गांधीजी के राजनीतिक उत्तराधिकार पर अनेक दावेदारियां रही हैं। इस प्रश्न पर हमेशा बहस होती रही है। वह आज भी है। इस पर विवाद बना हुआ है कि कौन वास्तव में गांधीजी की राजनीति को समझ सका और उसे साकार करने के लिए आजीवन सक्रिय रहा। ऐसा जो होगा वही सही मायने में गांधीजी का राजनीतिक उत्तराधिकारी समझा जाएगा। अगर आज यह प्रश्न हो, तो उत्तर बहुत सीधा और सरल है। हर कोई मानेगा कि वह लोकनायक जयप्रकाश नारायण ही हैं। इसलिए यह याद दिलाना जरूरी है कि 11 अक्टूबर लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन है। वे इस 11 अक्टूबर को 122 साल पूरे कर रहे होते। उन्हें उनके साथी और समर्थक जेपी कहते थे। इसी नाम से वे विख्यात थे। जेपी का देहांत 1979 में 8 अक्टूबर को हुआ था।
जेपी के जीवनकाल में भी उनका जन्मदिन मनाया जाता था क्योंकि वे सामाजिक परिवर्तन के प्रेरक पुरुष थे। उनके निधन के बाद तो जगह-जगह उनकी स्मृति में कम से कम दो आयोजन होते ही हैं। पहला उनके जन्मदिन पर और दूसरा उस दिन जिस दिन उन्होंने बिहार आंदोलन के एक निर्णायक मोड़ पर संपूर्ण क्रांति का नारा दिया था। वह 5 जून है। जेपी के जन्मदिन को किस रुप में मनाए, यह इस पर निर्भर करता है कि आयोजक कौन है और जेपी के बारे में उसकी समझ तथा प्रतिबद्धता कितनी है। इसी आधार पर जेपी के जन्मदिन पर हुए इस वर्ष के तीन आयोजनों को देखना-समझना चाहिए। पहला आयोजन जेपी के जन्मस्थान का है। दूसरे का संबंध लखनऊ से है तो तीसरे का संबंध भारत की राजधानी दिल्ली के भव्य आयोजन से है।
इन तीन आयोजनों में सिर्फ एक अखबार की सुर्खियों में है। दिल्ली के एक अखबार ‘नवभारत टाइम्स’ ने शीर्षक दिया है, ‘जेपी की जयंती पर जंग, अखिलेश के घर के बाहर लगे बैरिकेड्स।’ सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव वहां जाना चाहते थे, जहां उन्होंने जयप्रकाश नारायण अंतरराष्ट्रीय केंद्र आधा-अधूरा बनवाया था। वह सालों से बंद पड़ा है। इसकी जिम्मेदारी उन्हीं की है क्योंकि उनके मुख्यमंत्री रहते काम शुरू हुआ लेकिन पूरा नहीं हुआ। वहां जेपी की मूर्ति है और उस पर माल्यार्पण का अभिनय करना अखिलेश यादव अपनी राजनीतिक जमीन के लिए जरूरी समझते हैं। उन्हें राज्य सरकार ने रोका। लिहाजा खबर बनी। जेपी के जन्मदिन पर मीडिया को मसालेदार खबर मिल गयी। यह बात दूसरी है कि इस खबर में कोई तत्व नहीं है।
वह घटना आई-गई हो जाएगी। लेकिन यह प्रश्न बना रहेगा कि क्या सचमुच अखिलेश यादव जेपी की राजनीति को जानते भी हैं! विडंबना देखिए कि उत्तर प्रदेश के सुदूर एक गांव में जेपी का जन्मदिन वहां के लोगों ने गांव-गांव से आकर मनाया, पर उसके बारे में मीडिया में कोई खबर नहीं है। संभव है कि बलिया में कुछ खबर छपी हो और चैनलों ने चलाया भी हो। पूर्व सांसद वीरेंद्र सिंह ने मुझे फोन पर समारोह की सफलता और सहभागिता के बारे में बताया। वह सुदूर गांव ‘लाला का टोला’ है। बिहार वहीं से शुरू होता है। बलिया की सीमा पर बना यह गांव घाघरा और गंगा के मुहाने पर है। इस बार बाढ़ आई थी और गांव में जहां जेपी का राष्ट्रीय स्मारक बना है वहां पानी भरा हुआ था। लोगों ने सामुदायिक प्रयासों से उसे साफ-सुथरा बनाया, जिससे जेपी का जन्मदिन संपन्न हो सके।
