इमरजेंसी का सच

रामबहादुर राय

इमरजेंसी के इतिहास में 25 जून, 1975 का दोहरा महत्व है। दोहरा इसलिए कि एक तरफ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी‘परिवार की तानाशाही’ की साजिश रच रही थीं, तो दूसरी तरफ राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के उत्साहजनक संबोधन के बाद लोक संघर्ष समिति के सचिव नानाजी देशमुख ने एक बड़ी घोषणा मंच से की। वह थी, ‘संविधान की रक्षा के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को त्याग पत्र देना चाहिए। यह उनसे मांग की जाएगी। इसके लिए गांव-गांव सभाएं होंगी। आंदोलन होगा और राष्ट्रपति भवन पर प्रतिदिन 29 जून से सत्याग्रह होगा।’ इससे जनता के मन में नई रोशनी की चमक पैदा हुई। हालांकि वह क्षणिक थी। रामलीला मैदान की सभा में सम्मिलित हर नागरिक इस उत्साह से लौट रहा था कि जन-आकांक्षा फलीभूत होगी। इंदिरा गांधी इस्तीफा देंगी। लोकतंत्र की मर्यादा का वे पालन करेंगी। अगर वे ऐसा करती तो संविधान की हत्या का दिवस मनाने की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए यह जानना जरूरी है कि आखिर इसके विपरीत जो हुआ वह कैसे हुआ, किनकी बात चली और लोकतंत्र की हत्या कैसे हुई? इसकी सच्चाई जानना पहले सरल नहीं था, आज है, क्योंकि इंदिरा गांधी का पक्ष भी आ गया है और विपक्ष की योजना जो थी, वह सर्वज्ञात हो गई है। वह हर किसी को पता है।

पहले यह देखना चाहिए कि रामलीला मैदान की घोषणा पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समर्थक क्या सोचते हैं। इस बारे में उनका दृष्टिकोण कई पुस्तकों में उपलब्ध है। उसका सार निचोड़ है, ‘विपक्ष ने प्रतीक्षा नहीं की।’ वैसे तो अपना पक्ष रखने के लिए इंदिरा गांधी की सरकार ने एक ‘श्वेत पत्र’ जारी किया था। उसे लोकतंत्रवादी पक्ष ‘स्याह पत्र’ कहता है। यह अकारण नहीं है। यह मत निराधार भी नहीं है। इसका एक स्पष्ट आधार है, जो एम. जी. देवसहायम की पुस्तक ‘जयप्रकाश की आखिरी जेल, इमरजेंसी का कुचक्र’ में छपा है। इसकी प्रस्तावना मशहूर विचारक गोविंदाचार्य ने लिखी है। उसी में यह जानकारी है कि जेपी अखबारों के रवैये से बहुत खिन्न थे, क्योकि वे झूठे और एकपक्षीय हो गए थे। इसलिए पढ़ने के लिए अखबार न मांगकर उन्होंने टीकासहित वाल्मीकि रामायण मांगा। इमरजेंसी लगने के बाद उसी साल की 21 जुलाई एक खास तारीख बन गई है। उससे तीन महत्वपूर्ण घटनाएं जुड़ी हुई हैं।

उसी दिन संसद का मानसून सत्र शुरू हुआ। उसी दिन जेपी ने पहली बार जेल में अपनी कलम उठाई। उसी दिन इंदिरा गांधी की सरकार ने एक ‘श्वेत पत्र’ निकाला। जो झूठ का पुलंदा था। उसे संसद के दोनों सदनों में पटल पर रखा गया। उसमें जेपी को इमरजेंसी के लिए सबसे बड़ा गुनहगार साबित करने की हरचंद कोशिश थी। जिसे देश ने कभी नहीं माना।

जिस समय सरकार संसद के पटल पर ‘श्वेत पत्र’ रख रही थी उसी समय जेपी ने अपनी डायरी में लिखा कि ‘मेरी गलती यह हुई कि मैंने मान लिया था कि एक लोकतांत्रिक देश की प्रधानमंत्री बहुत करेंगी तो हमारे शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक आंदोलन को पराजित करने के लिए सभी साधारण-असाधारण कानूनों का इस्तेमाल करेगी, परंतु ऐसा नहीं होगा कि वे लोकतंत्र को ही खत्म कर देंगी और उसकी जगह पर एक अधिनायकवादी व्यवस्था कायम कर देंगी।

