मैं एक दूसरा पहलूू आपके सामने रखना चाहता हूं। बापू के जो रचनात्मक कार्य हैं, उनके बारे में फिर से बुनियादी विचार करने की जरूरत है। इस संबंध में मैं अपने ख्यालात पेश करता हूं। बड़ी मुश्किल से, पचीस बरस मेहनत करके अंग्रेजी सीखे। किसी तरह से अंग्रेजी में अपने ख्याल प्रकट कर लेता हूं। अब यह हिंदुस्तानी आई। हम हिंदुस्तानी सीख नहीं पाए। जैसी टूटी-फूूटी आती है उसमें बोलने की कोशिश करूंगा।
पुरानी चीजों का पुनर्जीवन
जिन उद्देश्यों की पूूर्ति के लिए बापू ने रचनात्मक काम शुरू किए उन पर आप निगाह डालें, तो उनके बारे में बुनियादी तौर पर विचार कर सकेंगे। बापू ने पुरानी चीजें हमारे सामने रखीं। बुनियादी तालीम भी कोई नई चीज नहीं है। समाजवादियों ने उन्हें रिवाइवलिस्ट-देखिए फिर दिक्कत आई। मैं रिवाइवलिस्ट के लिए हिंदी शब्द नहीं जानता-(किसी ने ‘पुनरुद्धारक’ शब्द सुझाया) ‘उद्धारक’ शब्द में वह सेन्स (मतलब) नहीं आता। समाजवादी और साम्यवादी कहते हैं कि बापू की रिवाइवलिस्ट ऐक्टिविटी थी-पुरानी चीजों के पुनर्जीवन की कोशिश थी।
क्रांतिकारिकता की पहचान
मेरी समझ में उन्होंने पुरानी चीजों को क्रांतिकारक चीजें बना दिया। क्रांतिकारक पद्धति जमाने की मांग को पूरा करने का एक तरीका है। जिस जमाने की जो क्रांति-प्रेरणा होती है, उसे पूरा करने वाली चीज क्रांतिकारक साबित होती है। गांधी जी जब दक्षिण अफ्रीका से लौटे, उस वक्त जमाने की मांग परदेसी राज को हटाने की थी। यही उस वक्त की क्रांति प्रेरणा थी। परदेसी राज हटाने की कोशिश करने वाले दो तरह के थे। नरम दल वाले और गरम दल वाले। दोनों का तरीका क्रांतिकारक नहीं था। नरम दल वालों का विश्वास विनय, निवेदन और निषेध (प्रेअर, पीटिशन और प्रोटेस्ट) पर था। दूूसरा तरीका बमवादियों का था। हिंदुस्तान की परिस्थिति में बम गोले का तरीका दूर तक नहीं ले जा सकता था। महात्मा का अहिंसक तरीका उससे भी अधिक क्रांतिकारी था। क्योंकि वह तरीका जमाने की मांग से मेल रखता था। बम का बेमौजू था। इसलिए लोगों को निडर न बना सका। गांधी जी का अहिंसक तरीका बम के तरीके से भी पुरअसर साबित हुआ।
क्रांति के साथ जोड़ने का तरीका
मैं सन् उन्नीस सौ सत्रह, अट्ठारह, उन्नीस और बीस में इतिहास का प्रोफेसर था। चरखा रखना बेवकूूफी की बात समझता था। मेरी वृत्ति, शिक्षा-दीक्षा, सबकुछ उसके खिलाफ था। लेकिन उस बूढ़े ने चरखे का संबंध क्रांति के साथ जोड़ दिया, तो मुझे चरखा लेना ही पड़ा। ग्रामउद्योग देहातों में घर-घर चलते थे। आज भी थोड़े-बहुत चलते हैं। लेकिन गांधी ने उनको भी क्रांति के साथ जोड़ दिया। किसी चीज को क्रांति के साथ जोड़ देने का तरीका बड़ा कारगर तरीका है। बड़ा तेज तरीका है। महात्मा की सब प्रवृत्तियां क्रांति के साथ जुड़ गईं।
प्रार्थना भी क्रांति का साधन
और तो और, प्रार्थना भी क्रांतिकारक हो गई। मैं एक अच्छा आदमी हूं। इसलिए मैं प्रार्थना में नहीं जाता था। लेकिन हमारा नेता राजनैतिक बातें प्रार्थना में ही करता था। वह प्रार्थना में क्रांति लाया। जो लोग बिलकुल बे-ताल थे, उन्हें उसने अनुशासन सिखाया। रामधुन सुर में गाओ, तालियां ताल में बजाओ। जहां दो आदमियों का मिलकर गाना बेसुर होता था, वहां बड़ी-बड़ी सभाओं को एक सुर में रामधुन गाना सिखाया। बेतालों को ताल सिखाया। हिंदुस्तानी आदमी कभी चुपचाप