इसी तरह दिल्ली का आयोजन भी एक यादगार बना रहेगा। फिरोज शाह कोटला मैदान में वर्षों पहले जेपी की आदमकद प्रतिमा लगाई गई थी। यह मैदान सी.पी.डब्लू.डी. (केंद्रीय लोक निर्माण विभाग) के अधीन है। जो भारत सरकार के शहरी विकास मंत्रालय का एक अंग है। वहां प्रतिमा कब लगी और कैसे लगी, इस बारे में बहुत स्पष्टता नहीं है। लेकिन जेपी की प्रतिमा लगने से वहां हर साल जेपी का जन्मदिन मनाने का एक सिलसिला शुरू हुआ। इसे अभय सिन्हा बड़ी लगन से संपन्न कराते हैं। जेपी आंदोलन से जुड़े सांसद, पूर्व सांसद और जेपी को मानने वाले लोग वहां उस आयोजन में आते रहे हैं। इस तरह जेपी के जन्मदिन मनाने की रस्म चलती रही है।
इसमें सुखद मोड़ इस वर्ष आया। पूर्व सांसद आर.के. सिन्हा ने इस आयोजन को भव्य और व्यापक बनाने के लिए सुनिश्चित निर्णय किए। वह आयोजन में दिखा। पहली बार उस मैदान में रौनक थी। मैदान साफ-सुथरा था। जेपी की प्रतिमा चमक रही थी क्योंकि उसे धोया और पोंछा गया था। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। पहली बार जेपी की प्रतिमा के पास बड़ा मंच सजाया गया। वह मंच जेपी के चरणों में था। इसका एक भावात्मक अर्थ भी है। हर साल थोड़े लोग आते थे। लेकिन इस बार पूरे मैदान में चहल-पहल थी। सैकड़ों लोग बैठ सकें और आराम से घंटों जेपी के बारे में वक्ताओं के भाषण आस्थापूर्वक सुन सकें, इसकी वहां उत्तम व्यवस्था थी।
यह आयोजन न केवल भव्य था, बल्कि लोगों की सहभागिता बता रही थी कि जेपी में आस्था रखने वाले लोग बहुत हैं। जेपी के प्रति आस्थावान समूह के प्रतिनिधि वहां बड़ी संख्या में थे। वे चलकर आए थे। जो भाषण हुए, उस पर उनके भाव जिस तरह से तालियों से प्रकट हो रहे थे, वह प्रमाण था कि वे लोग इस समय जेपी के विचारों को अधिक प्रासंगिक समझते हैं। उन विचारों को जानने-समझने की एक उत्कंठा श्रोताओं में दिख रही थी। आर.के. सिन्हा के अनुरोध पर शहरी विकास मंत्री मनोहरलाल खट्टर आए। उनका जेपी के जन्मदिन पर आगमन संभव ही नहीं था, अगर आर.के. सिन्हा ने बार-बार उनसे अनुरोध न किया होता। वे आए और बोले। उन्होंने स्वीकार किया कि वे जब पढ़ते थे तो एक बार जेपी को सुनने का उन्हें अवसर मिला। दिल्ली विश्वविद्यालय के मॉरिस नगर चौक पर जेपी की सभा थी। हजारों विद्यार्थी सभा में आए। जेपी को सुना। उनमें एक मनोहरलाल खट्टर भी थे। उन्हें जेपी का कहा हुआ याद नहीं था। लेकिन यह उन्हें खूब याद था कि बहुत धीरे-धीरे जेपी बोल रहे थे और उन्हें सभा तन्मय होकर सुन रही थी। यह बता दूं कि जेपी को छात्रसंघ के अध्यक्ष अरुण जेटली ने बुलाया था। यह बात 1974 की है। आशय यह है कि शहरी विकास मंत्री मनोहरलाल खट्टर इसलिए भी आए क्योंकि उनमें जेपी के प्रति एक तरह की आस्था है। जब उन्हें बताया गया कि जेपी की प्रतिमा का विधिवत अनावरण नहीं हुआ है और फिरोज शाह कोटला का यह मैदान लोक निर्माण विभाग के पास है तो उन्होंने अपने भाषण में कहा कि वे अपने अफसरों से पूरी बात मालूम करेंगे। उन्होंने अपनी ओर से एक सलाह दी कि जेपी की प्रतिमा और मैदान के रख-रखाव के लिए एक नागरिक समिति बननी चाहिए। उस समिति को आर्थिक परेशानी न हो इसलिए लोक निर्माण विभाग वह खर्च उठाएगा। इस प्रकार बिना घोषित किए मनोहरलाल खट्टर ने उस मैदान का नया नामकरण कर दिया।
