पराई आधुनिकता

बनवारी

जब 1947 में हमने ब्रिटिश शासन को विदा करके अपनी स्वतंत्रता फिर स्थापित की थी तो अपने मन में यह सोच लिया था कि औपनिवेशिक दौर समाप्त हुआ। अब हम अपने समाज के और अपने देश के सुख-दुख को समझ कर नई सभ्यता का निर्माण कर सकते हैं। यह नई सभ्यता क्या है इस पर मौलिक रूप से कुछ खास नहीं सोचा गया। जिन लोगों के हाथों में राजनीति की बागडोर थी उन्होंने मान रखा था कि नई सभ्यता तो दुनिया भर में खड़ी हो रही है। दुनिया भर में उसकी एक ही जैसी शक्ल रहने वाली है। इसलिए किसी भारतीय सभ्यता के बारे में कुछ सोचने की क्या जरूरत है। दुनिया भर में जो सभ्यता विकसित हो रही है उससे अलग रह कर तो चला ही नहीं जा सकता।

यह नहीं कहा जा सकता कि इन लोगों में कोई भारतीय गौरव नहीं था। उनमें यह अहसास था कि बहुत-सी दिशाओं में भारत अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सकता है। उसके चिंतन में और उसकी रचनाशीलता में बहुत कुछ ऐसा है जिसे मौलिक भी कहा जा सकता है और श्रेष्ठ भी। लेकिन उन्होंने सोचा था कि इस श्रेष्ठता का कोई निपट भारतीय उपयोग नहीं हो सकता। अपनी इस श्रेष्ठता के जरिए हमें विश्व सभ्यता को समृद्ध बनाने की कोशिश करनी चाहिए। हमें दुनिया को यह बताना चाहिए कि जीवन को श्रेष्ठ बनाने में हम क्या-क्या सहयोग दे सकते हैं। हमारी जो बातें दुनिया की बिरादरी को पसंद आ जाएं उन्हें हमें आाधुनिक मान लेना चाहिए।

इस चिंतन की सबसे बड़ी कमजोरी यही थी कि आधुनिकता की परिभाषा करने का काम तथाकथित विश्व बिरादरी पर रह गया। यह विश्व बिरादरी किसी भी अर्थ में वैश्विक नहीं थी। हो भी नहीं सकती थी। दुनिया में जो शक्ति तंत्र पनपा हुआ है उसकी बागडोर तो यूरोपीय जातियों के हाथ में ही है। उनकी दृष्टि जैसे पहले आत्मकेंद्रित थी वैसे ही आज भी आत्मकेंद्रित है। वे अपने समाज और अपने इतिहास को ही केंद्र में रख कर देखते और सोचते हैं। इसलिए यह संभव ही नहीं था कि दुनिया के दूसरे समाजों की श्रेष्ठता को अपनी सभ्यता में मिला कर वे किसी विश्व सभ्यता को पनपाने की कोशिश करते।

भारत के लोगों को अपनी श्रेष्ठता को विश्व सभ्यता का अंग बनवाने में सफलता नहीं मिली। तभी उन्हें समझ में आ जाना चाहिए था कि दरअसल विश्व सभ्यता जैसी कोई चीज है नहीं। विश्व सभ्यता के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है वह एक नए तरह का औपनिवेशीकरण है। जिसमें सैनिक अधीनता स्थापित करने की कोशिश नहीं की जाती। उसके तरीके नफासत से भरे हुए हैं। इस औपनिवेशीकरण के हथियार आर्थिक और वैचारिक हैं। जिन लोगों के हाथ में पिछले दो-तीन सौ बरस में दुनिया के अधिकांश हिस्से की राजनैतिक सत्ता चली गयी है वही आज इस बाजार को चला रहे हैं। वे विचारों और वस्तुओं को एक ही टोकरी में रखकर दुनिया भर में बेच रहे हैं।

