क्या सुप्रीम कोर्ट ने इमरजेंसी में संशोधित उद्देशिका के दो शब्दों को मंजूरी दे दी है? ये दो शब्द हैं, समाजवाद और सेकुलरिज्म। इन दो शब्दों को उद्देषिका में शामिल किया जाए या नहीं, यह विवाद उस समय भी उत्पन्न हुआ था जब संविधान सभा में विचार किया जा रहा था। कुछ सदस्य इसके पक्ष में थे। उनका इन शब्दों के प्रति तार्किक और भावनात्मक लगाव था। वे सदस्य जाने-माने थे। लेकिन उनके तमाम तर्कों को डा. भीमराव अंबेडकर ने बहुत सोच- समझकर एक सिरे से खारिज कर दिया।उन्होंने निर्णय का जो आधार बनाया और बताया वह संविधान सभा के लिए समाधानकारक था। इसलिए वे सदस्य भी संतुष्ट हो गए जो इन शब्दों को जुड़वाना चाहते थे। उन सदस्यों ने अपने आग्रह पर जोर नहीं दिया। डा. अंबेडकर का तर्क आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था। हमें जानना चाहिए कि उनहोंने क्या कहा। उनका सीधा कहना था कि संविधान की प्रस्तावना में जीवनमूल्य है। भारत की संस्कृति है। उसकी श्रेष्ठ परंपराएं हैं। वे ही उद्देशिका में रहनी चाहिए। किसी राजनीतिक विचारधारा का अर्थ देने वाले शब्द के लिए उद्देषिका में कोई जगह नहीं बनाई जा सकती। डा. अंबेडकर ने जीवनमूल्य से उत्पन्न विश्वदृष्टि और राजनीतिक विचार के शब्दों का अंतर उस समय स्पष्ट किया।
लेकिन इमरजेंसी में इंदिरा गांधी ने इसको सत्ता के मद में भुला दिया। जो 42वां संविधान संशोधन कराया उसमें उद्देशिका भी संषोधित की गई। मूल संविधान में उद्देशिका 82 शब्दों की है। उस संशोधन के बाद उसमें अब 85 शब्द हैं। तीसरा शब्द है, अखंडता। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन समाजवाद शब्द पर आपत्ति है। इसके हजारों कारण हैं। इसी तरह जिस आशय से सेकुलरिज्म को शामिल किया गया है वह भी समाज से आज अस्वीकृत है। इस बारे में नागरिकों में असंतोष और अप्रसन्नता शुरू से ही है। इसे ही तीन याचिकाओं के जरिए सुप्रीम कोर्ट में उन्होंने पहुंचाया कि संभवतः नागरिकों की भावनाओं का आदर हो और इन शब्दों को संविधान से विदा कर दिया जाए। ये याचिकाएं कई साल पहले दायर की गई थीं। इनमें एक याचिका कर्ता डा. सुब्रण्यम स्वामी भी हैं। वे कानून मंत्री रहे हैं। उनका नाम बड़ा है। उनकी जनहित याचिका को सुप्रीम कोर्ट पूरी गंभीरता से सुनती है और ज्यादातर मामलों में वे जो चाहते हैं वे प्राप्त कर लेते हैं। इस बार वैसा नहीं हुआ। क्या डा. स्वामी पुनर्विचार याचिका दायर करेंगे? कोई नहीं जानता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट का जो निर्णय आया है उससे लोग अवगत हो चुके हैं। इस निर्णय का दोहरा महत्व है। संविधान-75 के एक दिन पहले यह सुनाया गया। इसकी घोषणा सुप्रीम कोर्ट ने काफी पहले की थी। उस निर्णय को मीडिया ने संविधान-75 के दिन छापा।
जो छपा है वह निर्णय को समग्रता से प्रस्तुत नहीं करता। जो छपा है, उसका एक ही अर्थ निकलता है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन शब्दों को मंजूरी दे दी है। यह आधा सच है। पूरा सच सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को ध्यान से पढ़ने पर अपने आप प्रकट होता है। इसी रूप में उस निर्णय का दोहरा अर्थ है। दूसरा अर्थ यह है कि संविधान की उद्देशिका में संशोधन को रद्द करने का निर्णय संसद को करना चाहिए क्योंकि संसद ने ही उसे संशोधित किया था। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपने संवैधानिक क्षेत्र से परे माना है। संविधान में दो बातें सिद्धांत के बतौर बड़ी प्रमुख हैं। एक, शक्ति विभाजन का सिद्धांत। दूसरा, न्यायिक समीक्षा का सिद्धांत। इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट की जिस पीठ ने फैसला सुनाया है उसमें मुख्य न्यायाधीश अध्यक्षता कर रहे थे। वे न्यायमूर्ति संजय खन्ना हैं। दूसरे जज भी संजय कुमार हैं। इसका एक प्रतीकात्मक अभिप्राय भी है। मुख्य न्यायाधीश ने अभी अपनी पारी शुरू ही की है। उनका कार्यकाल कैसा होगा, इसका संकेत वे इस निर्णय से दे रहे हैं। शक्ति विभाजन को उनहोंने न्यायिक समीक्षा से थोड़ा ऊंचा स्थान दिया है। शक्ति विभाजन से स्पष्टतया एक बात निकलती है कि संसद, सरकार और न्यायपालिका के दायरे अलग-अलग हैं। इनके कार्य अलग-अलग हैं।
इस याचिका में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक समीक्षा की जरूरत नहीं समझी। इसका अपने निर्णय में कारण भी बताया है कि याचिकाकर्ताओं को यह ख्याल 44 साल बाद आया! याचिकाकर्ताओं ने सोचा होगा कि जब जगेंगे तो सबेरा होगा। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें समझाया कि सूरज अपने समय से उगता है और समय पर ढलता है। कोई कब जगता है उससे सबेरा नहीं होता। वह तो होता ही है और वह जब होता है तो उसे सबेरा कहते हैं। यह इतनी सरल सी बात है कि याचिकाकर्ताओं को भी ख्याल में आ गई होगी कि वे संसद के मंच की ओर रूख करें। संसद ही इस ‘रक्त विकार’ का इलाज कर सकता है। 45वें संविधान संशोधन में जनता पार्टी की सरकार ने इसे क्यों छोड़ दिया और अब उस पार्टी के पूर्व सांसद उसे क्यों संविधान से बाहर करना चाहते हैं? ये प्रश्न उत्तर की मांग करते हैं। जो सुप्रीम कोर्ट गए थे अब वे प्रश्नों के घेरे में हैं। प्रश्नों का चक्रव्यूह समय के साथ अधिक घुमावदार होता जाने वाला है। संसद सक्षम है। उम्मीद करें कि वह भी इस ऐतिहासिक भूल को भूल मानें और उसका सुधार करें।