इंडियन एक्सप्रेस के लिज मैथ्यू और घनश्याम तिवारी ने 10 अगस्त को अलग-अलग विषय पर लेख लिखा है। दोनों पत्रकारों को अच्छा लेख लिखने के लिए संविधान के मर्मज्ञ फाली एस. नारीमन ने बधाई देते हुए 13 अगस्त को एक लेख लिखा है। किसी पत्रकार के लिए इससे बड़ा कोई सम्मान नहीं हो सकता।
किसी अखबार और उसके पत्रकार का इससे बड़ा कोई सम्मान नहीं हो सकता जो इंडियन एक्सप्रेस के लिज मैथ्यू और घनश्याम तिवारी को स्वत:स्फूर्त पिछले दिनों मिला है। संविधान के मर्मज्ञ फाली एस. नारीमन ने 13 अगस्त को एक लेख लिखा। वह लेख इन पत्रकारों को मिला सम्मान है। अपने लेख में नारीमन लिखते हैं कि ‘मैं इंडियन एक्सप्रेस के आईडियाज पेज पर 10 अगस्त को छपे दो लेखों के लिए अखबार को बधाई देना चाहता हूं।’ वे दो लेख हैं, लिज मैथ्यू और घनश्याम तिवारी के। वे वास्तव में अलग-अलग विषयों पर हैं, लेकिन उनके तथ्य, शैली और तर्क ऐसे हैं जिनसे नारीमन इतने गदगद हुए कि उन्होंने एक लेख संपादक को भेजा और संपादक ने उसे छापा भी। जिससे इंडियन एक्सप्रेस के पाठकों को यह जानकारी मिली।
जिनकी रुचि रही होगी कि इंडियन एक्सप्रेस के इन लेखों में जो छपा है उसे पुन: पढ़ें और देखें कि वास्तव में नारीमन की तारीफ जो है वह काबिले तारीफ है या नहीं।
हिन्दी या किसी भी भारतीय भाषा का जागरूक पाठक नारीमन की ऊंचाइयों से अपरिचित नहीं होगा। वे विरले व्यक्तियों में से हैं। अगर किसी पत्रकार के लिखे को पढ़कर वे अतीत के अपने संस्मरणों में लौटते हैं तो मानना चाहिए कि वह लेख अपने आप में ऐतिहासिक महत्व का है। लिज मैथ्यू ने अपना लेख संसद भवन और संसदीय कार्य प्रणाली की अपनी रिपोर्टिंग के अनुभव के आधार पर लिखा है। इसका संदर्भ सामयिक है। भविष्योन्मुखी है। वह जानना चाहिए। एक अर्थ में लिज मैथ्यू का लेख पाठक को उदास करता है। इसका कारण यह है कि भविष्य पर जो प्रश्न एक आशंका के रूप में उन्होंने उठाया है वह अगर सचमुच घटित होता है तो उदासी का बादल घना होगा और विस्तार उसका देशव्यापी होगा। ऐसा होगा, यह वे नहीं कह रहे हैं। लेकिन हो सकता है कि जो परिवर्तन होने जा रहा है वह सांसदों की बनी हुई आदतों के विपरीत हो। विपरीत होना हमेशा न गलत होता है, न गड़बड़ होता है और कहें तो हमेशा अशुभ भी नहीं होता। वह कल्याणकारी भी हो सकता है।
जिस लेख की चर्चा हो रही है, उसमें दो-तीन बातें खास हैं। पहली बात यह है कि नई संसद बन रही है। वह पूरी होने जा रही है। भारत सरकार और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बता रखा है कि संसद का आगामी शीतकालीन अधिवेशन नए संसद भवन में होगा। यही इस लेख का मर्म भी है। जिसकी धुरी पर लेख धूमता है और दिखाता है एक बाइस्कोप। जैसा लिज मैथ्यू ने सालों में देखा है और अनुभव किया है उसे समेटा है। भाषा अच्छी है। अगर यह उनकी याददाश्त के आधार पर है तो यह भी मानिए कि उनकी याददाश्त बहुत अच्छी है। लेख में उन बड़े सांसदों का उल्लेख है जो इतिहास के पन्नों में हैं। जिन्हें सुनना हर उस पत्रकार के लिए एक बढ़िया क्षण होता रहा है जब वे बोलते थे। उसमें अटल बिहारी वाजपेयी का नाम है। जो सचमुच संसदीय मर्यादाओं में रहते हुए जो कहना चाहते थे वे कहते थे और उसका प्रभाव भी होता था। एक आदर्श उन्होंने संसदीय राजनीति में स्थापित किया। इसके उदाहरण लिज मैथ्यू के लेख में है।
लिज मैथ्यू के लेख में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रसंग ने नारीमन को एक अवसर भी दिया जब वे अपना संस्मरण भी जगजाहिर करने के लिए लिखने बैठे। उन्होंने लिखा है कि एक पुराना रिवाज रहा है। वह यह कि प्रधानमंत्री विदेश दौरे से वापस आता है तो राज्यसभा के सभापति उन्हें वक्तव्य देने के लिए कहते हैं। उस पर कुछ सांसदों को सवाल पूछने का अवसर मिलता है। लेकिन वह अवसर किसे मिले, यह निर्णय सभापति स्वयं करते हैं। जिस प्रसंग का उन्होंने अपने लेख में उल्लेख किया है तब सभापति भैरोसिंह शेखावत होते थे। वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। उन्होंने वक्तव्य दिया। उनसे सवाल पूछने का अवसर दो सांसदों को मिला। एक नारीमन स्वयं थे। दूसरे थे, नटवर सिंह।