अगर प्रधानमंत्री ऐसा करना भी चाहें तो यह विश्वास मुझे नहीं था कि उनके वरिष्ठ सहयोगी और उनका दल, जिसकी ऊंची लोकतांत्रिक परंपराएं हैं, ऐसा होने देगा। लेकिन वही बात हुई जो विश्वास के बाहर थी। हां, अगर कोई हिंसक विस्फोट हुआ होता, और हिंसक सत्ता-पलट का कोई खतरा होता तो जो कुछ कार्रवाई हुई, उसको हम समझ सकते थे। परंतु हमारा तो एक शांतिपूर्ण आंदोलन था, और ऐसे आंदोलन की परिणति इस रूप में हुई!’

जेपी आंदोलन की व्यापकता कितनी थी? इसके बारे में पत्रकार, लेखक और इतिहासकार भी बहुत घालमेल करते रहे हैं। इस समय भी कर रहे हैं। इसलिए यह बताना जरूरी है कि जेपी आंदोलन को किस तरह देख रहे थे। चंडीगढ़ में बंदी जीवन जब वे बिता रहे थे तब बहुत ही तटस्थ होकर उन्होंने इस बारे में कुछ बातें कहीं। उससे हम वास्तविकता को समझ सकते हैं। जो जेपी आंदोलन माना जाता है वह बिहार से शुरू हुआ। लेकिन उसके कारण इमरजेंसी नहीं लगी। जब इंदिरा गांधी मुकदमा हार गईं और कायदे से उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था, लेकिन वे पद से चिपकी रही तब जेपी के नेतृत्व में गैर-कम्युनिस्ट विपक्ष ने जिस आंदोलन की शुरूआत की थी, असल में उसे ही इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाने का अस्त्र बनाया।

सरकार ने ‘श्वेत पत्र’ में जेपी पर देश में अराजकता फैलाने का आरोप लगाया। देव सहायम ने अपनी बातचीत के आधार पर लिखा है कि जेपी ने उनसे कहा- ‘देश में अराजकता फैलाने की कभी कोई योजना नहीं रही। जनआंदोलन सिर्फ बिहार तक सीमित था और वह भी राजनीतिकों और भ्रष्ट प्रशासन के खिलाफ।’ थोड़ी देर बाद वे बोले-‘हम सिर्फ एक ही बड़ा जनआंदोलन करने जा रहे थे, और वह था इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद उनसे इस्तीफे की मांग करने के लिए शांतिपूर्ण सत्याग्रह शुरू करना। विपक्ष सभाएं आयोजित करने और सत्याग्रह शुरू करने के लिए मजबूर हो गया था, क्योंकि इंदिरा गांधी और उनके चाटुकारों द्वारा रैलियां आयोजित की जा रही थीं, प्रदर्शन किए जा रहे थे, और यह सब जनता के पैसों से हो रहा था। ऐसे में विपक्ष के लिए यह दिखाना आवश्यक था कि देश में बहुत सारे लोग, जिनकी संख्या यदि ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं, चाहते हैं कि कोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी इस्तीफा दें और देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं की गरिमा बनाए रखें। इसे देश में अराजकता फैलाना तो नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने फिर गुस्से में सवाल किया, ‘‘क्या लोकतंत्र में विपक्ष का कोई दायित्व और कर्तव्य नहीं है।’’

जेल में जेपी शांतचित थे। वैसे भी वे अत्यंत उदार और तटस्थ मनोवृत्ति के महापुरूष थे। उनका कहा हुआ ही इतिहास में सच के रूप में दर्ज है और लोग यकीन करते हैं। जेपी के कहे से यह अर्थ बिना किसी अतिरंजना के निकाला जा सकता है कि इंदिरा गांधी ने सत्याग्रह का सामना करने के बजाय तानाशाही कायम कर दी। फिर जो कुछ कदम उठाया वह एक झूठ को छिपाने के लिए अनेक झूठों का सिलसिला भर था। पर यह जान लेना जरूरी है कि इंदिरा गांधी की सरकार ने जेपी और विपक्ष पर क्या-क्या आरोप लगाए। पहला आरोप इन शब्दों में था- ‘एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है, जहां ये विपक्षी दल बुनियादी सिद्धांत और लोकतांत्रिक तौर-तरीकों को भूल गए हैं। अगर उन्हें छूट दी जाती रही तो देश की स्थापित संस्थाओं में लोगों की आस्था खत्म हो जाएगी और लोकतंत्र की जगह हमें अव्यवस्था और अराजकता ही हाथ लगेगी। कोई भी सरकार देश की सुरक्षा, स्थायित्व और अर्थव्यवस्था को चौपट करने की इजाजत नहीं दे सकती है। राष्ट्र के हित के लिए कठोर कदम उठाना जरूरी है।’

