जनजातीय यानी देश के आदिवासी-वनवासी समुदायों ने भोपाल में मतांतरित लोगों को सरकारी नौकरी, छात्रवृत्ति में आरक्षण,अनुदान एवं अन्य लाभों से वंचित करने के लिए हुंकार भरी है।इसे डी-लिस्टिंग अर्थात अनुसूचित जनजाति सूची से बाहर करने का गर्जना अभियान कहा गया है।हालांकि यह आंदोलन वर्षों से चल रहा है, किंतु अब मध्यप्रदेश की राजधानी में देशव्यापी प्रदर्शन करके प्रदेश व देश को यह संदेश दे दिया है कि जनजाति समाज अपने इस संवैधानिक अधिकार को हासिल करके ही रहेगा।
ऐसा शायद पहली बार देखने में आया है कि इस समाज के विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता और अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों ने भी मंच पर आकर इस मांग को जायज ठहराया।सेवानिवृत्त जज प्रकाश सिंह उइके ने तो यहां तक कहा कि इस मांग को लेकर संविधान में संशोधन का प्रारूप 1970 से संसद में विचाराधीन है।अब प्रस्ताव को पारित कराने के लिए जरूरत पड़ी तो पैदल यात्रा भी करेंगे। दरअसल जनजातीय समुदायों के धर्म और समाज व्यवस्था के वर्चस्व को बनाए रखने का यह संघर्ष अब केवल किसी एक प्रदेश का न रहकर देश का हो गया है।इसीलिए इस आंदोलन में भागीदारी के लिए झारखंड, बिहार,छत्तीसगढ़, ओडिशा,राजस्थान, महाराष्ट्र से भी लोग आए।इससे तय हुआ है कि जनजातीय समुदाय से जो लोग लालच में ईसाई या मुसलमान बने हैं, उन्हें जनजातीय सूची से निकाला जाए।जब उन्होंने अपना मूल धर्म ही प्रलोभन में छोड़ दिया तो फिर उन्हें आरक्षण का लाभ क्यों?
भारत एक ऐसा विचित्र देश है, जहां 75 सालों से अनुत्तरित चले आ रहे, सवाल नए-नए रूपों में प्रगट होते रहते हैं। ऐसा ही अनुत्तरित प्रश्न धर्मांतरित ईसाई और मुस्लिम बने अनुसूचित जाति बनाम दलित लोगों से जुड़ा है। इस प्रश्न के निराकरण के लिए केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश केजी बालकृष्णन की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग का गठन भी किया है। दो वर्ष में यह आयोग अध्ययन करेगा कि ऐतिहासिक रूप से सामाजिक असमानता और भेदभाव झेलते चले आ रहे आदिवासी यदि संविधान के अनुच्छेद 341 में उल्लेखित धर्मों हिंदू, सिख और बौद्ध के अलावा किसी अन्य धर्म (ईसाई या इस्लाम) में मतांतरित हो गए हैं तो क्या उन्हें अपना मूल धर्म बदलने के बाद भी अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाकर सरकारी नौकरियों, पदोन्नतियों और शिक्षा में दिए जाने वाले आरक्षण संबंधी लाभ मिलने की पात्रता दी जा सकती है ? दरअसल यह एक ऐसा जटिल एवं विरोधाभासी मामला बन गया है, जिसके परिप्रेक्ष्य में धर्म परिवर्तन करने वाले अनुसूचित जाति का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं, वहीं इसी जाति वर्ग से जुड़े कुछ समूहों द्वारा इस मांग का विरोध किया जा रहा है। अतएव सरकार ने निर्णायक स्थिति का पता लगाने के लिए इस आयोग का गठन किया है।
