अब्दुल गफूर मजीद नुरानी नहीं रहे। वे ए.जी. नुरानी के नाम से मशहूर थे। पर, उनके जो थोड़े दोस्त थे, वे उन्हें गफूर कहकर बुलाते थे। निधन के बाद ही लोग उनका पूरा नाम जान सके हैं। उन्हें लंबी उम्र मिली। 29 अगस्त यानी बीते महीने की इसी तारीख को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। अगर करीब सात साल और वे जी लेते, तो सौ साल के होकर जाते। अंग्रेजी अखबारों ने बिना अपवाद किए उन्हें खूब सराहना भाव से याद किया है। उनके बारे में हर अंग्रेजी अखबार में विस्तृत रिपोर्ट छपी है। लेकिन हिन्दी जगत ने उन्हें याद नहीं किया। दिल्ली के किसी हिन्दी अखबार में उनके निधन की कोई खबर नहीं दिखी। इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे अंग्रेजी में ही लिखते और पढ़ते थे। हालांकि उनके लेखन का प्रभाव दूर-दूर तक था। वे अपने लेखन के बल पर एक जाने-माने नाम थे। उन्होंने जिंदगी के अंतिम क्षण तक उन विषयों पर लिखा, जो उनको प्रिय थे। उनका लेखन विपुल है। उनमें विषयों की विविधता है।
ए.जी. नुरानी एक बड़े विद्वान, तर्कनिष्ठ, पक्षकारी, शोधक, वकील और पत्रकार भी थे। वे पेशे से वकील थे। वकील के रूप में उनकी वैसी पहचान नहीं थी जैसी भारत में कभी नानी पालकीवाला और फाली एस. नारीमन की रही। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में उनकी धमक तो थी, लेकिन चर्चित सक्रियता नहीं थी। युवा गफूर ने भारत विभाजन देखा। संविधान सभा को दूर से जाना-समझा और संविधान बनने के वे एक गवाह बने। कानून की पढ़ाई कर मुंबई हाईकोर्ट में वकालत से अपना जीवन शुरू किया। कम वकील हैं, जो मशहूर पत्रकार और गंभीर विषयों पर निबंध लिखने के लिए जाने जाएंगे। इस मायने में वे चंद लोगों में एक थे। संविधान संबंधी सम-सामयिक विषयों पर उन्होंने लिखा और उन लेखों में संविधान सभा की बहस का हवाला देकर एक दृष्टिकोण को जन-मन में बैठाने की कोशिश की।
संविधान निर्माताओं के विचार लोक को वे अपने निबंध रूपी खिड़की से वही दिखाते थे जो दिखाना चाहते थे। ऐसा करते हुए वे प्रामाणिक तो रहते थे, पर उनके लेख का एक प्रयोजन भी होता था। प्रमाण वे अपने लेख को किसी के गले उतारने के लिए देते थे। लेकिन निष्कर्ष उनका अपना होता था। इससे वे विवाद के केंद्र में भी रहते थे। उनके निष्कर्ष से वामपंथियों को तर्क का बल प्राप्त होता था। उन्हें पढ़कर उत्सुकतावश कोई मिलना चाहे तो जरूरी नहीं कि वे मिल ही लें। अक्सर वे मिलने से कतराते थे। इस मायने में वे गूलर के फूल थे। चंद मुस्लिम नेताओं के वे ‘गॉड फादर’ थे। मुंबई के नेपियन सी रोड का अपार्टमेंट उनका निवास था, जहां उनकी मर्जी से ही कोई मिल सकता था।
कश्मीर पर उनकी एक चर्चित किताब है, ‘आर्टिकिल-370 : ए कांस्टीट्युशनल हिस्ट्री ऑफ जम्मू एंड कश्मीर’। नरेंद्र मोदी सरकार ने 2019 में इस विघटनकारी संवैधानिक अनुच्छेद को समाप्त करने का निर्णय किया। संसद ने मंजूरी दी। देश ने उसे अहोभाव से स्वीकारा। एक असंभव सी बात संभव हो सकी। आजादी के बाद जो अनुच्छेद विवाद और विघटन का कारण था उसे हटाने से जम्मू-कश्मीर में नए युग की शुरूआत हुई। जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त हुआ। वह भारत का उसी तरह से अंग बना जैसे दूसरे राज्य हैं। लेकिन कुछ विघ्नसंतोषी लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। उस दौरान जिसका सबूत के तौर पर बहुत बार हवाला दिया गया, वह गफूर की किताब थी। नतीजा विपरीत आया। कश्मीर विवाद पर उनकी किताब तथ्यों से भरी हुई है। यह उनकी अध्ययनशीलता का परिचायक है।
