रेष्ठता, जातिवादी प्रधानता को आप पिछले एक सदी से कोसते आये थे, दरअसल वो तो केवल ख़ुद को उस स्थिति तक ले जाने का ध्येय और इसके नाम पर समानता की लड़ाई के नारे और बहुजन एकता का स्वांग भर रचा गया था. सवाल ये है कि यदि संघर्ष साझा रहा है तो अधिकारों में हिस्सेदारी क्यों नहीं होनी चाहिए? यदि वंचना की तकलीफ एक सी रही है तो वर्तमान समता के युग में साझेदारी क्यों नहीं हो? यदि छुआछूत के दर्द का बँटवारा हुआ है तो उपलब्धियों में आपसी भागीदारी क्यों नहीं होनी चाहिए?
अब तक सवर्ण अत्याचारों की कुछ सत्य, कुछ अर्धसत्य, कुछ दुष्प्रचारित, कुछ कल्पित कहानियों तथा षड़यंत्र रूप से नकारात्मक व्याख्यायित ब्राह्मणवाद पर गर्जन-तर्जन करने वाले दलित हितैषी राजनीतिज्ञ एवं बुद्धिजीवी वर्ग को इस मुद्दे पर बोलना ही होगा कि आखिर दलितों का एक वर्ग स्वयं अपने ही हमजाति हमवर्ग के लिए अपृश्य क्यों है? ऐसा क्यों है कि आज दलित वर्ग में एक ऐसा ‘एलीट’ वर्ग पैदा हो गया है जो स्वयं आलोचित ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रसित है और जो अपने समाज ही नहीं बल्कि अपनी जाति के गरीब-वंचित तबके से रोटी-बेटी के सम्बन्ध से ही दूर नहीं है वरन् उसके साथ अछूत जैसा व्यवहार रखता है, जिसके लिए उसकी जाति, उसका वर्ग केवल वोट बैंक एवं अंधसमर्थक से अधिक कुछ नहीं है, जिसका उपयोग वह अपनी सुविधानुसार कर सके. अतः आधुनिक परिस्थितियों के मूल्यांकन से प्रतीत होता है कि सवर्ण ब्राह्मणवाद से कही अधिक घातक दलित ब्राह्मणवाद है जिसने अपने ही संघर्षशील लोगों की पीठ में छुरा भोंका, उनका आर्थिक-राजनीतिक और भावनात्मक शोषण किया तथा अभी भी इसे जारी रखने पर आमादा है.
 असल में वर्तमान बहुजन राजनीति के नेताओं की स्थिति 80-90 के दशक के बिहार और यूपी के कॉम्युनिस्ट नेताओं सरिखी हो गईं है जो कि स्वयं पूँजीपति और जमींदार वर्ग से आते थे. तब वे नारे लगाते, ‘धन और धरती बंटकर रहेगा’, और पीछे जनता दुहराती, ‘बंटकर रहेगा-बंटकर रहेगा.’ लेकिन भीड़ के गुजरते ही उनका असली नारा होता था, ‘धन और धरती बंट कर रहेगा, अपना वाला छोड़कर.’ यानि समता के लिए आंदोलन एवं त्याग करवाना है लेकिन दूसरों से, समाज से, ख़ुद कुछ ना करना पड़े.
 विडंबना यह है कि आज सत्ता हो या विपक्ष, हर कोई संपत्ति और अधिकार में समता की बात कर रहा है लेकिन कोई भी प्रत्यक्ष रूप से आरक्षण के इन वास्तविक अधिकारियों के पक्ष में खड़े होने का साहस नहीं दिखा पा रहा है. हालांकि एम. के स्टालिन, चंद्रबाबू नायडू समेत सत्तारूढ़ भाजपा के डॉ. किरोड़ीलाल मीणा जैसे कुछ नेताओं ने इसका समर्थन किया है लेकिन दलित नेताओं में से यदि SC/ST आरक्षण में किसी ने सबसे मजबूत आवाज उठाई तो वे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी थे.