एक साल पहले लोकसभा के दो सदस्यों, झारखंड से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और मध्य-प्रदेश के ढालसिंह बिसेन ने धर्मांतरण का मुद्दा उठाते हुए मांग की थी कि दूसरा धर्म अपनाने वाले लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। दरअसल संविधान के अनुच्छेद-342 में धर्म परिवर्तन के संबंध में अनुच्छेद-341 जैसे प्रावधान में लोच है। 341 में स्पष्ट है कि अनुसूचित जाति (एसटी) के लोग धर्म परिवर्तन करेंगे तो उनका आरक्षण समाप्त हो जाएगा। इस कारण यह वर्ग धर्मांतरण से बचा हुआ है। जबकि 342 के अंतर्गत संविधान निर्माताओं ने जनजातियों के आदि मत और पुरखों की पारंपरिक सांस्कृतिक आस्था को बनाए रखने के लिए व्यवस्था की थी कि अनुसूचित जनजातियों को राज्यवार अधिसूचित किया जाएगा। यह आदेश राष्ट्रपति द्वारा राज्य की अनुशंसा पर दिया जाता है। इस आदेश के लागू होने पर उल्लेखित अनुसूचित जनजातियों के लिए संविधान सम्मत आरक्षण के अधिकार प्राप्त होते हैं। इस आदेश के लागू होने के उपरांत भी इसमें संशोधन का अधिकार संसद को प्राप्त है। इसी परिप्रेक्ष्य में 1956 में एक संशोधन विधेयक द्वारा अनुसूचित जनजातियों में धर्मांतरण पर प्रतिबंध के लिए प्रावधान किया गया था कि यदि इस जाति का कोई व्यक्ति ईसाई या मुस्लिम धर्म स्वीकार्यता है तो उसे आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। किंतु यह विधेयक पारित नहीं हो पाया है। अनुच्छेद 341 के अनुसार अनुसूचित जातियों के वही लोग आरक्षण के दायरे में हैं, जो भारतीय धर्म हिन्दू, बौद्ध और सिख अपनाने वाले हैं। गोया, अनुच्छेद-342 में 341 जैसे प्रावधान हो जाते हैं, तो अनुसूचित जनजातियों में धर्मांतरण की समस्या पर स्वाभाविक रूप से अंकुश लग जाएगा।
संविधान के तीसरे अनुच्छेद, अनुसूचित जाति आदेश 1950, जिसे प्रेसिडेन्शियल ऑर्डर के नाम से भी जाना जाता है, के अनुसार केवल हिंदू धर्म का पालन करने वालों के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति को अनुसूचित जाति की श्रेणी में नहीं माना जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में अन्य धर्म समुदायों के दलित और हिंदू दलितों के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा है, जो समता और सामाजिक न्याय में भेद करती है। इसी तारतम्य में पिछले पचास सालों से दलित ईसाई और दलित मुसलमान संघर्षरत रहते हुए हिंदू अनुसूचित जातियों को दिए जाने वाले अधिकारों की मांग करते चले आ रहे हैं। इस बाबत रंगनाथ मिश्र की रिपोर्ट ने इस भेद को दूर करने की पैरवी की थी। लेकिन संविधान में संशोधन के बिना यह संभव नहीं था। 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा था कि एक बार जब कोई व्यक्ति हिंदु धर्म या मत छोड़कर ईसाई या इस्लाम धर्मावलंबी बन जाता है तो हिंदु होने के चलते उसके सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से कमजोर होने की योग्ताएं समाप्त हो जाती हैं। लिहाजा उसे संरक्षण या आरक्षण देना जरूरी नहीं है। इस लिहाज से उसे अनुसूचित जाति का व्यक्ति भी नहीं माना जाएगा।
राज्यसभा में भाजपा सांसद जीवीएल नरसिम्हा राव द्वारा पुछे गए एक सवाल के जबाव में पूर्व विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी कहा था कि ‘अनुसूचित जाति एवं जनजाति के जिन लोगों ने इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लिया है, वे आरक्षण के लाभ का दावा नहीं कर सकते हैं। यही नहीं ये लोग सरकारी नौकरियों के साथ-साथ संसद और विधानसभा के लिए आरक्षित सीटों पर भी चुनाव लड़ने के योग्य नहीं माने जाएंगे। केवल हिन्दू, सिख और बौद्ध मत को मानने वाले लोग ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीट से चुनाव लड़ने की पात्रता रखेंगे। इन्हीं लोगों को सरकारी नौकरियों की पात्रता रहेगी।‘ उन्होंने आगे यह भी स्पष्ट किया था कि ‘इस्लाम और ईसाई धर्म अपना चुके अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों को संसद या विधानसभा चुनाव लड़ने से रोकने के लिए जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम में भी संशोधन की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि हिंदुत्व को मानने वाले और इस्लाम या ईसाई धर्म अपना चुके लोगों के बीच अधिनियम में पहले से ही स्पष्ट विभाजन रेखांकित है।‘