उनकी किताब का असर जम्मू-कश्मीर में बहुत गहरे था। आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर में लोग दो हिस्सों में बटे रहे हैं। उसका कारण अनुच्छेद-370 था। एक हिस्से के लोग आजादी मांग रहे थे, तो दूसरे समूह की मांग स्वायत्तता थी। ये दोनों समूह ए.जी. नुरानी की किताब से अपने तर्क को मजबूत करते थे। इस तरह वे सैयद अली शाह जिलानी और मीरवेज उमर फारूक खेमे में समान आदर के पात्र थे। नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डिमोक्रेटिक पार्टी में भी उनका सम्मान था। राष्ट्रवादी समूह में वे पाकिस्तान के पक्षधर या सहायक समझे जाते थे। जम्मू-कश्मीर में जब उमर अब्दुल्ला मुख्यमंत्री हुए तो उन्हांने ए.जी. नुरानी को एक पत्र भेजा। उसमें उनसे जम्मू-कश्मीर में शांति प्रक्रिया बढ़ाने के कार्य में परामर्शदाता बनने का अनुरोध था। ए.जी. नुरानी ने उस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया। यह बात विचित्र सी है कि वे इंतजार करते रहे और परामर्श के लिए उन्हें कभी बुलाया नहीं गया। इसका कारण बताने की जरूरत नहीं है। ए.जी. नुरानी को अपना परामर्शदाता बनाकर उमर अब्दुल्ला ने अनुभवहीनता का परिचय दिया। थोड़े दिनों बाद किसी ने उन्हें सलाह दी कि ए.जी. नुरानी तुम्हारे लिए ‘कबाब मे हड्डी’ साबित होंगे।
वारिशा फरसात ने ए.जी. नुरानी को याद करते हुए लिखा है कि ‘नुरानी साहब जिस तरह कांस्टीट्युशनल लॉ से गहरा लगाव रखते थे उसी तरह वे भोजन के जबरदस्त प्रेमी थे। मुंबई में कोई ऐसी कबाब की दुकान नहीं थी जहां से उन्होंने काकोरी या गलोटी कबाब न मंगाया हो।’ ए.जी. नुरानी का अध्ययन व्यापक था। भारत-चीन सीमा विवाद, भू-राजनीति, नागरिक अधिकार, इस्लाम, जेहाद आदि विशयों पर उन्होंने पढ़ा और लिखा। बदरूद्दीन तैयब जी, जिन्ना, तिलक, डा. जाकिर हुसैन की उन्होंने जीवनी लिखी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, वीर सावरकर और हिन्दुत्व के वे घोर आलोचक थे। राश्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना में उन्हांने एक मोटी किताब लिखी, ‘दी आरएसएस’।
इंडियन एक्सप्रेस ने उसी दिन ए.जी. नुरानी पर एक रिपोर्ट छापी, जिस दिन उनका निधन हुआ। उस रिपोर्ट में खास-खास लोगों ने ए.जी. नुरानी को सराहना भाव से याद किया है। उनमें एक ए.आई.एम.आई.एम. के अध्यक्ष असादुद्दीन ओवैसी भी हैं। उसी रिपोर्ट में जानकारी दी गई है कि ए.जी. नुरानी ने शेख अब्दुल्ला, एन.टी. रामाराव और जयललिता के मुकदमे लड़े। उन्हें जो भी याद करेगा वह उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं पर निशान लगाएगा। उन्हें भविष्य में भी याद किया जाता रहेगा। इंडियन एक्सप्रेस ने शीर्षक दिया है, ‘फीयरलेस, स्ट्रेट फारवर्ड…मोर ए लॉयर आउटसाइड कोर्ट रूम्स।’ इसमें तीन बातें हैं। वे निडर थे। स्पष्टवादी थे और वकील से ज्यादा बड़े लेखक थे।