क्या इस आधार पर अराजकता का आरोप कहीं ठहरता है? बिल्कुल नहीं। इसीलिए तो जेपी ने रामलीला मैदान में चुनौती दी थी कि ‘मैं देशद्रोह के आरोप में मुकदमें का सामना करने के लिए तैयार हूं।’ उसी सभा के बाद जब उन्हें इंदिरा गांधी ने गिरफ्तार करवाया तो सरकार में यह हिम्मत नहीं थी कि उनपर मुकदमा चलाए। अगर मुकदमा चलाया जाता तो इंदिरा गांधी बेनकाब हो जाती। क्योंकि सरकार यह आरोप जेपी के विरोध में साबित नहीं कर सकती थी। जेपी यह मानते थे और उन्होंने जेल में बताया भी कि इंदिरा गांधी असुरक्षा के भावना से ग्रस्त महिला थी। ‘जिस समय वे प्रधानमंत्री बनीं, तभी से वे खुद को असुरक्षित महसूस करती रही हैं। उन्हें अपने सहयोगियों परबिल्कुल विश्वास नहीं था।’ रामलीला मैदान में क्या हुआ? इसे याद दिलाना इसलिए जरूरी है कि इंदिरा गांधी की सरकार के आरोपों को समझा जा सके। हुआ यह था कि 24 जून को पांच विपक्षीय दलों की एक बैठक मोरारजी देसाई के निवास पर हुई थी। दल थे-संगठन कांग्रेस, जनसंघ, भारतीय लोक दल, सोशलिस्ट पार्टी और शिरोमणि अकाली दल। वहां एक प्रस्ताव पारित हुआ कि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना चाहिए। वहीं यह तय हुआ कि अगर वे इस्तीफा नहीं देती हैं तो विपक्षी दल देश भर में आंदोलन और सत्याग्रह कर अपनी मांग दोहराएंगे। उसी कड़ी में 25 जून की शाम रामलीला मैदान में सभा हुई। जिसे रैली भी कहा जाता है। उसकी अध्यक्षता मोरारजी देसाई ने की। वहां नानाजी देशमुख ने कार्यक्रम का एक प्रारूप पेश किया। जेपी ने रैली को संबोधित करते हुए कहा कि नानाजी के बनाए कार्यक्रम का मैं समर्थन करता हूं। अब संघर्ष जब शुरू हो गया है तो मैं इससे अलग कैसे रह सकता हूं। जेपी ने तब यह भी अफसोस के साथ कहा था कि संघर्ष तो बिहार और उत्तर प्रदेश के अलावा कहीं नहीं हो रहा है। इससे एक बात साफ होती है कि रामलीला मैदान से राष्ट्रीय आंदोलन की शुरूआत होने वाली थी। वह कितना व्यापक और उग्र होती इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। इससे पहले कि आंदोलन शुरू हो, इंदिरा गांधी ने देश पर इमरजेंसी के जरिए तानाशाही थोप दी।

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव पी.एन. धर ने अपने संस्मरण में लिखा है कि रामलीला मैदान की घोषणा का जवाब इंदिरा गांधी ने अगले दिन दे दिया। वह राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा थी। इंदिरा गांधी ने ऐसा क्यों किया? यह प्रश्न पी. एन. धर पूछते हैं और उसका उत्तर देते हैं। सबसे पहले इंदिरा गांधी ने अपने निजी स्वार्थ को पहचाना और प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा न देने का निर्णय किया। इस तरह इमरजेंसी लगाने का निर्णय अवसरवादिता और स्वार्थ सिद्धि का एक ऐसा उदाहरण है जो अक्षम्य है। यह कथन जितना सरल और सपाट दिखता है वह गहरे में बहुत जटिल है। इसका सीधा संबंध संवैधानिक नैतिकता से है।यही वह मुद्दा है जिसे नरेंद्र मोदी सरकार ने जन-जन में पहुंचाने का बीड़ा उठा लिया है। इससे पहले केंद्र की किसी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया था।

 

 

 

 

 

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