बैठना तो जानता ही नहीं। इतनी बड़ी प्रार्थना-सभाओं में उसने लोगों को एक-दूसरे के साथ मिलकर चुपचाप बैठना सिखाया। भंगी का काम इस देश में कौन-सा सभ्य आदमी करता। लेकिन उसने उसे भी स्वराज्य के काम के साथ जोड़ दिया। उसने कहा कि मैं बतलाता हूं कि अंग्रेजों को कैसे निकाला जाए। हमने कहा, बतलाओ। फिर उसने कहा, चरखा लो, झाडू लो। इसलिए इन चीजों को अपनाना पड़ा। जिस चीज का जमाने की इंकलाबी मांग के साथ ताल्लुक होता है, वह पुरानी होकर भी नया अर्थ लेकर आती है और क्रांतिकारी रूप ले लेती है।
नमक नहीं क्रांति बनाई
जबतक खादी का संबंध अंग्रेजों का व्यापार और राज खत्म करने से था, तबतक लोगों ने बड़े उत्साह से खादी को अपनाया। अब वह मतलब पूरा हो गया। अब फिर मिल के कपड़े की बात शुरू हो गई। 1930 में बुड्ढ़े ने कहा, नमक बनाओ। मोतीलाल जी हंसते थे। लेकिन फैक्ट्स को डिमाॅलिश करने वाला विजन- वस्तुस्थिति को मात देने वाला दिव्य दर्शन-गांधी के पास था। गांधीवृत्ति वाला- यह आदमी भला बैलगाड़ी में तो चलता! वह तो पैदल चला! हर कदम पर क्रांति की बिजली फैलाता चला। दांडी के समुद्र के किनारे उसने नमक नहीं, रेवोल्यूशन मैन्युफैक्चर किया- इंकलाब बनाया। मगनवाड़ी में हमको कड़वे नीम की पत्ती खिलाई। खली तक खिलाई। हमने चुपचाप खाई। करते क्या! स्वराज जो चाहते थे। इन बातों के पीछे क्रांति की प्रेरणा थी।
बुढ़िया का शगल?
अब इन चीजों में वह जान क्यों नहीं है? इसलिए कि क्रांति की पुरानी प्रेरणा खत्म हो गई। जिस उद्देश्य से हमने उन्हें अपनाया था, वह उद्देश्य पूरा हो गया। अब हमें इन प्रवृत्तियों को ‘ओल्ड डेम्स ऐक्टिविटी’- बुढ़िया का शगल- नहीं बनाना है। हमको क्रांतिकारियों से अब सुधारवादी नहीं बनना है।
क्रांति-प्रेरणा से अनुबंध
इसका यह अर्थ हुआ कि इन चीजों को आज की क्रांति-प्रेरणा के साथ जोड़ना होगा। हमको अपने चरखा, ग्रामोद्योग आदि कामों को क्रांति के साथ बांधना होगा सिर्फ आर्थिक कारण बतला देना काफी नहीं है। स्वदेशी के जमाने में हमने देश की आर्थिक उन्नति का कारण बतलाया। वह बात लोगों के दिल में नहीं जमी। जब उसका मेल अंग्रेजों को भगाने के साथ लगाया गया, तो स्वदेशी के आंदोलन से देश सुलग उठा। अब अंग्रेज चले गए। अब आपको आज की परिस्थिति में नई क्रांति की व्याख्या करनी होगी और उस मुख्य क्रांति के साथ रचनात्मक काम का कोरिलेशन-अनुबंध-बतलाना होगा।
नई क्रांति का उद्देश्य
नई क्रांति का उद्देश्य इक्वेलिटैरियन सोसायटी- समतापूर्ण समाज- है। चरखा, ग्रामोद्योग, बुनियादी तालीम, पाखाना- सफाई, इन सबको इस उद्देश्य के साथ जोड़ देना होगा। वरना अब इनके दिन लद गए। गांधी ने अंग्रेंजी राज के विनाश की परिभाषा में चरखे की फिर से व्याख्या की और इस तरह मरे हुए चरखे को फिर से जिलाया। अब उस चरखे की नई क्रांति की परिभाषा में, नए सिरे से व्याख्या करो। यही बात दूूसरे सारे कामों के लिए लागू है।
विकेंद्रीकरण की जरूरत
शुरू-शुरू में काम के बदन के साथ उसकी रूह भी होती है। बाद में यह सिर्फ यांत्रिक रह जाता है। रूह नहीं रहती। आज के बड़े पैमाने पर औद्योगीकरण के जमाने में उस परिभाषा में चरखे की व्याख्या करनी होगी। हम लोकसत्ता कायम करना चाहते हैं। उसका साधन औद्योगिक विकेंद्रीकरण है। विकेंद्रीकरण के सिवा जनतंत्र की बात झूठ है। केंद्रीकरण से नौकरशाही आती है ब्यूरोक्रेसी या टेक्नोक्रेसी- नौकरशाही या तांत्रिकशाही- दोनों लोकसत्ता की समान रूप से दुश्मन हैं। और जहां जनतंत्र नहीं, वहां अहिंसा नहीं। हम जवाहरलाल नेहरू से कहेंगे कि अगर आपको असली जनतंत्र से गरज है, तो केंद्रीकरण का लालच छोड़ना होगा। जिस हद तक केंद्रीकरण होगा उस हद तक जनतंत्र भी कम होगा।