 जबकि उम्मीद के अनुरूप बसपा ने SC/ST आरक्षण में उपवर्गीकरण के समर्थकों को पार्टी छोड़ने को कहा है तो दलितों की नई मसीहा आजाद समाज पार्टी और भीम आर्मी, उन्हें सड़कों पर पीटने पर उतारू है. पिछले दिनों गाजियाबाद में वाल्मीकि समाज के लोगों के ऐसे ही एक प्रदर्शन के दौरान उनके कार्यकर्त्ताओं को भीम आर्मी के लोगों ने पीटकर बुरी तरह जख़्मी कर दिया. वास्तविकता में दलित समाज में आरक्षण की न्यायिक हिस्सेदारी को लेकर अंतर्विरोध विरोध सुलग रहा है. अब स्थिति ये है कि बहुजन समाज के ही लोग नीले झंडे में बहुजन आंदोलन की शवयात्रा निकाल रहे हैं.
हालांकि ये आश्चर्यजनक नहीं था कि बसपा सुप्रीमो मायावती की भांति वंचित बहुजन अघाड़ी के अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर ने भी इस फैसले का विरोध किया. वैसे भी सर्वविदित है कि डॉ. आंबेडकर के संघर्ष पर महार जाति ने अधिकारिता स्थापित कर ली एवं कांशीराम बहुजन मूवमेंट पर जाटवों को प्रधानता देने के पक्षधर थे.
असल में 20 वीं सदी के शुरुआत का दलित उत्थान संघर्ष या 80-90 के दशक का बहुजन मूवमेंट हमेशा से कुछ विशेष जातियों के निजी हित एवं वर्चस्व का आंदोलन रहा था. यहाँ बाकी दलित जातियों की भूमिका तो केवल दरी बिछाने और चप्पल उठाने तक सीमित रह गईं. एक समय बहुजन मूवमेंट ने दलितों को कांग्रेस के बंधक मतदाताओं की स्थिति से आजाद कराने का दावा किया था लेकिन वास्तविकता में तो केवल उनके मतों का मालिकाना हक बदला, पहले कांग्रेस, फिर बसपा, स्थिति अपरिवर्तित ही रही यानि वे पहले भी बंधक थे और आज भी हैं.
 यथार्थ में एक सफल नेतृत्व के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गुण है, अपने आंदोलन और संगठन के सभी घटकों, चाहे वह जाति हो या वर्ग, के प्रति सहानुभूति एवं आत्मीयता ला भाव रखना चाहिए. किसी नेतृत्व के एक आवाज पर उमड़ने वाले जन-सैलाब के मूल में यही केन्द्रीय प्रेरक तत्व होता है. जिनमें मानवीयता, पूर्वाग्रहरहित दृष्टिकोण की उन्नत भावना मौजूद होती है वही राजनीति के रण में स्थायी सिद्ध होते हैं और इससे हीन नेतृत्व जल्दी ही अपनी अधोगति को प्राप्त होता है. यही स्थिति अब बहुजन आंदोलन और उसके स्वयंभू मसीहाओं की है.
वर्तमान में बहुजन आंदोलन की सबसे   उत्तराधिकारी बसपा और नये स्वयंभू भीम आर्मी- आजाद समाज पार्टी के नेतृत्व का रुख जिस तरह SC/ST आरक्षण में उप-वर्गीकरण एवं क्रीमी लेयर लागू करने के प्रति नकारात्मक है वह ना सिर्फ वंचितों के प्रति अन्यायपूर्ण एवं उनके हकों में सेंधमारी है बल्कि उनके संवैधानिक अधिकारों को लूट रहे जाति-वर्ग के पापकर्म में सहयोग तथा समर्थन देकर स्वयं अन्याय-दमन कर्म के प्रतिभागी बन रहे हैं.यदि आगे भी बहुजन नेताओं का रुख यही बना रहा तो जल्दी ही देश इस क्रांतिकारी आंदोलन की संकीर्णता एक खोखलेपन के साथ ही इसका अवसान भी देखेगा.

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