उन्होंने लिखा है कि उस दिन नटवर सिंह ने छ: सवाल पूछे। हर सवाल पर उनकी आवाज ऊंची होती गई। थोड़ा क्रोध भी दिखता था। लोग उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे कि वाजपेयी जी क्या जवाब देते हैं और कैसे जवाब देते हैं। उन्होंने नटवर सिंह के सवालों की यह कहकर हवा निकाल दी कि नटवर सिंह बहुत बुद्धिमान हैं। अनुभवी भी हैं, लेकिन उनको क्रोध जरा जल्दी आता है। इस पर सदन में जो हंसी का फौव्वारा फूटा उसमें नटवर सिंह के सवाल आकाश में उछल गए। नारीमन ने लिखा है कि उस दिन मैंने सीखा कि संसद में सवाल और जवाब का संसदीय तरीका कैसा होना चाहिए। यह भी लिखा है कि नटवर सिंह के सवाल अंग्रेजी में थे। ऐसी अंग्रेजी जो कम लोग बोलते हैं। उनका जवाब वाजपेयी ने हिन्दी में दिया। पर उसे मेरे जैसा व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता था।
लिज मैथ्यू ने अपने लेख को बुना है इस बात पर कि पुराने संसद भवन की जो छटा थी क्या वह नई संसद में होगी। क्या वहां वैसा ही सेंट्रल हाल होगा जैसा कि पुराने में था। अपनी रिपोर्टिंग के वर्षों को याद कर सेंट्रल हाल की बदलती तस्वीर उन्होंने पेश की है। संसद भवन का सेंट्रल हाल इतिहास का गवाह है। ब्रिटिश इतिहास, संविधान निर्माण और 1952 से निर्वाचित संसद का। इन सालों में वहां जो परिवर्तन हुए हैं वे कुछ स्वाभाविक हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो खटकते हैं। सुरक्षा के तामझाम की जरूरत जब नहीं थी तो संसद का सेंट्रल हाल सबके लिए सुलभ था। अब वह सांसदों और मंत्रियों के लिए ही सुलभ है। पत्रकार भी वहां नहीं जा सकते। वह एक अर्थ में गप्पबाजी का अड्डा भी था। अब वह विशेषाधिकार क्षेत्र हो गया है।
ऐसा परिस्थितियों के कारण भी है और उसकी आवश्यकता भी उत्पन्न हो गई थी। जिस बात का लिज मैथ्यू के लेख में जिक्र नहीं है वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। क्यों नए संसद भवन की जरूरत पड़ी? यह प्रश्न दिखता साधारण होगा, है अपने आप में असाधारण। करीब तीन दशक पहले लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड़ ने अनुभव किया कि यह संसद भवन अपना वक्त पूरा कर चुका है। नए संसद भवन की आवश्यकता पर उन्होंने चर्चा की और थोड़ी पहल भी की। उनके बाद जो भी लोकसभा अध्यक्ष बने वे सभी इस विचार से सहमत थे। उसके लिए प्रयास करते थे और एक प्रस्ताव प्रधानमंत्री के पास भेजते थे।
यह क्रम चलता रहा। प्रश्न हर बार यह होता था कि संसद का नया भवन बने तो कहा! इस पर बहुत तरह के सुझाव आते रहे। उनका यहां उल्लेख करना जरूरी नहीं है। इतना ही जरूरी है कि किसी भी प्रस्ताव में यह कल्पना नहीं थी या यह सुझाव नहीं था कि संसद भवन के परिसर में ही नया संसद भवन बन सकता है। ज्यादातर प्रस्तावों में दूर की कोई जगह खोजी जाती थी। उसका सुझाव होता था। इसमें बजट जो होता था वह बड़ी अड़चन नहीं था। बड़ी अड़चन थी जगह की। उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कैसे हल किया? इसे जो जानते हैं वे उनके अनोखे विचार, आचार और सूझ के न केवल कायल हैं बल्कि वे चकित भी होते रहते हैं। कुछ ऐसा ही संसद भवन के नए प्रारूप में हुआ। क्या कोई कल्पना कर सकता था कि नया संसद भवन स्वतंत्र भारत का ऐसा होगा जिसमें क्षमता पुराने से ज्यादा होगी और आधुनिक तकनीक से सांसद अपने कामकाज बेहतर कर सकेंगे! जो बातें नए संसद भवन के शिलान्यास और निर्माण के दौरान आई हैं उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि पुराने और नए के समन्वय का सूत्र प्रधानमंत्री इस कार्य में भी दे पाए हैं। इसलिए लिज मैथ्यू को नए संसद भवन की छटा पर आशंका करने की जरूरत नहीं है।
घनश्याम तिवारी का लेख बिहार में नीतीश कुमार की राजनीति में कायापलट पर है। शीर्षक है-नीतीश भाजपा से चितिंत क्यों हैं? घनश्याम तिवारी ने जो लिखा है उसमें नीतीश कुमार का अतीत है। जिसकी सराहना भी होती है और आलोचना भी। अतीत एक तथ्य है। सवाल भविष्य का है। जिसे घनश्याम तिवारी के लेख की पंक्तियों के बीच पढ़ना संभव है। निष्कर्ष यह है कि भाजपा नीतीश कुमार को समाप्त करना चाहती थी। उसे भांपकर नीतीश कुमार ने एक छलांग ले ली है। सच यह है कि इस बार भाजपा और नीतीश कुमार ने बिहार की राजनीति में जो छलांग ली है वह है अंधेरे की छलांग। परिणाम कुछ भी हो सकता है।