सबसे अनोखी बात यह है कि किसी को इसमें कोई जोर-जबर्दस्ती दिखाई नहीं देती। सबको ही लगता है कि यह तथाकथित विश्व सभ्यता स्वेच्छा से ही खड़ी हो रही है। कोई देश किसी दूसरे देश को अपनी सभ्यता के मानक मानने के लिए मजबूर नहीं कर रहा। फिर भी यूरोपीय जातियों के तौर-तरीके दुनिया भर में फैलते जा रहे हैं। उनके विचार और मान्यताएं व्यापक स्वीकृति पा रहे हैं। उनकी जीवन शैली लोकप्रिय बनती चली जा रही हैं। यूरोपीय जातियों की आधुनिक उपलब्धियों में लोगों को आकर्षण दिखाई देता है इसलिए वे स्वेच्छा से उस तरफ बढ़ते चले जा रहे हैं।

इस स्वेच्छा के पीछे के इतिहास और परिस्थितियों को देखे बिना यह समझ में नहीं आ सकता कि वह दरअसल स्वेच्छा नहीं है मजबूरी है और वह भी ऐसी मजबूरी कि मजबूर करने वाले आदमी की जोर-जबर्दस्ती दिखाई नहीं पड़ती। दरअसल यूरोपीय जातियों ने अपने साम्राज्यवादी अभियान के समय दुनिया की दूसरी सभ्यताओं को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया है। उनकी अपनी जो भी श्रेष्ठता थी उसकी स्मृति तो बची रही लेकिन इस श्रेष्ठता के व्यावहारिक ढांचे समाप्त हो गए। राजनैतिक ताना-बाना टूट गया, सामाजिक संगठन बिखर गया, कला और शिल्प की संस्थाएं टूट-फूट का शिकार हो गई और चारों तरफ गरीबी फैल गई।

कोई भी टूटा और बुझा हुआ समाज अचानक उठ कर तेज नहीं दौड़ने लग सकता। उसे अपने शरीर को फिर से चुस्त-दुरुस्त करने के लिए समय चाहिए। लेकिन आधुनिक दुनिया के नियम ऐसे हें कि समय किसी समाज के पास नहीं बा है। सब यह दबाव महसूस कर रहे हैं कि जल्दी से जल्दी उन्हें अमीरी का पहाड़ खड़ा कर लेना है।

वह कैसे खड़ा हो, यह सोचने का समय नहीं है। ऐसी हालत में अमीर देशों क नकल करने के सिवाय रास्ता क्या रह जाता है। थका-टूटा ऊंच-नीच के जो बीज औपनिवेशिक शासन के दौरा बोए गए थे उनकी फसल लूटने के लिए वे शोषण और दमन की ऐतिहासिकता सिद्ध करने में लगी हैं। इन मिशनरी संस्थाओ का आधुनिक रूप है नागरिक अधिकार आंदोलन।

नागरिक अधिकार आंदोलन में लगे हुए लोग समाज की किसी समस्या को उस समाज के संदर्भ में रख कर देखने की कोशिश नहीं करते। अगर वे ऐसा करें तो उस समस्या का उचित और व्यावहारिक हल ढूंढ़ना मुश्किल नहीं होगा। वे उस समस्या को शोषण और दमन की कल्पित ऐतिहासिता से जोड़ देते हैं और विभिन्न वर्गों में परस्पर इतना द्वेष और कलह पैदा कर देते हैं कि लड़ाई का कोई अंत ही न दिखाई दे। इस तरह समस्या न केवल बनी रहती है बल्कि वह गहरी होती चली जाती है। बिल्लियों के बीच बंदरबांट करने वाले यह आंदोलनकारी समाज के भीतर संघर्ष बढ़ाते चले जाने को ही प्रगतिशील मान लेते हैं।

पश्चिमी तंत्र शिक्षा में तो घुसपैठ किए हुए ही हैं। वे अपनी राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक समस्याओं का औचित्य सिद्ध करते चले जो के लिए एक विश्वव्यापी शिक्षा-तंत्र फैला रहे हैं। उदाहरण के लिए भारत के विश्वविद्यालय चलाए भारतीयों द्वारा ही जाते हैं, लेकिन उनमें क्या पढ़ाया जाए क्या नहीं इसकी रूपरेखा अंतरराष्ट्रीय शिक्षा तंत्र की तय की हुई होती है। हमारे विश्वविद्यालयों की पढ़ाई का सारे समाज को जरूरतों और परिस्थितियों से ताल्लुक नहीं होता। उनका ताल्लुक तो यूरोपीय जातियों की संस्थाओं और तौर तरीकों का औचित्य सिद्ध करने से ही होता है। इन शिक्षा संस्थाओं को अंतरराष्ट्रीय शिक्षा तंत्र से थोड़ा बहुत पैसा और वाहवाही मिलती रहती है और वे उसी में खुश हो जाते हैं।

अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं आधुनिक रहन-सहन का सस्ता प्रचार करने में लगी रहती हैं। दुनिया को आधुनिक बनाने के नाम पर वे ऐसी परिस्थितियां पैदा करती रहती हैं कि पश्चिमी उद्योगों में पैदा होने वाली वस्तुओं को ज्यादा से ज्यादा बाजार मिले। यह वित्तीय संस्थाएं बड़े नाज-नखरों से कर्जे देती हैं। और ऊपर से शर्त भी थोपे रहती हैं कि कर्ज का इस्तेमाल उन्हीं की वस्तुएं खरीने में होगा। मगर कहीं आप का विवेक जागृत हो जाए और आप उनसे कर्ज लेना बंद कर दें तो साम, दाम, दंड, भेद सब तरीके से आपके पीछे लग जाती हैं कि आप फिर से कर्ज लेना शुरू कर दें क्योंकि वे जानती हैं कि अगर आपने कर्ज लेना बंद कर दिया तो बाजार का विस्तार रुक जाएगा।

इन सब दबावों के बाद भी अगर कोई यह कहे कि दुनिया के सभी समाज स्वेच्छा से आधुनिक होते चले जा रहे हैं और इस आधुनिक होने के नाम पर यूरोपीय जातियों के फैलाए जाल में फंसते जा रहे हैं तो यह बात सही नहीं होगी। अगर वे पश्चिम के आधुनिकीकरण अभियान को स्वेच्छा से त्याग दें तो उन्हें पश्चिमी देशों से बाकायदा सैनिक लड़ाई लड़नी पड़ सकती है। पश्चिम देशों को अपनी बीमार कर देने वाली अमीरी की लत लग गई है और उसका मोह उन्हें किसी भी क्रूरता की तरफ ले जा सकता है। वे इस बात को बर्दाश्त नहीं करेंगे कि कोई उनकी इस अमीरी में अपनी स्वतंत्रता के नाम पर जर भी बाधा डाले।

इसके बावजूद भारत और भारत जैसे समाजों को तैयार होना पड़ेगा कि इस तथाकथित विश्व सभ्यता का भ्रम तोड़ा जा सके। इस सभ्यता में सिर्फ यूरोपीय जातियों की लगभग जुगुप्सा पैदा करने वाली अमीरी के लिए गुंजाइश है। बाकी दुनिया के लिए तो वह निराशा, अकर्मण्यता और कलह के बीज ही बो रही है। उनके पांच-सात फीसदी लोगों को यूरोपीय जीवन स्तर उपलब्ध हो जाता है। जिसमें वैसे कोई खास सुख नहीं है। पर उसे मुहैया करने में बाकी लोगों का तो कचूमर ही निकल जाता है। यह सही है कि इस तथाकथित विश्व सभ्यता का भ्रम तोड़ने के लिए कुछ जोखिम उठाना पड़ेगा और जरूरत पड़ी तो पश्चिमी देशों की युद्ध की धमकी को भी व्यर्थ करना पड़ेगां आज की हालत से तो यह जोखिम लेना बेहतर ही होगा।

अपने स्वभाव और देश-काल की परिस्थितियों के हिसाब से हर समाज को अपनी सभ्यता विकसित करनी चाहिए। सभी सभ्यताओं में कुछ मोटी समानताएं हो सकती हैं। लेकिन यह सोचना मूूर्खता है कि सभी सभ्यताएं एक जैसी होनी चाहिए। विविधता प्राकृतिक है और उसकी रक्षा आवश्यक है। अगर इस विविधता को समाप्त करके हम दुनिया को एक सांचे में ढालने की कोशिश करें तो यह दुनिया भर पर अत्याचार होगा। ऐसी बात वही सोच सकता है जिसे दुनिया के विभिन्न समाजों से कोई मतलब न हो। जिसे सिर्फ अपनी शक्ति के विस्तार से ही मतलब हो और उसके लिए वह कोई भी अत्याचार कर सकता हो।

‘भारतीय सभ्यता के सूत्र’ किताब से साभार

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