उनकी अपनी दुनिया थी। उसमें वे रमे हुए थे। अनेक लोगों ने याद किया है कि वे सबके लिए उपलब्ध नहीं थे। कुछ लोगों के लिए ज्यादा उपलब्ध थे। ऐसा वही व्यक्ति करता है जिसका अपना कोई मिशन हो। यही बात एजी नुरानी के साथ थी। अपने प्रसंशकों में वे पक्के सेकुलर की पहचान वाले थे। यही उनका मिशन था। उन्हांने जिन विशयों पर लिखा है, उनमें वे ही विषय हैं जो सेकुलर जमात को प्रिय हैं। अयोध्या आंदोलन के दौरान एजी नुरानी उन लोगों के दिल और दिमाग थे जो उस आंदोलन को सांप्रदायिक और कट्टर जमात का मानते थे। ऐसे लोगों को एजी नुरानी के लिखे से बोलने, लड़ने और लड़-मरने की ऊर्जा मिलती थी। वह ऊर्जा सही दिशा में समाज को ले जाती थी या नहीं, यह अलग विशय है। इस पर अलग-अलग मत हो सकते हैं। जो उनसे सहमत थे, वे उनके प्रसंषक थे। जो असहमत थे, वे उनकी आलोचना करते थे। यह स्वाभाविक है। पर, हर कोई यह अवष्य मानता है कि वे जबरदस्त खोजी थे।
आलोचना और प्रसंशा से परे एजी नुरानी के लेखन में एक चुंबक था। आलोचक और प्रसंशक दोनों उनको पढ़ते थे। बहुत ध्यान लगाकर पढ़ते थे। ऐसा क्यों था? इसलिए था कि उनके लेख शोध-परक होते थे। उनके लेख में उल्लिखित तथ्य और संदर्भ अकाट्य थे। इसे ही जानने के लिए पक्ष और विपक्ष के अध्येता उनको पढ़ते थे। ऐसा व्यक्ति क्या कोई दूसरा इस समय है? अगर कोई यह पूछे और खोजा जा सके कि सचमुच कोई दूसरा एजी नुरानी है, तो उस व्यक्ति को तलाशना सरल नहीं, बड़ा कठिन काम होगा। जीते जी तो ए.जी. नुरानी को तलाशने की जरूरत नहीं थी। वे कुछ खास पत्रिकाओं में अपने लेख के साथ तलाशने से पहले ही मौजूद रहते थे। उन पत्रिकाओं को कुछ पाठक इसीलिए पढ़ते थे क्योंकि उसमें एजी नुरानी का लेख होता था। वे अपने लेख के लिए ही सिर्फ नहीं जाने जाते थे।
उनकी एक अनोखी पहचान थी। कोई व्यक्ति एजी नुरानी को पढ़ते समय उनके संदर्भों, तथ्यों और प्रामाणिक अंशों को चकित होकर देखता रह जाता था और अनुभव करता था कि उनका संदर्भ पुस्तकालय अवश्य बहुत ढंग से संभालकर बनाया गया होगा और उसे लगातार अपडेट भी किया जाता होगा। दिल्ली में अनेक गहरे अध्येता यह कहते हुए सुने जाते थे कि एजी नुरानी का संदर्भ गं्रथालय बहुत बड़ा है। जो लोग यह कहते थे, वे मुंबई जाकर उनसे मिले हों और उनका पुस्तकालय और संदर्भ संग्रहालय देखा हो, ऐसा नहीं था। उनसे बातचीत के दौरान यह स्पष्ट हो जाता था। इससे यह समझा जा सकता है कि उनके लेखन के आधार पर ही लोग अनुमान लगाते थे। वे सार्वजनिक जीवन के आदमी उस तरह के नहीं थे जो हर सभा और सेमिनार में मिल जाते हैं।
एक मायने में वे हर जगह उपस्थित पाए जाते थे। जहां किताबें हैं, जहां पत्र-पत्रिकाएं हैं और जहां वामपंथी साहित्य है, वहां ए.जी. नुरानी की अक्षरदेह दिखाई न पड़े यह हो ही नहीं सकता। उनका निधन ऐसे समय में हुआ है, जब देश इमरजेंसी को संविधान हत्या के रूप में याद कर रहा है। संविधान हत्या दिवस मनाने की घोषणा सरकार ने की है। ए.जी नुरानी भी इमरजेंसी की घोषणा से बहुत आहत थे। वे नागरिक अधिकारों पर उस दौरान जो हमले इंदिरा गांधी की सरकार ने किए उससे आहत थे। असल में नागरिक अधिकारों के वे अथक योद्धा थे। यही बात उन्हें ए.जी. नुरानी बनाती थी।