इस विकेन्द्रीकरण की दृष्टि से आप अपनी कार्य प्रणाली की नई व्याख्या कीजिए। अब गांव-गांव में बिजली पहुंचेगी। तेल और कोयले का जमाना बीत रहा है। अब मोटरों के हिस्से, जहाजों और हवाई जहाजों के हिस्से छोटे-छोटे कारखानों में बनेंगे। अमेरिका में विकेंद्रीकरण की पद्धति से बड़े-बड़े जहाज युद्धकाल में बने। जमाना विकेंद्रीकरण का है।
पुरानी चीजों की नई व्याख्या का महत्व
हमारे धर्म में पुरानी चीज की नई व्याख्या का बहुत महत्व है। वेदों पर, पुराणों पर, गीता पर नए-नए भाष्य लिखे गए और लिखे जा रहे हैं। तिलक ने, अरविंद ने, लाला लाजपतराय ने और बापू ने भी पुरानी गीता के नए अर्थ लगाए। किसी चीज को जिंदा रखने का यह सबसे कारगर तरीका है। अगर आप सारे रचनात्मक संघों का एकीकरण करते हैं, तो जरूर कीजिए। बात बहुत अच्छी है। लेकिन मेहरबानी करके ध्यान में रखिए कि आपको अपनी प्रवृत्तियों की फिर से व्याख्या करनी है। किस दृष्टि से नई व्याख्या करनी है, यह भी मैंने थोड़े में बतलाया।
मिल कर काम करने की कला
एक बात और। हमारे देश में एक-एक आदमी अकेला बहुत अच्छा काम कर लेता है। इसलिए वह चाहता है कि हरेक बात उसकी मर्जी के मुताबिक हो। अपनी बराबरी वालों के साथ काम करने की कला हम लोगों में नहीं है। कुमारप्पा, जाजूूजी, नायकमजी ये सब डिक्टेटोरियल टाइप-तानाशाही छाप- के आदमी हैं। उनके दफ्तर में उनके सामने कोई चूं भी नहीं कर सकता। हमको एक-दूसरे के साथ मिलकर काम करने की कला बढ़ानी है। हम बाहर के आदमियों से मोहब्बत का रिश्ता जोड़ते हैं। लेकिन साथियों से बात करने की भी फुरसत नहीं। गांधी जी से एक बड़ी भूल हुई। उन्होंने हमसे कहा कि अपने दुश्मनों से प्रेम करो। यहां तो भाइयों से भी प्रेम नहीं करते! इसलिए हमने भाइयों के साथ काम करना भी छोड़ दिया। हमारे स्टैंडर्ड-दर्ज- के लिए तो यही नियम हो सकता है कि मित्रों को प्रेम दो और दुश्मनों को न्याय दो। मुझमें भी यह नुक्स है। मैंने अपनों से प्रेम करना नहीं सीखा! कुछ आदमियों का यह ख्याल है कि मित्रों के साथ अन्याय किए बिना विरोधियों के साथ न्याय नहीं हो सकता।
न्यूटन और बिल्लियां
रचनात्मक संघों के संचालक अगर एक-दूूसरे के साथ मिलजुल कर काम करने लगेंगे, तो हमारे बीच भीतरी मुहब्बत और सहयोग कायम होगी। इस एक ही संघ से भाईचारे का काम भी हो सकेगा। इन संस्थाओं के मिलाप के लिए अलग संघ और आदमियों के मिलाप के लिए अलग संघ बनाने की बात सुनकर मुझे न्युटन का किस्सा याद आता है। वह अपना कमरा बंद करके अध्ययन करने बैठता। लेकिन अपनी प्यारी बिल्ली के लिए उसने दरवाजे में सूराक बना दिया। बिल्ली के जब बच्चा हुआ तो न्यूटन ने बड़ी बुद्धिमानी से बच्चे के लिए छोटा सूराक बनवाया। मानो बड़ा सूराक दोनों के लिए उपयोगी न था। हम भी इस तरह के छोटे और बड़े सूराक बनाने के चक्कर में न पड़ें।
रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन (खुला अधिवेशन) में 15 मार्च 1948 को दिया गया भाषण