अपने लंबे सार्वजनिक जीवन के अनुभव से उन्होंने यह समझा है कि सरकार का कोई विभाग ऐसे कामों को अनमने ढंग से लेता है। इसी समझ के आधार पर मनोहरलाल खट्टर ने नागरिक समिति के गठन की सलाह दी। नागरिक समिति अगर बनती है तो वह मैदान भी अपना नया नाम धारण करेगा और वह लोकनायक जयप्रकाश नारायण मैदान होगा। जेपी के 122वें जन्मदिन पर यह संभव हो सका। इसलिए कि पूर्व सांसद आर.के. सिन्हा ने इसका बीड़ा उठा लिया था। जेपी के जन्मदिन के इन तीन आयोजनों के अपने-अपने अर्थ हैं। जो घटना खबरों में छाई रही, वह दलीय राजनीति से प्रेरित दिखती है और है भी। लेकिन जो आयोजन खबर से गायब रहे वे एक सन्नाटे को तोड़ते हैं और एक संदेश देते हैं।
वह जेपी का संदेश है। इस समय संसदीय लोकतंत्र को देश अपना चुका है। लेकिन उसमें सुधार की सबसे ज्यादा जरूरत भी इसी समय है। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा कांग्रेस ने चुनाव खर्च बेतहाशा बढ़ा दिया था। जेपी ने उससे उत्पन्न खतरे को भांपा। चुनाव सुधार के लिए आवाज लगाई। जो एक अभियान सा बन गया। अर्से से स्वयं चुनाव आयोग भी तरह-तरह के चुनाव सुधारों की अनुशंसा करता रहा है। लोकसभा चुनाव को अलग करके इंदिरा गांधी ने तात्कालिक फायदा तो उठाया लेकिन नुकसान यह हुआ कि अब सालभर चुनाव ही चुनाव होते रहते हैं। जेपी अगर आज होते तो वे भारत सरकार के एक साथ चुनाव कराने के निर्णय के पक्ष में अभियान चलाते। वे यह समझाते कि एक साथ चुनाव को दलीय राजनीति से परे रखना चाहिए। यह देश के हित में है। इससे वे लोग लाभान्वित होंगे जो हाशिए पर हैं। उन्हें सुखी जीवन के अवसर उपलब्ध होंगे।
इस संदेश को वे ही समझ सकेंगे, जिन्होंने जेपी को पढ़ा है और समझा है। कुछ उदाहरणों से जेपी की विशेषताएं जानी जा सकती हैं। पहला उदाहरण है, 1948 का। गांधीजी के जाने के बाद सेवाग्राम में एक विमर्श हुआ। जिसमें ‘गांधी के राजनैतिक कुल’ के सदस्य शामिल हुए थे। उनके सामने सवालों का सवाल था कि ‘बापू गए: अब हमें क्या करना है?’ वहां जेपी दूसरों से अलग विचार रखते हैं। वह यह कि गांधी विचार पर अमल करने के लिए खोज-बीन, फील्डवर्क और प्रयोग करने की जरूरत होगी। इसे जेपी ने अपने पूरे जीवन में अपनाया। इसी प्रवृति के कारण बहुत पहले जेपी ने संसदीय लोकतंत्र के दोषों को दूर करने के लिए अनेक सुझाव दिए। एक साथ चुनाव से संसदीय लोकतंत्र का हर दोष दूर हो जाएगा, यह दांवा कोई भी सूझ-बूझ वाला व्यक्ति नहीं करेगा। लेकिन साधारण समझ का भी व्यक्ति यह जरूर मानेगा कि इससे कुछ सुधार अवश्य होगा। जेपी के बारे में अखिलेश यादव अपनी समझ अगर बढ़ाएं तो वे भी इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि एक साथ चुनाव लोकतंत्र को अधिक समर्थ और पारदर्शी बनाएगा। जैसे ही वे इस समझ तक पहुंचेंगे तो वे नीतीश कुमार को कोई उल्टी-सीधी सलाह देने के बजाए उनसे सही सलाह मांगेंगे।
जेपी अगर आज होते तो वे भारत सरकार के एक साथ चुनाव कराने के निर्णय के पक्ष में अभियान चलाते। वे यह समझाते कि एक साथ चुनाव को दलीय राजनीति से परे रखना चाहिए। यह देश के हित में है। इससे वे लोग लाभान्वित होंगे जो हाशिए पर हैं।