इस बयान से साफ होता है कि इस्लाम और ईसाई धर्म अपनाने वाले दलित और बृहद हिंदू धर्म के तहत आने वाले दलितों के बीच अंतर है। यदि कालांतर में कार्यपालिका और विधायिका में बिना किसी बाधा के इस बयान पर अमल की प्रक्रिया शुरू हो जाती तो हिंदुओं में धर्म परिवर्तन थमना शुरू हो जाता और इससे राष्ट्रवाद को मजबूती मिलती। क्योंकि ज्यादातर ईसाई व इस्लामिक संस्थाओं को शिक्षा और स्वास्थ्य के बहाने हिंदुत्व और भारतीय राष्ट्रवाद की जड़ों में मट्ठा घोलने के लिए विदेशी धन मिलता है। भारत सरकार को आयोग गठन की अधिसूचना में कहना पड़ा है कि ‘अभी तक जांच आयोग ने अधिनियम 1952 के अंतर्गत इस मामले की जांच नहीं की है। इसलिए केंद्र सरकार इस अधिनियम की धारा तीन के तहत प्राप्त शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए तीन सदस्यीय जांच आयोग गठित करती है।‘
2006 में केंद्र में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार थी, तब संविधान में 93वां संशोधन कर अनुच्छेद-15 में नया खंड-5 जोड़कर स्पष्ट किया गया था कि सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए विशेष प्रावधान किए जा सकेंगे। लेकिन ये प्रावधान अल्पसंख्यक संस्थाओं को छोड़कर सभी निजी संस्थाओं पर लागू होंगे। चाहे उन्हें सरकारी अनुदान प्राप्त होता हो। यह प्रावधान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को अनुच्छेद-15 के खंड 3 व 4 के क्रम में ही किया गया था। इससे भी साफ होता है कि इन जातियों के जो लोग ईसाई या इस्लामिक संस्थाओं अर्थात अल्पसंख्यक संस्थाओं में धर्म परिवर्तित कर शिक्षा लेते हैं, उन्हें अनुदान की पात्रता नहीं होगी। साफ है, अब तक धर्म परिवर्तन कर अनुसूचित जातियों के अधिकार को छीनकर हकमारी कर रहे लोगों को वास्तव में आरक्षण के लाभ की पात्रता नहीं है।
आजादी के बाद पहला अवसर था कि अनुच्छेद-15 और जन-प्रतिनिधित्व कानून को किसी विधि मंत्री ने संसद में स्पष्ट रूप से परिभाषित करने की हिम्मत जुटाते हुए, इसके प्रावधानों को धर्म और जाति के रूप में विभाजित कर रेखांकित किया था। दरअसल स्वतंत्रता के बाद जब संविधान अस्तित्व में आया तो, अनुसूचित जाति और जनजातियों के सामाजिक उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधा दी गई थी। 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए ओबीसी आरक्षण का प्रावधान किया था। आरक्षण व्यवस्था के परिणामों से रुबरू होने के बावजूद पूर्व की सरकारें एवं राजनेता वोट की राजनीति के लिए संकीर्ण लक्ष्यों की पूर्ति में लगे रहे हैं। हालांकि वंचित समुदाय वह चाहे अल्पसंख्यक हों अथवा गरीब सवर्ण, यदि वह भारतीय नागरिक है तो उन्हें बेहतरी के उचित अवसर देना लाजिमी है, क्योंकि किसी भी बदहाली की सूरत अल्पसंख्यक अथवा जातिवादी चश्मे से नहीं सुधारी जा सकती l
(उपरोक्त विचार लेखक के निजी हैं.)